श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सभु आपे जगतु उपाइदा पिआरा वसि आपे जुगति हथाहा ॥ गलि जेवड़ी आपे पाइदा पिआरा जिउ प्रभु खिंचै तिउ जाहा ॥ जो गरबै सो पचसी पिआरे जपि नानक भगति समाहा ॥४॥६॥

पद्अर्थ: सभु = सारा। वसि = वश में। गलि = गले मे। जेवड़ी = रस्सी। खिंचै = खीचता है। गरबै = अहंकार करता है। पचसी = नाश हो जाएगा।4।

अर्थ: हे भाई! प्यारा प्रभु खुद ही सारे जगत को पैदा करता है, (जगत को आप ही अपने) वश में रखता है (जीवों की जीवन-) जुगति अपने हाथ में रखता है। प्रभु स्वयं ही (सब जीवों के) गले में रस्सी डाले रखता है, जैसे प्रभु (उस रस्सी को) खींचता है वैसे ही जीव (जीवन-राह पर) चलते हैं। हे नानक! (कह:) हे पयारे सज्जन! जो मनुष्य (अपने किसी बल आदि का) अहंकार करता है वह तबाह हो जाता है (आत्मिक मौत सहेड़ लेता है)। हे भाई! परमात्मा का नाम जपा कर, उसकी भक्ति में लीन रहा कर।4।6।

सोरठि मः ४ दुतुके ॥ अनिक जनम विछुड़े दुखु पाइआ मनमुखि करम करै अहंकारी ॥ साधू परसत ही प्रभु पाइआ गोबिद सरणि तुमारी ॥१॥

पद्अर्थ: मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। अहंकारी = अहंकार के असर तले। साधू = गुरु। परसत = छूते हुए।1।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य अनेको जन्मों से (परमात्मा से) विछुड़ा हुआ दुख सहता चला आता है, (इस जन्म में भी अपने मन का मुरीद रह के) अहंकार के आसरे ही कर्म करता रहता है। (पर) गुरु के चरण छूते ही उसे परमात्मा मिल जाता है। हे गोबिंद! (गुरु की शरण की इनायत से) वह तेरी शरण आ पड़ता है।1।

गोबिद प्रीति लगी अति पिआरी ॥ जब सतसंग भए साधू जन हिरदै मिलिआ सांति मुरारी ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अति = बहुत। सत संग = साधु-संगत। हिरदै = हृदय में। मुरारी = (मुर+अरी) परमात्मा। रहाउ।

अर्थ: जब (किसी भाग्यशाली मनुष्य को) भले मनुष्यों वाली संगति प्राप्त होती है, उसे अपने हृदय में शांति देने वाला परमात्मा आ मिलता है, परमात्मा के साथ उसकी बड़ी गहरी प्रीति बन जाती है। रहाउ।

तू हिरदै गुपतु वसहि दिनु राती तेरा भाउ न बुझहि गवारी ॥ सतिगुरु पुरखु मिलिआ प्रभु प्रगटिआ गुण गावै गुण वीचारी ॥२॥

पद्अर्थ: भाउ = प्यार। गवारी = मूर्ख लोग। न बूझहि = नहीं समझते। वीचारी = विचार के, तवज्जो/ध्यान जोड़ के।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू हर वक्त सब जीवों के हृदय में छुपा हुआ टिका रहता है, मूर्ख मनुष्य तेरे साथ प्यार (के महत्व) को नहीं समझते। (हे भाई!) जिस मनुष्य को सर्व-व्यापक प्रभु का रूप गुरु मिल जाता है उसके अंदर परमात्मा प्रगट हो जाता है। वह मनुष्य परमात्मा के गुणों में तवज्जो जोड़ के गुण गाता रहता है।2।

गुरमुखि प्रगासु भइआ साति आई दुरमति बुधि निवारी ॥ आतम ब्रहमु चीनि सुखु पाइआ सतसंगति पुरख तुमारी ॥३॥

पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। साति = शांति, ठण्ड, आत्मिक अडोलता। दुरमति = बुरी मति। निवारी = दूर कर ली। आतम = सब जीवों में। चीनि = पहचान के।3।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ता है उसके अंदर (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है, उसके अंदर ठंड पड़ जाती है, वह मनुष्य अपने अंदर से बुरी मति वाली मति दूर कर लेता है (ये दुर्मति ही विकारों की सड़न पैदा कर रही थी)। वह मनुष्य अपने अंदर परमात्मा को बसता पहचान के आत्मिक आनंद प्राप्त कर लेता है। हे सर्व-व्यापक प्रभु! ये तेरी साधु-संगत की ही इनायत है।3।

पुरखै पुरखु मिलिआ गुरु पाइआ जिन कउ किरपा भई तुमारी ॥ नानक अतुलु सहज सुखु पाइआ अनदिनु जागतु रहै बनवारी ॥४॥७॥

पद्अर्थ: पुरखै = उस मनुष्य को। पुरखु = अकाल पुरख, सर्व व्यापक परमात्मा। सहज सुख = आत्मिक अडोलता का सुख। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागतु रहै = (माया के मोह से) सचेत रहता है। बनवारी = परमात्मा (में लीन रह के)।4।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु मिल जाता है उस मनुष्य को सर्व-व्यापक परमात्मा मिल जाता है। (पर, हे प्रभु! गुरु भी उनको ही मिलता है) जिस पर तेरी कृपा होती है। हे नानक! (ऐसा मनुष्य) आत्मिक अडोलता में बहुत सारा सुख पाता है, वह हर वक्त परमात्मा (की याद) में लीन रह के (विकारों से) सचेत रहता है।4।7।

सोरठि महला ४ ॥ हरि सिउ प्रीति अंतरु मनु बेधिआ हरि बिनु रहणु न जाई ॥ जिउ मछुली बिनु नीरै बिनसै तिउ नामै बिनु मरि जाई ॥१॥

पद्अर्थ: सिउ = साथ। अंतरु = अंदरूनी। बेधिआ = भेद दिया। नीर = पानी।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के साथ प्यार से जिस मनुष्य का हृदय जिस मनुष्य का मन भेदा जाता है, वह परमात्मा (की याद) के बिना नहीं रह सकता। जैसे पानी के बिना मछली मर जाती है, वैसे ही वह मनुष्य प्रभु के नाम के बिना अपनी आत्मिक मौत आ गई समझता है।1।

मेरे प्रभ किरपा जलु देवहु हरि नाई ॥ हउ अंतरि नामु मंगा दिनु राती नामे ही सांति पाई ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! हरि = हे हरि! नाई = बड़ाई, महिमा। हउ = मैं। अंतरि = अंदर, दिल में (‘अतरु’ और ‘अंतरि’ में फर्क है)। मंगा = मांगू, मैं मांगता हूँ। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे प्रभु! (मुझे अपनी) मेहर का जल दे। हे हरि! मुझे अपनी महिमा की दाति दे। मैं अपने हृदय में दिन-रात तेरा (ही) नाम मांगता हूँ (क्योंकि तेरे) नाम में जुड़ने से आत्मिक ठण्ड प्रापत हो सकती है। रहाउ।

जिउ चात्रिकु जल बिनु बिललावै बिनु जल पिआस न जाई ॥ गुरमुखि जलु पावै सुख सहजे हरिआ भाइ सुभाई ॥२॥

पद्अर्थ: चात्रिकु = पपीहा। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने वाले मनुष्य। सुख जल = आत्मिक आनंद देने वाला नाम जल। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। भाइ = प्रेम से। सुभाई = श्रेष्ठ प्यार से।2।

अर्थ: हे भाई! जैसे बरखा जल के बिना पपीहा बिलखता है, बरखा की बूँद के बिना उसकी प्यास नहीं बुझती, वैसे ही जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है तब वह प्रभु की इनायत से आत्मिक जीवन वाला बनता है जब वह आत्मिक अडोलता में टिक के आत्मिक आनंद देने वाला नाम-जल (गुरु से) हासिल करता है।2।

मनमुख भूखे दह दिस डोलहि बिनु नावै दुखु पाई ॥ जनमि मरै फिरि जोनी आवै दरगहि मिलै सजाई ॥३॥

पद्अर्थ: मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। दह दिस = दसों दिशाओं में। पाई = पाता है, पाए। मरै = मरता है।3।

अर्थ: हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य माया की भूख के मारे हुए दसो-दिशाओं में डोलते फिरते हैं। मन का मुरीद मनुष्य परमात्मा के नाम से टूट के दुख पाता रहता है। वह पैदा होता है मरता है, बार-बार जूनियों में पड़ा रहता है, परमात्मा की दरगाह में उसको (ये) सजा मिलती है।3।

क्रिपा करहि ता हरि गुण गावह हरि रसु अंतरि पाई ॥ नानक दीन दइआल भए है त्रिसना सबदि बुझाई ॥४॥८॥

पद्अर्थ: गावह = (हम जीव) गाते हैं। पाई = पा के। सबदि = शब्द से।4।

अर्थ: हे हरि! अगर तू (स्वयं) मेहर करे, तो ही हम जीव तेरी महिमा के गीत गा सकते हैं। (जिस पर मेहर हो, वही मनुष्य) अपने हृदय में हरि नाम का स्वाद अनुभव करता है। हे नानक! दीनों पर दया करने वाला प्रभु जिस मनुष्य पर प्रसन्न होता है, गुरु के शब्द के द्वारा उसकी (माया की) प्यास बुझा देता है।4।8।

सोरठि महला ४ पंचपदा ॥ अचरु चरै ता सिधि होई सिधी ते बुधि पाई ॥ प्रेम के सर लागे तन भीतरि ता भ्रमु काटिआ जाई ॥१॥

पद्अर्थ: अचरु = (अ+चरु) ना जीता जा सकने (मन) वाला। चरै = जीत लेता है। सिधि = (जीवन संग्राम में) सफलता। ते = से। बुधि = अकल। सर = तीर। तन = शरीर, हृदय। भ्रमु = मन की भटकना।1।

अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जब) मनुष्य इस अजीत मन को जीत लेता है, तब (जीवन-संग्राम में इसको) कामयाबी हो जाती है, (इस) कामयाबी से (मनुष्य को) ये समझ आ जाती है (कि) परमात्मा के प्यार के तीर (इसके) हृदय में भेदे जाते हैं, तब (इसके मन की) भटकना (सदा के लिए) कट जाती है।1।

मेरे गोबिद अपुने जन कउ देहि वडिआई ॥ गुरमति राम नामु परगासहु सदा रहहु सरणाई ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गोबिद = हे गोबिंद! कउ = को। परगासहु = प्रगट करो, उजागर कर दो। रहहु = रखो। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे गोबिंद! (मुझे) अपने दास को (ये) आदर दे (कि) गुरु की मति से (मेरे अंदर) अपना नाम प्रगट कर दे, (मुझे) सदा अपनी शरण में रख। रहाउ।

इहु संसारु सभु आवण जाणा मन मूरख चेति अजाणा ॥ हरि जीउ क्रिपा करहु गुरु मेलहु ता हरि नामि समाणा ॥२॥

पद्अर्थ: संसारु = जगत (का मोह)। आवण जाणा = जनम मरन (का मूल)। मन = हे मन! नामि = नाम में।2।

अर्थ: हे मूर्ख अंजान मन! ये जगत (का मोह) जनम-मरण (का कारण बना रहता) है, (इससे बचने के लिए परमात्मा का नाम) स्मरण करता रह। हे हरि! (मेरे पर) मेहर कर, मुझे गुरु मिला, तभी तेरे नाम में लीनता हो सकती है।2।

जिस की वथु सोई प्रभु जाणै जिस नो देइ सु पाए ॥ वसतु अनूप अति अगम अगोचर गुरु पूरा अलखु लखाए ॥३॥

पद्अर्थ: वथु = वस्तु, नाम वस्तु। सोई = वही (प्रभु)। सु = वह मनुष्य। अनूप = बेमिसाल, सुंदर (अन+ऊप = उपमा रहित)। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। अलखु = अदृश्य प्रभु। लखाए = दिखा देता है।3।

नोट: ‘जिस की’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।

नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे भाई! ये नाम-वस्तु जिस (परमात्मा) की (मल्कियत) है, वही जानता है (कि ये वस्तु किसे देनी है), जिस जीव को प्रभु ये दाति देता है वही ले सकता है। ये वस्तु ऐसी सुंदर है कि जगत में इस जैसी और कोई नहीं, (किसी चतुराई समझदारी से) इस तक पहुँच नहीं हो सकती, मनुष्य की ज्ञान-इंद्रिय की भी इस तक पहुँच नहीं। (अगर) पूरा गुरु (मिल जाए, तो वही) अदृश्य प्रभु के दीदार करवा सकता है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh