श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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बिनु गुर प्रीति न ऊपजै भाई मनमुखि दूजै भाइ ॥ तुह कुटहि मनमुख करम करहि भाई पलै किछू न पाइ ॥२॥

पद्अर्थ: भाई = हे भाई! मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दूजै भाइ = (प्रभु के बिना) किसी और प्यार में। भाइ = प्यार में। तुह = दानों के ऊपर के छिलके, फक। कुटहि = कूटते हैं।2।

अर्थ: हे भाई! गुरु के बिना (मनुष्य का प्रभु में) प्यार पैदा नहीं होता, अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (प्रभु को छोड़ के) और ही प्यार में टिके रहते हैं। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य (जो भी धार्मिक) काम करते हैं वह (जैसे) फक ही कूटते हैं, (उनको, उन कर्मों में से) कुछ हासिल नहीं होता (जैसे फोक में से कुछ नहीं निकलता)।2।

गुर मिलिऐ नामु मनि रविआ भाई साची प्रीति पिआरि ॥ सदा हरि के गुण रवै भाई गुर कै हेति अपारि ॥३॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। रविआ = हर वक्त बसा रहता है। पिआरि = प्यार में। रवै = याद करता है। हेति = हित से। अपारि हेति = अटूट प्यार से।3।

अर्थ: हे भाई! यदि गुरु मिल जाए, तो परमात्मा का नाम उसके मन में सदा बसा रहता है, मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की प्रीति में प्यार में मगन रहता है। हे भाई! गुरु के बख्शे अटूट प्यार की इनायत से वह सदा परमात्मा के गुण गाता रहता है।3।

आइआ सो परवाणु है भाई जि गुर सेवा चितु लाइ ॥ नानक नामु हरि पाईऐ भाई गुर सबदी मेलाइ ॥४॥८॥

पद्अर्थ: से = वह मनुष्य। परवाणु = स्वीकार। जि = जो। पाईऐ = पा लिया जाता है।4।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की बताई हुई सेवा में चिक्त जोड़ता है उसका जगत में आया हुआ सफल हो जाता है। हे नानक! गुरु के माध्यम से परमात्मा का नाम प्राप्त हो जाता है, गुरु के शब्द की इनायत से प्रभु से मिलाप हो जाता है।4।8।

सोरठि महला ३ घरु १ ॥ तिही गुणी त्रिभवणु विआपिआ भाई गुरमुखि बूझ बुझाइ ॥ राम नामि लगि छूटीऐ भाई पूछहु गिआनीआ जाइ ॥१॥

पद्अर्थ: तिही गुणी = (माया के) तीनों गुणों में (रजो, सतो व तमो गुण)। त्रिभवणु = तीन भवनों वाला जगत, सारा संसार। विआपिआ = फसा हुआ है। बूझ = (आत्मिक जीवन की) समझ। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। नामि = नाम में। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाला मनुष्य। जाइ = जा के।1।

अर्थ: हे भाई! सारा जगत माया के तीन गुणों में ही फसा हुआ है। जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है (गुरु उसे) आत्मिक जीवन की समझ देता है। हे भाई! परमात्मा के नाम मेुं लीन हो के (माया के तीन गुणों की पकड़ से) बचना है, (अपनी तसल्ली के लिए) जा के पूछ लो उनको जिनको आत्मिक जीवन की समझ आ गई है।1।

मन रे त्रै गुण छोडि चउथै चितु लाइ ॥ हरि जीउ तेरै मनि वसै भाई सदा हरि के गुण गाइ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: छोडि = छोड़ के। चउथै = उस अवस्था में जहाँ माया के तीनों गुण प्रभाव नहीं डाल सकते। मनि = मन में। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! (माया के) तीन गुणों (के प्रभाव) को छोड़ के उस अवस्था में टिक जहाँ इन तीनों का जोर नहीं पड़ता। हे भाई! परमात्मा तेरे मन में (ही) बसता है, सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाया कर। रहाउ।

नामै ते सभि ऊपजे भाई नाइ विसरिऐ मरि जाइ ॥ अगिआनी जगतु अंधु है भाई सूते गए मुहाइ ॥२॥

पद्अर्थ: नामै = नाम से ही। सभि = सारे। ऊपजे = आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं। नाइ विसरिऐ = अगर नाम बिसर जाए। मरि जाइ = (आत्मिक मौत) मर जाता है। अगिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ से खाली। अंधु = माया के मोह में अंधा। मुहाइ = (आत्मिक जीवन की संपत्ति) लुटा के।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम में जुड़ के ही सारे जीव आत्मिक जीवन जी सकते हैं। अगर नाम बिसर जाए, तो मनुष्य आत्मिक मौत मर जाता है। आत्मिक जीवन की समझ से वंचित जगत माया के मोह में अंधा हुआ रहता है। माया के मोह में सोए हुए मनुष्य आत्मिक जीवन की राशि पूंजी लुटा के जाते हैं।2।

गुरमुखि जागे से उबरे भाई भवजलु पारि उतारि ॥ जग महि लाहा हरि नामु है भाई हिरदै रखिआ उर धारि ॥३॥

पद्अर्थ: भवजलु = संसार समुंदर। उतारि = उतारे, पार लंघाता है। उर = हृदय। धारि = टिका के।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (माया के मोह की नींद में से) जाग जाते हैं वे (संसार समुंदर में) डूबने से बच जाते हैं, (गुरु उनको) संसार समुंदर में से पार लंघा देता है। हे भाई! गुरु की शरण पड़ने वाला मनुष्य अपने हृदय में परमात्मा का नाम संभाल के रखता है, ये हरि-नाम ही जगत में (असली) लाभ है।3।

गुर सरणाई उबरे भाई राम नामि लिव लाइ ॥ नानक नाउ बेड़ा नाउ तुलहड़ा भाई जितु लगि पारि जन पाइ ॥४॥९॥

पद्अर्थ: उथरे = (संसार समुंदर में डूबने से) बच जाते हैं। लाइ = लगा के। बेड़ा = जहाज। तुलहड़ा = सुंदर तुलहा (तुलहा = लकड़ी और घास आदि से बाँध के दरिया पार करने के लिए बनाया हुआ जुगाड़)। जितु = जिस में। जितु लगि = जिस में चढ़ के।4।

अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़ के परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के मनुष्य (संसार समुंदर में डूबने से) बच जाते हैं। हे नानक! (कह:) हे भाई! परमात्मा का नाम ही जहाज है, हरि नाम ही तुलहा है जिस पर चढ़ के मनुष्य (संसार समुंदर से) पार लांघ जाता है।4।9।

सोरठि महला ३ घरु १ ॥ सतिगुरु सुख सागरु जग अंतरि होर थै सुखु नाही ॥ हउमै जगतु दुखि रोगि विआपिआ मरि जनमै रोवै धाही ॥१॥

पद्अर्थ: सुखु सागरु = सुखों का समुंदर। अंतरि = में। होर थै = किसी और जगह में। दुखि = दुख में। रोगि = रोग में। विआपिआ = ग्रसा हुआ। मरि = मर के। धाही = धाहें मार मार के।1।

अर्थ: हे भाई! जगत में गुरु (ही) सुख का सागर है, (गुरु के बिना) किसी और को सुख नहीं मिलता। जगत अपने अहंकार के कारण (गुरु से टूट के) दुख में रोग में ग्रसित रहता है, बार बार पैदा होता है मरता है, धाड़ें मार मार के रोता है (दुखी होता है)।1।

प्राणी सतिगुरु सेवि सुखु पाइ ॥ सतिगुरु सेवहि ता सुखु पावहि नाहि त जाहिगा जनमु गवाइ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्राणी = हे बंदे! सेवि = सेवा कर। गवाइ = गवा के। रहाउ।

अर्थ: हे बँदे! गुरु की शरण पड़, और आत्मिक आनंद ले। अगर तू गुरु की बताई हुई सेवा करेगा, तो सुख पाएगा। नहीं तो अपना जीवन व्यर्थ गुजार के (यहाँ से) चला जाएगा। रहाउ।

त्रै गुण धातु बहु करम कमावहि हरि रस सादु न आइआ ॥ संधिआ तरपणु करहि गाइत्री बिनु बूझे दुखु पाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: धातु = माया। करम = (निहित धार्मिक) कर्म। कमावहि = करते हैं। सादु = स्वाद। संधिआ = सवेरे दोपहर और शाम की पूजा। तरपणु = पित्रों और देवताओं को जल भेट करना।2।

अर्थ: हे भाई! गुरु से टूटे हुए मनुष्य माया के तीनों गुणों के प्रभाव में (निहित धार्मिक) कर्म करते हैं, पर उन्हें परमात्मा के नाम का स्वाद नहीं आता। तीनों वक्त संध्या पाठ करते हैं, पित्रों-देवताओं को जल अर्पण करते हैं, गायत्री मंत्र का पाठ करते हैं, पर आत्मिक जीवन की समझ के बिना उनको दुख ही मिलता है।2।

सतिगुरु सेवे सो वडभागी जिस नो आपि मिलाए ॥ हरि रसु पी जन सदा त्रिपतासे विचहु आपु गवाए ॥३॥

पद्अर्थ: जिस नो = जिस को। पी = पी के। त्रिपतासे = तृप्त रहते हैं। आपु = स्वै भाव। गवाए = गवा के।3।

नोट: ‘जिस नो’ में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हट गई है।

अर्थ: हे भाई! वह मनुष्य भाग्यशाली है जो गुरु की बताई हुई सेवा करता है (पर गुरु उसी को मिलता है) जिसे परमात्मा स्वयं मिलाए। (गुरु की शरण पड़ने वाले) मनुष्य अपने अंदर से स्वै-भाव दूर करके (गुरु से) परमात्मा के नाम का रस पी के सदा तृप्त रहते हैं।3।

इहु जगु अंधा सभु अंधु कमावै बिनु गुर मगु न पाए ॥ नानक सतिगुरु मिलै त अखी वेखै घरै अंदरि सचु पाए ॥४॥१०॥

पद्अर्थ: अंधु = अंधों वाला काम। मगु = रास्ता। अखी = (अपनी) आँखों से। घरै अंदरि = घर में ही। घर अंदरि = घर में। सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। पाए = ढूँढ लेता है।4।

अर्थ: हे भाई! ये जगत माया के मोह में अंधा हुआ पड़ा है, अंधों वाले ही सदा काम करता है। गुरु की शरण पड़े बिना (जीवन का सही) रास्ता नहीं मिल सकता। हे नानक! अगर इसे गुरु मिल जाए, तो (परमात्मा को) आँखों से देख लेता है, अपने हृदय-घर में सदा कायम रहने वाले परमात्मा को पा लेता है।4।10।

सोरठि महला ३ ॥ बिनु सतिगुर सेवे बहुता दुखु लागा जुग चारे भरमाई ॥ हम दीन तुम जुगु जुगु दाते सबदे देहि बुझाई ॥१॥

पद्अर्थ: जुग चारे = चारों युगों में। भरमाई = भटकता है। दीन = कंगाल, भिखारी। सबदे = गुरु के शब्द द्वारा। देहि = तू देता है। बुझाई = समझ।1।

अर्थ: हे भाई! गुरु की शरण पड़े बिना मनुष्य को बहुत सारे दुख चिपके रहते हैं, मनुष्य सदा ही भटकता फिरता है। हे प्रभु! हम (जीव, तेरे दर के) भिखारी हैं, तू सदा ही (हमें) दातें देने वाला है, (मेहर कर, गुरु के) शब्द में जोड़ के आत्मिक जीवन की समझ दे।1।

हरि जीउ क्रिपा करहु तुम पिआरे ॥ सतिगुरु दाता मेलि मिलावहु हरि नामु देवहु आधारे ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: आधारे = आसरा। रहाउ।

अर्थ: हे प्यारे प्रभु जी! (मेरे पर) मेहर कर, तेरे नाम की दाति देने वाला गुरु मुझे मिला, और (मेरी जिंदगी का) सहारा अपना नाम मुझे दे। रहाउ।

मनसा मारि दुबिधा सहजि समाणी पाइआ नामु अपारा ॥ हरि रसु चाखि मनु निरमलु होआ किलबिख काटणहारा ॥२॥

पद्अर्थ: मनसा = मनीषा, वासना। मारि = मार के। दुबिधा = दो किस्मा पन, डाँवा डोल हालत। सहजि = आत्मिक अडोलता में। किलबिख = पाप।2।

अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जिस मनुष्य ने) बेअंत प्रभु का नाम हासिल कर लिया (नाम की इनायत से) वासना खत्म करके उसकी मानसिक डाँवा डोल हालत आत्मिक अडोलता में लीन हो जाती है। हे भाई! परमात्मा का नाम सारे पाप काटने के समर्थ है (जो मनुष्य नाम प्राप्त कर लेता है) हरि-नाम का स्वाद चख के उसका मन पवित्र हो जाता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh