श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 606 आपे कासट आपि हरि पिआरा विचि कासट अगनि रखाइआ ॥ आपे ही आपि वरतदा पिआरा भै अगनि न सकै जलाइआ ॥ आपे मारि जीवाइदा पिआरा साह लैदे सभि लवाइआ ॥३॥ पद्अर्थ: कासठ = काष्ठ, लकड़ी। भै = डर के कारण। अगनि = आग। मारि = मार के। सभि = सारे।3। अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही लकड़ी (पैदा करने वाला) है, (आप ही आग बनाने वाला है) लकड़ी में उसने खुद ही आग टिका रखी है। प्रभु प्यारा खुद ही अपना हुक्म वरता रहा है (उसके हुक्म में) आग (लकड़ी को) जला नहीं सकती। प्रभु खुद ही मार के जिंदा करने वाला है। सारे जीव उसके परोए हुए ही सांस ले रहे हैं।3। आपे ताणु दीबाणु है पिआरा आपे कारै लाइआ ॥ जिउ आपि चलाए तिउ चलीऐ पिआरे जिउ हरि प्रभ मेरे भाइआ ॥ आपे जंती जंतु है पिआरा जन नानक वजहि वजाइआ ॥४॥४॥ पद्अर्थ: ताणु = ताकत। दीबाणु = दरबार लगाने वाला, हाकिम। कारै = कार में। चलीऐ = चल सकते हैं। पिआरे = हे प्यारे (भाई!)। प्रभ भाइआ = प्रभु को अच्छा लगता है। जंती = बाजा बजाने वाला। जंतु = जंत्र, बाजा। वजहि = बजते हैं।4। अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही ताकत है, खुद ही (शक्ति इस्तेमाल करने वाला) हाकिम है, (सारे जगत को उसने) अपने आप ही काम में लगाया हुआ है। हे प्यारे सज्जन! जैसे प्रभु खुद जीवों को चलाता है, जैसे मेरे हरि प्रभु को भाता है, वैसे ही चल सकते हैं। हे दास नानक! प्रभु खुद ही (जीव-) बाजा (बनाने वाला) है, खुद बाजा बजाने वाला है, सारे जीव-बाजे उसके बजाए बज रहे हैं।4।4। सोरठि महला ४ ॥ आपे स्रिसटि उपाइदा पिआरा करि सूरजु चंदु चानाणु ॥ आपि निताणिआ ताणु है पिआरा आपि निमाणिआ माणु ॥ आपि दइआ करि रखदा पिआरा आपे सुघड़ु सुजाणु ॥१॥ पद्अर्थ: करि = कर के, बना के। चानाणु = प्रकाश। ताणु = सहारा, आसरा। सुघड़ु = निपुण आत्मिक घाड़त वाला। सुजाणु = सयाना, सबके दिल की जानने वाला।1। अर्थ: हे भाई! वह प्यारा प्रभु खुद ही सृष्टि पैदा करता है, और (सुष्टि को) रौशन करने के लिए सूर्य चंद्रमा बनाता है। प्रभु खुद ही निआसरों का आसरा है, जिन्हें कोई आदर-मान नहीं देता उनको आदर-मान देने वाला है। वह प्यारा प्रभु सुंदर आत्मिक घाड़त वाला है, सबके दिल की जानने वाला है, वह मेहर करके आप सबकी रक्षा करता है।1। मेरे मन जपि राम नामु नीसाणु ॥ सतसंगति मिलि धिआइ तू हरि हरि बहुड़ि न आवण जाणु ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नीसाणु = जीवन सफर में राहदारी। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (नाम ही जीवन-यात्रा के लिए) राहदारी है। हे भाई! साधु-संगत में मिल के तू परमात्मा का ध्यान धरा कर, (ध्यान की इनायत से) दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं रहेगा। रहाउ। आपे ही गुण वरतदा पिआरा आपे ही परवाणु ॥ आपे बखस कराइदा पिआरा आपे सचु नीसाणु ॥ आपे हुकमि वरतदा पिआरा आपे ही फुरमाणु ॥२॥ पद्अर्थ: वरतदा = बाँटता। परवाणु = स्वीकार (करता है)। बखस = बख्शिश। सचु = सदा कायम रहने वाला। नीसाणु = निशान, झण्डा, प्रकाश स्तम्भ।, हुकमि = हुक्म अनुसार। फुरमाणु = हुक्म।2। अर्थ: हे भाई! वह प्यारा प्रभु खुद ही (जीवों को अपने) गुणों की दाति देता है, खुद ही जीवों को अपनी हजूरी में स्वीकार करता है। प्रभु खुद ही सब पर बख्शिश करता है, वह खुद ही (जीवों के लिए) सदा कायम रहने वाला प्रकाश-स्तम्भ है। वह प्यारा प्रभु खुद ही (जीवों को) हुक्म में चलाता है, खुद ही हर जगह हुक्म चलाता है।2। आपे भगति भंडार है पिआरा आपे देवै दाणु ॥ आपे सेव कराइदा पिआरा आपि दिवावै माणु ॥ आपे ताड़ी लाइदा पिआरा आपे गुणी निधानु ॥३॥ पद्अर्थ: भंडार = खजाने। दाणु = दान, बख्शीश। माणु = आदर। ताड़ी = समाधि। गुणी निधानु = गुणों का खजाना।3। अर्थ: हे भाई! वह प्यारा प्रभु (अपनी) भक्ति के खजानों वाला है, खुद ही (जीवों को अपनी भक्ति की) दाति देता है। प्रभु खुद ही (जीवों से) सेवा-भक्ति करवाता है, और खुद ही (सेवा-भक्ति करने वालों को जगत से) आदर दिलवाता है। वह प्रभु खुद ही गुणों का खजाना है, और खुद ही (अपने गुणों में) समाधि लगाता है।3। आपे वडा आपि है पिआरा आपे ही परधाणु ॥ आपे कीमति पाइदा पिआरा आपे तुलु परवाणु ॥ आपे अतुलु तुलाइदा पिआरा जन नानक सद कुरबाणु ॥४॥५॥ पद्अर्थ: परधाणु = जाने माने। तुलु = तराजू। परवाणु = बॉट (तौलने वाले)।4। अर्थ: हे भाई! वह प्रभु प्यारा आप ही सबसे बड़ा है और जाना-माना है। वह खुद ही (अपना) तौल और पैमाना बरत के (अपने पैदा किए हुए जीवों का) मूल्य डालता है। वह प्रभु आप अतुल्य है (उसकी प्रतिभा की पैमाइश नहीं हो सकती) वह (जीवों के जीवन सदा) तौलता है। हे दास नानक! (कह:) मैं सदा उससे सदके जाता हूँ।4।5। सोरठि महला ४ ॥ आपे सेवा लाइदा पिआरा आपे भगति उमाहा ॥ आपे गुण गावाइदा पिआरा आपे सबदि समाहा ॥ आपे लेखणि आपि लिखारी आपे लेखु लिखाहा ॥१॥ पद्अर्थ: उमाहा = उत्साह। सबदि = शब्द में। समाहा = लीनता पैदा करता है। लेखणि = कलम।1। अर्थ: हे भाई! प्यारा प्रभु खुद ही (जीवों को अपनी) सेवा-भक्ति में जोड़ता है, खुद ही भक्ति करने का उत्साह देता है। प्रभु खुद ही (जीवों को) गुण गाने के लिए प्रेरित करता है, खुद ही (जीवों को) गुरु के शब्द में जोड़ता है। प्रभु खुद ही कलम है, खुद ही कलम चलाने वाला है, और, खुद ही (जीवों के माथे पर भक्ति का) लेख लिखता है।1। मेरे मन जपि राम नामु ओमाहा ॥ अनदिनु अनदु होवै वडभागी लै गुरि पूरै हरि लाहा ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ओमाहा = उत्साह (से)। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। गुरि पूरै = पूरे गुरु के द्वारा। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम उत्साह से जपा कर। पूरे गुरु के द्वारा हरि-नाम का लाभ कमा ले। (जो) भाग्यशाली मनुष्य (नाम जपता है, उसे) हर समय आत्मिक सुख मिला रहता है। रहाउ। आपे गोपी कानु है पिआरा बनि आपे गऊ चराहा ॥ आपे सावल सुंदरा पिआरा आपे वंसु वजाहा ॥ कुवलीआ पीड़ु आपि मराइदा पिआरा करि बालक रूपि पचाहा ॥२॥ पद्अर्थ: गोपी = ग्वालों की स्त्रीयां। कानु = कृष्ण। बनि = जंगल में, विंद्रावन में। सावल सुंदरा = साँवले रंग वाला सुंदर (कृष्ण)। वंसु = बाँसुरी। कुवलीआपीड़ु = कृष्ण को मारने के लिए कंस द्वारा भेजा हुआ हाथी। रूपि = रूप में। पचाहा = नाश।2। अर्थ: हे भाई! प्रभु ही गोपियां है, खुद ही कृष्ण है, खुद ही (विंद्रावन) जंगल में गईयां चराने वाला है। प्रभु खुद साँवले रंग का सुंदर कृष्ण है, खुद ही बाँसुरी बजाने वाला है। प्रभु खुद ही बालक-रूप (कृष्ण-रूप) में (कंस के भेजे हुए हाथी) कुवल्यापीड़ का नाश करने वाला है।2। आपि अखाड़ा पाइदा पिआरा करि वेखै आपि चोजाहा ॥ करि बालक रूप उपाइदा पिआरा चंडूरु कंसु केसु माराहा ॥ आपे ही बलु आपि है पिआरा बलु भंनै मूरख मुगधाहा ॥३॥ पद्अर्थ: अखाड़ा = (जगत) भूमि, मैदान। चोजाहा = तमाशे, खेल। चंडूरु = कंस के पहलवान का नाम। कंसु = केसी। मुगधाहा = मूर्खों का।3। अर्थ: हे भाई! प्रभु खुद ही (इस जगत का) अखाड़ा बनाने वाला है, (इस जगत अखाड़े में) खुद ही कौतक-तमाशे रच के देख रहा है। प्रभु खुद ही बालक रूप कृष्ण को पैदा करने वाला है, और, खुद ही उससे चंडूर, केसी और कंस को मरवाने वाला है। खुद ही ताकत (देने वाला) है, और खुद ही मूर्खों की ताकत तोड़ देता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |