श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 608 जिनि इह चाखी सोई जाणै गूंगे की मिठिआई ॥ रतनु लुकाइआ लूकै नाही जे को रखै लुकाई ॥४॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। इह = ये वस्तु (स्त्रीलिंग)। को = कोई मनुष्य।4। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने ये नाम-वस्तु चखी है (इसका स्वाद) वही जानता है, (वह बयान नहीं कर सकता, जैसे) गूँगे की (खाई) मिठाई (का स्वाद) गूँगा बता नहीं सकता। (हाँ, अगर किसी को ये नाम-रत्न हासिल हो जाए, तो) अगर वह मनुष्य (इस रत्न को अपने अंदर) छुपा के रखना चाहे, तो छुपाने से ये रत्न नहीं छुपता (उसके आत्मिक जीवन से रत्न-प्राप्ति के लक्षण दिख पड़ते हैं)।4। सभु किछु तेरा तू अंतरजामी तू सभना का प्रभु सोई ॥ जिस नो दाति करहि सो पाए जन नानक अवरु न कोई ॥५॥९॥ नोट: पंच पद = पाँच बंदों वाला शब्द। पद्अर्थ: अंतरजामी = दिल की जानने वाला। सोई = सार रखने वाला।5। अर्थ: हे प्रभु! ये सारा जगत तेरा ही बनाया हुआ है, तू सब जीवों के दिल की जानने वाला है, तू सबकी सार लेने वाला मालिक है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) वही मनुष्य तेरा नाम हासिल कर सकता है जिसको तू ये दाति बख्शता है। और कोई भी ऐसा जीव नहीं (जो तेरी कृपा के बिना तेरा नाम प्राप्त कर सके)।5।9। जरूरी नोट: इस राग में गुरू नानक देव जी के सारे ही शबदों में ‘रहाउ’ की तुकों के साथ सिर्फ ‘रहाउ’ आया है, ना कि “॥१॥ रहाउ॥ ”। यही समानता गुरू अमरदास जी और गुरू रामदास जी के शबदों में मिलती है। गुरू नानक देव जी की सारी बाणी इन गुरू साहिबानों के पास मौजूद थी। सोरठि महला ५ घरु १ तितुके ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ किसु हउ जाची किस आराधी जा सभु को कीता होसी ॥ जो जो दीसै वडा वडेरा सो सो खाकू रलसी ॥ निरभउ निरंकारु भव खंडनु सभि सुख नव निधि देसी ॥१॥ पद्अर्थ: हउ जाची = मैं जाचूँ, मैं मांगू। आराधी = मैं आराधना करूँ। सभु को = हरेक जीव। कीता = (परमात्मा का) बनाया हुआ। होसी = होगा, है। खाकू = ख़ाक में। भव खंडनु = जनम (मरण) नाश करने वाला। सभि = सारे। नव निधि = जगत के नौ ही खजाने। देसी = देगा, देता है।1। अर्थ: हे प्रभु जी! मैं तेरी (दी हुई) दातों से (ही) तृप्त हो सकता हूँ, मैं किसी विचारे मनुष्य की उपमा क्यों करता फिरूँ? जो भी कोई बड़ा अथवा धनाढ मनुष्य दिखाई देता है, हरेक ने (मर के) मिट्टी में मिल जाना है (एक परमात्मा ही सदा कायम रहने वाला दाता है)। हे भाई! सारे सुख और जगत के सारे नौ खजाने वह निरंकार ही देने वाला है जिसको किसी का डर नहीं, और, जो सब जीवों का जनम-मरण व नाश करने वाला है।1। हरि जीउ तेरी दाती राजा ॥ माणसु बपुड़ा किआ सालाही किआ तिस का मुहताजा ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हरि = हे हरि! दाती = दातों से। राजा = मैं रजता हूँ, तृप्त होता हूँ। बपुड़ा = विचारा। सालाही = मैं सालाहूँ। रहाउ। नोट: ‘तिस का’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है। अर्थ: हे प्रभू जी! मैं तेरे (द्वारा दी हुई) दातों (कृपा, वर, उपहारों) से ही तृप्त हो सकता हूँ। मैं किसी बेचारे आदमी की प्रशंसा क्यों करता फिरूं? मुझे किसी आदमी की अधीनगी (पराधीनता) क्यूं हो? रहाउ। जिनि हरि धिआइआ सभु किछु तिस का तिस की भूख गवाई ॥ ऐसा धनु दीआ सुखदातै निखुटि न कब ही जाई ॥ अनदु भइआ सुख सहजि समाणे सतिगुरि मेलि मिलाई ॥२॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। सभु किछु = हरेक चीज। सुखदातै = सुख देने वाले (प्रभु) ने। सहजि = आत्मिक अडोलता के कारण। सतिगुरि = गुरु ने। मेलि = मिलाप में।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने परमात्मा की भक्ति शुरू कर दी, जगत की हरेक चीज ही उसकी बन जाती है, परमात्मा उसके अंदर से (माया की) भूख दूर कर देता है। सुखदाते प्रभु ने उसको ऐसा (नाम-) धन दे दिया है जो (उसके पास से) कभी खत्म नहीं होता। गुरु ने उस परमात्मा के चरणों में (जब) मिला दिया, तो आत्मिक अडोलता के कारण उसके अंदर आनंद के सारे सुख आ बसते हैं।2। मन नामु जपि नामु आराधि अनदिनु नामु वखाणी ॥ उपदेसु सुणि साध संतन का सभ चूकी काणि जमाणी ॥ जिन कउ क्रिपालु होआ प्रभु मेरा से लागे गुर की बाणी ॥३॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! अनदिनु = हर रोज। वखाणी = उचारता रह। काणि = अधीनता। जमाणी = जम+आणी। आणी = की। (जमों की)। कउ = को।3। अर्थ: हे (मेरे) मन! हर समय परमात्मा का नाम जपा कर, स्मरण किया कर, उचारा कर। संत जनों का उपदेश सुन के जमों की भी सारी अधीनता (गुलामी) खत्म हो जाती है। (पर, हे मन!) सतिगुरु की वाणी में वही मनुष्य तवज्जो जोड़ते हैं, जिस पर प्यारा प्रभु आप दयावान होता है।3। कीमति कउणु करै प्रभ तेरी तू सरब जीआ दइआला ॥ सभु किछु कीता तेरा वरतै किआ हम बाल गुपाला ॥ राखि लेहु नानकु जनु तुमरा जिउ पिता पूत किरपाला ॥४॥१॥ नोट: तितुके = तीन-तीन तुकों वाले बंद। इस शब्द में हरेक बंद में तीन-तीन तुके हैं। पद्अर्थ: गुपाला = हे गोपाल! किआ हम = हमारी क्या बिसात है? जन = दास।4। अर्थ: हे प्रभु! तेरी (मेहर की) कीमत कौन पा सकता है? तू सारे ही जीवों पर मेहर करने वाला है। हे गोपाल प्रभु! हम जीवों की क्या बिसात है? जगत में हरेक काम तेरा ही किया हुआ होता है। हे प्रभु! नानक तेरा दास है, (इस दास की) रक्षा उसी तरह करता रह, जैसे पिता अपने पुत्रों पर कृपालु हो के करता है।4।1। सोरठि महला ५ घरु १ चौतुके ॥ गुरु गोविंदु सलाहीऐ भाई मनि तनि हिरदै धार ॥ साचा साहिबु मनि वसै भाई एहा करणी सार ॥ जितु तनि नामु न ऊपजै भाई से तन होए छार ॥ साधसंगति कउ वारिआ भाई जिन एकंकार अधार ॥१॥ पद्अर्थ: सालाहीऐ = महिमा करनी चाहिए। मनि = मन में। तनि = तन में। धार = धार के, टिका के। साचा = सदा कायम रहने वाला। सार = श्रेष्ठ। करणी = कर्तव्य। जितु = जिस में। जितु तनि = जिस जिस तन में। से तन = वह (सारे) शरीर। छार = राख। कउ = से। वारिआ = कुर्बान। साध संगति कउ = उन गुरमुखों की संगति से। अधार = आसरा।1। अर्थ: हे भाई! मन में, तन में, हृदय में (प्रभु को) टिका के उस सबसे बड़े गोबिंद की महिमा करनी चाहिए। मनुष्य का सबसे श्रेष्ठ कर्तव्य है ही ये कि सदा कायम रहने वाला मालिक प्रभु (मनुष्य के) मन में बसा रहे। हे भाई! जिस जिस शरीर में परमात्मा का नाम प्रगट नहीं होता वे सारे शरीर व्यर्थ गए समझो। हे भाई! (मैं तो) उन गुरमुखों की संगति से कुर्बान जाता हूँ जिन्होंने एक परमात्मा (के नाम को जिंदगी) का आसरा (बनाया हुआ) है।1। सोई सचु अराधणा भाई जिस ते सभु किछु होइ ॥ गुरि पूरै जाणाइआ भाई तिसु बिनु अवरु न कोइ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सचु = सदा कायम रहने वाला प्रभु। जिस ते = जिससे। गुरि = गुरु ने। रहाउ। नोट: ‘जिस ते’ में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! उस सदा कायम रहने वाले परमात्मा की ही आराधना करनी चाहिए, जिससे (जगत की) हरेक चीज अस्तित्व में आई है। हे भाई! पूरे गुरु ने (मुझे ये) समझ दी है कि उस (परमात्मा) के बिना और कोई (पूजने योग्य) नहीं है। रहाउ। नाम विहूणे पचि मुए भाई गणत न जाइ गणी ॥ विणु सच सोच न पाईऐ भाई साचा अगम धणी ॥ आवण जाणु न चुकई भाई झूठी दुनी मणी ॥ गुरमुखि कोटि उधारदा भाई दे नावै एक कणी ॥२॥ पद्अर्थ: पचि = (माया के मोह में) दुखी हो के, उलझ के। मुए = आत्मिक मौत मर गए। गणत = गिनती। विणु सच = सदा स्थिर प्रभु (के नाम) के बिना। सोच = (आत्मिक) पवित्रता। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। धणी = मालिक। दुनी मणी = दुनिया (के पदार्थों) का गुमान। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। कोटि = करोड़ों को। नावै = नाम की।2। अर्थ: हे भाई! उन मनुष्यों की गिनती नहीं की जा सकती, जो परमात्मा के नाम से वंचित रह के (माया के मोह में) उलझ के आत्मिक मौत मरते रहते हैं। हे भाई! सदा स्थिर प्रभु (के नाम) के बिना आत्मिक पवित्रता प्राप्त नहीं हो सकती। वह सदा स्थिर अगम्य (पहुँच से परे) मालिक ही (पवित्रता का श्रोत है)। हे भाई! (प्रभु के नाम के बिना) जनम-मरण (का चक्कर) खत्म नहीं होता। दुनिया के पदार्थों का घमण्ड झूठा है (ये गुमान तो ले डूबता है, जनम-मरण में डाले रखता है)। (दूसरी तरफ) हे भाई! जो मनुष्य गुरु के सन्मुख रहता है, वह हरि नाम का एक कण-मात्र ही दे के करोड़ों को (जनम-मरण के चक्कर में से) बचा लेता है।2। सिम्रिति सासत सोधिआ भाई विणु सतिगुर भरमु न जाइ ॥ अनिक करम करि थाकिआ भाई फिरि फिरि बंधन पाइ ॥ चारे कुंडा सोधीआ भाई विणु सतिगुर नाही जाइ ॥ वडभागी गुरु पाइआ भाई हरि हरि नामु धिआइ ॥३॥ पद्अर्थ: सोधिआ = विचार देखे हैं। भरमु = भटकना। न जाइ = नही जाती। पाइ = पाता है, सहेड़ता है। जाइ = जगह। धिआइ = ध्याता है।3। अर्थ: हे भाई! स्मृतियां-शास्त्र विचार के देखे हैं (उनसे भी कुछ प्राप्त नहीं होता), गुरु के बिना (किसी और से) भटकना दूर नहीं हो सकती। हे भाई! (शास्त्रों द्वारा बताए हुए) अनेक कर्म कर-करके मनुष्य थक जाता है, (बल्कि) बार-बार बंधन ही सहेड़ता है। हे भाई! सारा जगत तलाश के देख लिया है (भटकना दूर करने के लिए) गुरु के बिना और कोई जगह नहीं है। हे भाई! जिस भाग्यशाली मनुष्य को गुरु मिल जाता है, वह सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |