श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मेरे मन मै हरि बिनु अवरु न कोइ ॥ सतिगुर विचि नामु निधानु है पिआरा करि दइआ अम्रितु मुखि चोइ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: निधान = खजाना। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला जल। मुखि = मुंह में। चोइ = टपकाता है, चोअता है। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! मुझे परमात्मा के बिना (कहीं भी) कोई और नहीं दिखता। उस परमात्मा का नाम-खजाना गुरु में मौजूद है। गुरु मेहर करके आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल (सिख के) मुँह में टपकाता है। रहाउ।

आपे जल थलि सभतु है पिआरा प्रभु आपे करे सु होइ ॥ सभना रिजकु समाहदा पिआरा दूजा अवरु न कोइ ॥ आपे खेल खेलाइदा पिआरा आपे करे सु होइ ॥२॥

पद्अर्थ: जल थलि = जल में थल में। सभतु = हर जगह। समाहदा = पहुँचाता है।2।

अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही पानी में धरती में हर जगह मौजूद है। प्रभु खुद ही जो कुछ करता है वह (जगत में) घटित होता है। प्रभु खुद ही सब जीवों को रिजक पहुँचाता है (रिजक देने वाला) उसके बिना और कोई नहीं है। प्रभु खुद ही (जगत के सारे) खेल खेल रहा है, वह स्वयं जो कुछ करता है वही होता है।2।

आपे ही आपि निरमला पिआरा आपे निरमल सोइ ॥ आपे कीमति पाइदा पिआरा आपे करे सु होइ ॥ आपे अलखु न लखीऐ पिआरा आपि लखावै सोइ ॥३॥

अर्थ: हे भाई! पवित्र प्रभु (हर जगह) खुद ही खुद है, वह खुद ही पवित्र शोभा का मालिक है। प्रभु खुद ही अपना मूल्य पा सकने वाला है, जो कुछ खुद ही करता है वही होता है। प्रभु का स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, वह अदृश्य है। अपने स्वरूप की समझ वह आप ही देने वाला है।3।

आपे गहिर ग्मभीरु है पिआरा तिसु जेवडु अवरु न कोइ ॥ सभि घट आपे भोगवै पिआरा विचि नारी पुरख सभु सोइ ॥ नानक गुपतु वरतदा पिआरा गुरमुखि परगटु होइ ॥४॥२॥

पद्अर्थ: गंभीरु = गहरे जिगरे वाला। तिसु जेवडु = उस जितना बड़ा। सभि = सारे। गुरमुखि = गुरु से।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभु ही (जैसे, एक) बेअंत गहरा (समुंदर) है। उसके बराबर का और कोई नहीं है। सारे जीवों में व्यापक हो के आप ही सारे भोग भोगता है, हरेक स्त्री-पुरुष में हर जगह वहआप ही आप है। हे नानक! वह प्रभु सारे जगत में छुपा हुआ मौजूद है। गुरु की शरण पड़ने से उसकी सर्व-व्यापकता का प्रकाश होता है।4।2।

नोट: अंक ४ को ‘चउथा’ पढ़ना है। ये हिदायत उदाहरण स्वरूप है। शब्द ‘महला’ के साथ अंक १,२,३,४,५ आदि को हर जगह पहला, दूजा, तीजा, चौथा, पंजवां आदि ही पढ़ना है। इसका भाव है: गुरु नानक पहला शरीर, दूजा शरीर, तीजा शरीर, चउथा शरीर, पंजवां शरीर आदि।

सोरठि महला ४ ॥ आपे ही सभु आपि है पिआरा आपे थापि उथापै ॥ आपे वेखि विगसदा पिआरा करि चोज वेखै प्रभु आपै ॥ आपे वणि तिणि सभतु है पिआरा आपे गुरमुखि जापै ॥१॥

पद्अर्थ: सभु = हर जगह। थापि = पैदा करके। उथापै = नाश करता है। वेखि = देख के। विगसदा = खुश होता है। करि = कर के। चोज = तमाशे। आपै = अपने आप को। वणि = बन में। तिणि = तृण में। सभतु = हर जगह। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। जापै = दिखता है।1।

अर्थ: हे भाई! हर जगह प्रभु खुद ही खुद है, खुद ही (जगत को) पैदा करके खुद ही नाश कर देता है। प्रभु खुद ही (जगत-रचना को) देख के खुश होता है, करिश्मे-तमाशे रच के खुद ही देखता है, अपने आप को ही देखता है। प्रभु आप ही (हरेक) बन में (हरेक) तीले में हर जगह मौजूद है। गुरु की शरण पड़ा वह प्रभु दिखाई दे जाता है।1।

जपि मन हरि हरि नाम रसि ध्रापै ॥ अम्रित नामु महा रसु मीठा गुर सबदी चखि जापै ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रसि = रस से। ध्रापै = तृप्त हो जाता है। चखि = चख के। जापै = मालूम होता है। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा (के नाम) को जपा कर, (जो मनुष्य जपता है वह) नाम के रस से (माया की ओर से) तृप्त हो जाता है। हे मन! आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-जल बहुत स्वादिष्ट है, बहुत मीठा है। गुरु के शब्द के द्वारा चख के ही पता चलता है। रहाउ।

आपे तीरथु तुलहड़ा पिआरा आपि तरै प्रभु आपै ॥ आपे जालु वताइदा पिआरा सभु जगु मछुली हरि आपै ॥ आपि अभुलु न भुलई पिआरा अवरु न दूजा जापै ॥२॥

पद्अर्थ: आपे = खुद ही। तीरथु = दरिया का किनारा। तुलहड़ा = दरिया पार करने के लिए लकड़ी का बनाया हुआ गठा। वताइदा = बिखेरता है।2।

अर्थ: हे भाई! प्रभु आप ही दरिया का किनारा है, आप ही (दरिया से पार लांघने के लिए) तुलहा है, आप ही (दरिया से) पार लांघता है, अपने आप को ही पार लंघाता है। प्रभु खुद ही (माया का) जाल बिछाता है (उस जाल में फसने वाली) जगत रूपी मछली भी अपने आप को ही बनाता है। (फिर भी वह) आप भूलने वाला नहीं है, वह कभी (भी माया-जाल में फसने वाली) भूल नहीं करता। उसके बराबर का और कोई नहीं दिखता।2।

आपे सिंङी नादु है पिआरा धुनि आपि वजाए आपै ॥ आपे जोगी पुरखु है पिआरा आपे ही तपु तापै ॥ आपे सतिगुरु आपि है चेला उपदेसु करै प्रभु आपै ॥३॥

पद्अर्थ: नादु = (सिंङी की) आवाज। धुनि = सुर। तापै = तपता है।3।

अर्थ: हे भाई! प्रभु स्वयं ही (जोगी के बजाने वाली) सिंगी है, स्वयं ही (उस बजती सिंगी की) आवाज है, स्वयं ही (सिंगी के) सुर बजाता है। वह सर्व-व्यापक प्रभु आप ही जोगी है, आप ही (धूणियों आदि से) तप करता है। प्रभु आप ही गुरु है, आप ही सिख है, आप ही अपने आप को उपदेश करता है।3।

आपे नाउ जपाइदा पिआरा आपे ही जपु जापै ॥ आपे अम्रितु आपि है पिआरा आपे ही रसु आपै ॥ आपे आपि सलाहदा पिआरा जन नानक हरि रसि ध्रापै ॥४॥३॥

पद्अर्थ: अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। रसु = स्वाद। रसि = रस से। ध्रापै = तृप्त होता है।4।

अर्थ: हे भाई! प्रभु आप ही (जीवों से अपना) नाम जपाता है (जीवों में व्याप्त हो के) आप ही अपना नाम जपता है। आप ही आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल है, आप ही उस नाम-रस को पीता है, अपने आप को पीता है। हे दास नानक! प्रभु आप ही अपनी महिमा करता है, आप ही अपने नाम-रस से तृप्त होता है।4।3।

सोरठि महला ४ ॥ आपे कंडा आपि तराजी प्रभि आपे तोलि तोलाइआ ॥ आपे साहु आपे वणजारा आपे वणजु कराइआ ॥ आपे धरती साजीअनु पिआरै पिछै टंकु चड़ाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: कंडा = तराजू की ऊपरी बीच की सूई। तराजी = तराजू। प्रभि = प्रभु ने। तोलि = तोल से, बाँट से। साहु = शाह, शाहूकार। साजीअनु = उस (प्रभु) ने सजाई है। पिआरै = प्यारे (प्रभु) ने। पिदे = तराजू के पीछे वाले छाबे में। टंकु = चार मासे का बाँट।1।

अर्थ: हे भाई! प्रभु ने खुद ही धरती पैदा की हुई है, (अपनी मर्यादा रूपी तराजू के) पीछे के छाबे में चार मासे बाँट रख के (प्रभु ने खुद ही इस सृष्टि को मर्यादा में रखा हुआ है। ये काम उस प्रभु के लिए बहुत साधारण और आसान सा है)। वह तराजू भी प्रभु खुद ही है, उस तराजू की सुई भी प्रभु खुद ही है, प्रभु ने खुद ही बाँट से (इस सृष्टि को) तोला हुआ है (अपने हुक्म में रखा हुआ है)। प्रभु खुद ही (इस धरती पर वणज करने वाला) शहूकार है, खुद ही (जीव-रूप हो के) वणज करने वाला है, खुद ही वणज कर रहा है।1।

मेरे मन हरि हरि धिआइ सुखु पाइआ ॥ हरि हरि नामु निधानु है पिआरा गुरि पूरै मीठा लाइआ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! निधान = खजाना। गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! सदा परमात्मा का स्मरण कर, (जिस किसी ने स्मरण किया है, उसने) सुख पाया है। हे भाई! परमात्मा का नाम (सारे) सुखों का खजाना है (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ा है) पूरे गुरु ने उसे परमात्मा का नाम मीठा अनुभव करा दिया है। रहाउ।

आपे धरती आपि जलु पिआरा आपे करे कराइआ ॥ आपे हुकमि वरतदा पिआरा जलु माटी बंधि रखाइआ ॥ आपे ही भउ पाइदा पिआरा बंनि बकरी सीहु हढाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: आपे = आप ही। हुकमि = हुक्म के द्वारा। वरतदा = मौजूद है। बंधि = बाँध के। भउ = डर। बंनि = बाँध के। सीहु = शेर (को)। हढाइआ = घुमा रहा है।2।

अर्थ: हे भाई! प्रभु प्यारा खुद ही धरती पैदा करने वाला है, आप ही पानी पैदा करने वाला है, आप ही सब कुछ करता है आप ही (जीवों से सब कुछ) करवाता है। आप ही अपने हुक्म अनुसार हर जगह कार्य चला रहा है, पानी को मिट्टी से (उसने अपने हुक्म में ही) बाँध रखा है (पानी मिट्टी को बहा नहीं सकता, पानी में उसने) खुद ही अपना डर रखा है, (जैसे) बकरी शेर को बाँध के घुमा रही है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh