श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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हरि के दास सुहेले भाई ॥ जनम जनम के किलबिख दुख काटे आपे मेलि मिलाई ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सुहेले = सुखी। किलविख = पाप। आपे = प्रभु खुद ही। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भक्त सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। परमात्मा स्वयं उनके जनम मरण के दुख-पाप काट देता है, और उन्हें अपने चरणों में मिला लेता है। रहाउ।

इहु कुट्मबु सभु जीअ के बंधन भाई भरमि भुला सैंसारा ॥ बिनु गुर बंधन टूटहि नाही गुरमुखि मोख दुआरा ॥ करम करहि गुर सबदु न पछाणहि मरि जनमहि वारो वारा ॥२॥

पद्अर्थ: कुटंबु = परिवार। सभु = सारा। जीअ के बंधन = जीव के लिए बंधन। भुला = गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। मोख = मोक्ष, मुक्ति। करम = दुनिया के काम धंधे। वारो वारा = बार बार।2।

अर्थ: हे भाई! (गुरु की रजा में चले बिना) ये (अपना) परिवार भी जीव के लिए निरा मोह का बंधन बन जाता है, (तभी तो) जगत (गुरु से) भटक के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है। गुरु की शरण आए बिना ये बंधन टूटते नहीं। गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य (मोह के बंधनों से) निजात पाने का राह तलाश लेता है। जो लोग निरे दुनिया के काम-धंधे ही करते हैं, और गुरु के शब्द के साथ सांझ नहीं डालते, वे बार-बार पैदा होते मरते रहते हैं।2।

हउ मेरा जगु पलचि रहिआ भाई कोइ न किस ही केरा ॥ गुरमुखि महलु पाइनि गुण गावनि निज घरि होइ बसेरा ॥ ऐथै बूझै सु आपु पछाणै हरि प्रभु है तिसु केरा ॥३॥

पद्अर्थ: हउ = मैं (बड़ा हूँ)। मेरा = (ये धन पदार्थ) मेरा है। पलचि रहिआ = उलझा पड़ा है। केरा = का। महलु = परमात्मा की हजूरी। पाइनि = पा लेते हैं। निज घरि = अपने घर में। ऐथै = इस जीवन में। आपु = अपने आप को, अपने आत्मिक जीवन को।3।

अर्थ: हे भाई! ‘मैं बड़ा हूँ’, ‘ये धन आदि मेरा है’ - इसमें ही जगत उलझा हुआ है (वैसे) कोई भी किसी का (सदा साथी) नहीं बन सकता। गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य परमात्मा की महिमा करते हैं, और परमात्मा की हजूरी प्राप्त किए रहते हैं, उनका (आत्मिक) निवास प्रभु चरणों में हुआ रहता है। जो मनुष्य इस जीवन में ही (इस भेत को) समझ लेता है, वह अपने आत्मिक जीवन को पड़तालता रहता है (आत्म चिंतन करता है), परमात्मा उस मनुष्य का सहायक बना रहता है।3।

सतिगुरू सदा दइआलु है भाई विणु भागा किआ पाईऐ ॥ एक नदरि करि वेखै सभ ऊपरि जेहा भाउ तेहा फलु पाईऐ ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि विचहु आपु गवाईऐ ॥४॥६॥

पद्अर्थ: दइआलु = दया का घर। भागा = अच्छी किस्मत। करि = कर के, साथ। भाउ = भावना, नीयत। आपु = स्वै भाव।4।

अर्थ: हे भाई! गुरु हर समय ही दयावान रहता है (माया-ग्रसित मनुष्य गुरु की शरण नहीं आता) किस्मत के बिना (गुरु से) क्या मिले? गुरु सबको एक प्यार की निगाह से देखता है। (पर हमारी जीवों की) जैसी भावना होती है वैसा ही फल (हमें गुरु से) मिल जाता है। हे नानक! (अगर गुरु की शरण पड़ के अपने) अंदर से स्वै भाव दूर कर लें तो परमात्मा का नाम मन में आ बसता है।4।6।

सोरठि महला ३ चौतुके ॥ सची भगति सतिगुर ते होवै सची हिरदै बाणी ॥ सतिगुरु सेवे सदा सुखु पाए हउमै सबदि समाणी ॥ बिनु गुर साचे भगति न होवी होर भूली फिरै इआणी ॥ मनमुखि फिरहि सदा दुखु पावहि डूबि मुए विणु पाणी ॥१॥

पद्अर्थ: चौतुके = वह शब्द जिनके हरेक ‘बंद’ में चार-चार तुकें होती हैं। सची भगति = सदा स्थिर प्रभु की ही भक्ति। ते = से, के द्वारा। सची बाणी = सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी। सबदि = शब्द में। होर इआणी = वह अंजान दुनिया जो गुरु की शरण नहीं पड़ती। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले।1।

अर्थ: हे भाई! गुरु के माध्यम से सदा स्थिर प्रभु की भक्ति हो सकती है, सदा स्थिर प्रभु की महिमा की वाणी हृदय में टिक जाती है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह सदा सुख पाता है, उसका अहंकार गुरु के शब्द में ही समाप्त हो जाता है। सच्चे गुरु के बिना भक्ति नहीं हो सकती, जो अंजान दुनिया गुरु के दर पर नहीं आती, वह गलत राह पर पड़ी रहती है। अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य भटकते फिरते हैं, सदा दुख पाते हैं; वह जैसे, पानी के बिना ही डूब मरते हैं।1।

भाई रे सदा रहहु सरणाई ॥ आपणी नदरि करे पति राखै हरि नामो दे वडिआई ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रहहु = टिका रह। पति = इज्जत। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! सदा गुरु की शरण टिका रह। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ा रहता है उस पर गुरु) अपनी मेहर की निगाह करता है; उसकी इज्जत रखता है, उसे प्रभु का नाम बख्शता है (जो एक बहुत बड़ा) सम्मान है। रहाउ।

पूरे गुर ते आपु पछाता सबदि सचै वीचारा ॥ हिरदै जगजीवनु सद वसिआ तजि कामु क्रोधु अहंकारा ॥ सदा हजूरि रविआ सभ ठाई हिरदै नामु अपारा ॥ जुगि जुगि बाणी सबदि पछाणी नाउ मीठा मनहि पिआरा ॥२॥

पद्अर्थ: आपु = अपना आप, अपना आत्मिक जीवन। हिरदै = हृदय में। सद = सदा। तजि = त्याग के। रविआ = व्यापक। जुगि जुगि = हरेक युग में। सबदि = शब्द से। मनहि = मन में।2।

अर्थ: जिस मनुष्य ने पूरे गुरु के द्वारा अपने आत्मिक जीवन को पड़तालना आरम्भ कर दिया, उसने सदा-स्थिर प्रभु की महिमा के शब्द में जुड़ के प्रभु के गुणों को विचारना शुरू कर दिया। काम-क्रोध-अहंकार (आदि विकार) त्यागने से उसके हृदय में जगत का जीवन प्रभु सदा के लिए आ बसा। बेअंत प्रभु का नाम उसके दिल में आ बसने के कारण प्रभु उसको सदा अंग-संग बसता दिखाई दे गया, हर जगह मौजूद दिख गया। गुरु के शब्द के माध्यम से उसे ये पहचान आ गई कि (परमात्मा के मिलाप का साधन) हरेक युग में गुरु की वाणी है, परमात्मा का नाम उसको अपने मन में प्यारा लगने लग पड़ा।2।

सतिगुरु सेवि जिनि नामु पछाता सफल जनमु जगि आइआ ॥ हरि रसु चाखि सदा मनु त्रिपतिआ गुण गावै गुणी अघाइआ ॥ कमलु प्रगासि सदा रंगि राता अनहद सबदु वजाइआ ॥ तनु मनु निरमलु निरमल बाणी सचे सचि समाइआ ॥३॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस ने। पछाता = सांझ डाली। जगि = जगत में। गुणी = गुणों से। अघाइआ = माया की ओर अघा गया। कमलु = हृदय कमल फूल सा। प्रगासि = खिल के। अनहद = एक रस।3।

अर्थ: जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के नाम सें सांझ डाल ली, जगत में आ के उसकी जिंदगी कामयाब हो गई। परमात्मा के नाम का स्वाद चख के उसका मन सदा के लिए तृप्त हो जाता है, वह परमात्मा के गुण गाता रहता है, और गुणों के माध्यम से माया की ओर से तृप्त हो जाता है। उसका हृदय-कमल खिल के सदा प्रभु के प्रेम रंग रंगा रहता है, वह (अपने दिल में) एक-रस गुरु शब्द (का बाजा) बजाता रहता है। पवित्र वाणी की इनायत से उसका मन पवित्र हो जाता है, उसका शरीर पवित्र हो जाता है, वह सदा स्थिर प्रभु में लीन रहता है।3।

राम नाम की गति कोइ न बूझै गुरमति रिदै समाई ॥ गुरमुखि होवै सु मगु पछाणै हरि रसि रसन रसाई ॥ जपु तपु संजमु सभु गुर ते होवै हिरदै नामु वसाई ॥ नानक नामु समालहि से जन सोहनि दरि साचै पति पाई ॥४॥७॥

पद्अर्थ: गति = उच्च आत्मिक अवस्था। रिदै = हृदय में। समाई = टिक जाता है। मगु = रास्ता। रसि = रस से। रसन = जीभ। रसाई = रस जाती है। गुर ते = गुरु से। दरि = दर से।4।

अर्थ: कोई मनुष्य नहीं समझ सकता कि परमात्मा के नाम से कितनी ऊँची आत्मिक अवस्था बन जाती है (वैसे) गुरु की मति लेने से नाम (मनुष्य के) हृदय में आ बसता है। जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो जाता है वह (परमात्मा के मिलाप का) रास्ता पहचान लेता है, उसकी जीभ नाम-रस के साथ रस जाती है। गुरु के माध्यम से परमात्मा का नाम दिल में आ बसता है - यही है जप, यही है तप और यही है संजम। हे नानक! जो मनुष्य प्रभु का नाम हृदय में बसाए रखते हैं, वे सुंदर जीवन वाले बन जाते हैं, सदा स्थिर प्रभु के दर पर उनको सम्मान मिलता है।4।7।

सोरठि मः ३ दुतुके ॥ सतिगुर मिलिऐ उलटी भई भाई जीवत मरै ता बूझ पाइ ॥ सो गुरू सो सिखु है भाई जिसु जोती जोति मिलाइ ॥१॥

पद्अर्थ: सतिगुर मिलिऐ = अगर गुरु मिल जाए। उलटी भई = (विकारों से तवज्जो) पलट जाती है, हट जाती है। जीवत मरै = जीवित ही मर जाता है, दुनिया की मेहनत-कमाई करता हुआ भी विकारों से अछोह हो जाता है। बूझ = आत्मिक जीवन की समझ। सो गुरु सो सिखु = वह मनुष्य गुरु का (असल) सिख है। जिसु जोति = जिसकी आत्मा को। जोती मिलाइ = (गुरु) परमात्मा में मिला देता है।1।

अर्थ: हे भाई! अगर गुरु मिल जाए, तो मनुष्य आत्मिक जीवन की समझ हासिल कर लेता है, मनुष्य की तवज्जो विकारों से हट जाती है, दुनिया के कार्य-व्यवहार करता हुआ भी मनुष्य विकारों से अछूता हो जाता है। हे भाई! जिस मनुष्य की आत्मा को गुरु परमात्मा में मिला देता है, वह (असल) में सिख बन जाता है।1।

मन रे हरि हरि सेती लिव लाइ ॥ मन हरि जपि मीठा लागै भाई गुरमुखि पाए हरि थाइ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सेती = साथ। लिव = लगन। मन रे = हे मन! जपि = जप जप के। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। थाइ = जगह में, हजूरी में। हरि थाइ = प्रभु की हजूरी में। रहाउ।

अर्थ: हे मन! सदा परमात्मा के साथ तवज्जो जोड़े रख। हे मन! बार बार जप-जप के परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य प्रभु के दरबार में स्थान पा लेते हैं। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh