श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सोरठि महला ५ ॥ सुखीए कउ पेखै सभ सुखीआ रोगी कै भाणै सभ रोगी ॥ करण करावनहार सुआमी आपन हाथि संजोगी ॥१॥

पद्अर्थ: सुखीआ = (आत्मिक) सुख भोगने वाला। कउ = को। पेखै = दिखता है। कै भाणै = के ख्याल में। रोगी = (विकारों के) रोग में फसा हुआ। करावनहार = (जीवों से) करवाने की समर्थता रखने वाला। हाथि = हाथ में। संजोगी = (आत्मिक सुख और आत्मिक रोग का) मेल।1।

अर्थ: हे भाई! आत्मिक सुख मानने वाले को हरेक मनुष्य आत्मिक सुख भोगता हुआ दिखाई देता है, (विकारों के) रोग में फंसे हुए के ख्याल में सारी दुनिया ही विकारी है। (अपने अंदर से मेर-तेर गवा चुके मनुष्य को ये निश्चय हो जाता है कि) मालिक प्रभु ही सब कुछ करने की सामर्थ्य वाला है जीवों से करवाने की ताकत रखने वाला है, (जीवों के लिए आत्मिक सुख और आत्मिक दुख का) मेल उसने अपने हाथ में रखा हुआ है।1।

मन मेरे जिनि अपुना भरमु गवाता ॥ तिस कै भाणै कोइ न भूला जिनि सगलो ब्रहमु पछाता ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। भरमु = भटकना। सगलो = सब में। रहाउ।

नोट: ‘तिस कै’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हट गई है।

अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य ने अपने अंदर से मेर-तेर गवा ली जिसने सब जीवों में परमात्मा बसता पहचान लिया, उसके ख्याल में कोई जीव गलत राह पर नहीं जा रहा। रहाउ।

संत संगि जा का मनु सीतलु ओहु जाणै सगली ठांढी ॥ हउमै रोगि जा का मनु बिआपित ओहु जनमि मरै बिललाती ॥२॥

पद्अर्थ: संगि = संगति में। सीतलु = शांत, ठंडा। सगली = सारी दुनिया। रोगि = रोग में। बिआपित = फसा हुआ। जनमि मरै = पैदा होता मरता है। बिललाती = बिलखता, दुखी होता।2।

अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में रहके जिस मनुष्य का मन (विकारों की ओर से) शांत हो जाता है, वह सारी दुनिया को ही शांत-चिक्त समझता है। पर जिस मनुष्य का मन अहंम्-रोग में फसा रहता है, वह सदा दुखी रहता है, वह (अहम् में) जनम ले के आत्मिक मौत सहता रहता है।2।

गिआन अंजनु जा की नेत्री पड़िआ ता कउ सरब प्रगासा ॥ अगिआनि अंधेरै सूझसि नाही बहुड़ि बहुड़ि भरमाता ॥३॥

पद्अर्थ: गिआन अंजनु = आत्मिक जीवन की सूझ का सुर्मा। नेत्री = आँखों में। प्रगासा = प्रकाश। अगिआनि = अज्ञान, ज्ञान हीन मनुष्य को। अंधेरै = अधेंरे में। बहुड़ि बहुड़ि = बार बार।3।

अर्थ: हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ का सुर्मा जिस मनुष्य की आँखों में पड़ जाता है, उसको आत्मिक जीवन की सारी समझ पड़ जाती है। पर, ज्ञान-हीन मनुष्य को अज्ञानता के अंधकार में (सही जीवन के बारे में) कुछ नहीं सूझता, वह बार-बार भटकता रहता है।3।

सुणि बेनंती सुआमी अपुने नानकु इहु सुखु मागै ॥ जह कीरतनु तेरा साधू गावहि तह मेरा मनु लागै ॥४॥६॥

पद्अर्थ: सुआमी अपुने = हे मेरे स्वामी! नानकु मागै = नानक मांगता है। जह = जहाँ। गावहि = गाते हैं। लागै = लगा रहे, परचा रहे।4।

अर्थ: हे मेरे मालिक! (मेरी) विनती सुन (तेरा दास) नानक (तेरे दर से) ये सुख माँगता है (कि) जहाँ संत-जन तेरी महिमा के गीत गाते हों, वहाँ मेरा मन लगा रहे।4।6।

सोरठि महला ५ ॥ तनु संतन का धनु संतन का मनु संतन का कीआ ॥ संत प्रसादि हरि नामु धिआइआ सरब कुसल तब थीआ ॥१॥

पद्अर्थ: का कीआ = का बना दिया, भेटा कर दी। प्रसादि = कृपा से। सरब कुसल = सारे सुख।1।

अर्थ: हे भाई! जब कोई मनुष्य अपना शरीर अपना मन, अपना धन संत जनों के हवाले कर देता है (भाव, हरेक किस्म के अपनत्व को मिटा देता है), और संतों की कृपा से परमात्मा का नाम स्मरण करने लग जाता है, तब उसको सारे (आत्मिक) सुख मिल जाते हैं।1।

संतन बिनु अवरु न दाता बीआ ॥ जो जो सरणि परै साधू की सो पारगरामी कीआ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दाता = (नाम की) दाति देने वाला। बीआ = दूसरा। साधू = गुरु। पारगरामी = (संसार समुंदर से) पार लंघाने के काबिल। कीआ = हो जाता है। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! संत जनों के बिना परमात्मा के नाम की दाति देने वाला और कोई नहीं है। जो जो मनुष्य गुरु की (संत जनों की) शरण पड़ता है, वह संसार-समुंदर से पार लांघने के काबिल हो जाता है। रहाउ।

कोटि पराध मिटहि जन सेवा हरि कीरतनु रसि गाईऐ ॥ ईहा सुखु आगै मुख ऊजल जन का संगु वडभागी पाईऐ ॥२॥

पद्अर्थ: कोटि पराध = करोड़ों पाप। जन सेवा = संत जनों की सेवा करने से। रसि = रस से, प्रेम से। ईहा = इस लोक में। आगै = परलोक में। मुख ऊजल = उज्जव मुँह वाले, सही रास्ते पर।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक की (बताई) सेवा करने से करोड़ों पाप मिट जाते हैं, और प्रेम से परमात्मा की महिमा की जा सकती है। इस लोक में आत्मिक आनंद मिला रहता है, परलोक में भी सही स्वीकार हो जाते हैं। पर, हे भाई! प्रभु के सेवक की संगति बड़े भाग्यों से मिलती है।2।

रसना एक अनेक गुण पूरन जन की केतक उपमा कहीऐ ॥ अगम अगोचर सद अबिनासी सरणि संतन की लहीऐ ॥३॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ। केतक = कितना? उपमा = बड़ाई, शोभा। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अगोचर = (अ+गो+चर) जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। सद = सदा। लहीऐ = ढूँढता है।3।

अर्थ: हे भाई! (मेरी) एक जीभ है (संत जन) अनेक गुणों से भरपूर होते हैं, संत जनों की बड़ाई कितनी बताई जाए? संतों की शरण पड़ने से ही वह परमात्मा मिल सकता है जो कभी नाश होने वाला नहीं, जो अगम्य (पहुँच से परे) है, जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती।3।

निरगुन नीच अनाथ अपराधी ओट संतन की आही ॥ बूडत मोह ग्रिह अंध कूप महि नानक लेहु निबाही ॥४॥७॥

पद्अर्थ: निरगुन = गुण हीन। अनाथ = निआसरा। ओट = आसरा, शरण। आही = मांगी है, मैं माँगता हूँ। ग्रिह = गृहस्थ। अंध कूप महि = अंधे कूएं में। लेहु निबाही = आखिर तक साथ निभाओ।4।

अर्थ: हे नानक! (अरदास कर और कह:) मैं गुण-हीन हूँ, नीच हूँ, निआसरा हूँ, विकारी हूँ, मैंने संतों का पल्ला पकड़ा है (हे संत जनो!) गृहस्थ के मोह के अंधे कूएं में डूब रहे का साथ आखिर तक निभाओ।4।7।

सोरठि महला ५ घरु १ ॥ जा कै हिरदै वसिआ तू करते ता की तैं आस पुजाई ॥ दास अपुने कउ तू विसरहि नाही चरण धूरि मनि भाई ॥१॥

पद्अर्थ: जा कै हिरदै = जिसके हृदय में। करते = हे कर्तार! तैं = (शब्द ‘तू’ और ‘तैं’ में फर्क है = कौन बसा? तू। किस ने पहुँचाया? तैं)। कउ = को। मनि = मन में। भाई = प्यारी लगती है।1।

अर्थ: हे कर्तार! जिस मनुष्य के हृदय में तू आ बसता है, उसकी तू हरेक आस पूरी कर देता है। अपने सेवक को तू कभी नहीं बिसारता (तेरा सेवक तुझे कभी नहीं भुलाता), उसके मन को तेरे चरणों की धूल प्यारी लगती है।1।

तेरी अकथ कथा कथनु न जाई ॥ गुण निधान सुखदाते सुआमी सभ ते ऊच बडाई ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अकथ = अ+कथनीय, जो बयान नहीं हो सकती। गुण निधान = हे गुणों के खजाने! सभ ते = सबसे। रहाउ।

अर्थ: हे सारे गुणों के खजाने! हे सुख देने वाले मालिक! तेरी बड़ाई सबसे ऊँची है (तू सबसे बड़ा है)। तू कैसा है, कितना बड़ा है; ये बयान नहीं किया जा सकता। रहाउ।

सो सो करम करत है प्राणी जैसी तुम लिखि पाई ॥ सेवक कउ तुम सेवा दीनी दरसनु देखि अघाई ॥२॥

पद्अर्थ: लिखि = लिख के। देखि = देख के। अघाई = तृप्त हो जाता है।2।

अर्थ: (पर, हे प्रभु!) जीव वही वही कर्म करता है जैसी जैसी (आज्ञा) तूने (उसके माथे पर) लिख के रख दी है। अपने सेवक को तूने अपनी सेवा-भक्ति की दाति बख्शी हुई है, (वह सेवक) तेरा दर्शन करके तृप्त हुआ रहता है।2।

सरब निरंतरि तुमहि समाने जा कउ तुधु आपि बुझाई ॥ गुर परसादि मिटिओ अगिआना प्रगट भए सभ ठाई ॥३॥

पद्अर्थ: निरंतरि = (निर+अंतर। अंतर = दूरी) दूरी के बिना, एक रस। तुमहि = तू ही। बुझाई = समझ दे दी। परसादि = कृपा से। सभ ठाई = सब जगह।3।

अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्य को तू खुद समझ देता है उसको तू सारे ही जीवों में एक-रस समाया हुआ दिखता है। गुरु की कृपा से (उस मनुष्य के अंदर से) अज्ञानता (का अंधकार) मिट जाता है, उसकी शोभा हर जगह पसर जाती है।3।

सोई गिआनी सोई धिआनी सोई पुरखु सुभाई ॥ कहु नानक जिसु भए दइआला ता कउ मन ते बिसरि न जाई ॥४॥८॥

पद्अर्थ: गिआनी = ज्ञानी, ज्ञानवान। धिआनी = तवज्जो जोड़ने वाला। सुभाई = श्रेष्ठ प्रेम वाला। मन ते = मन से।4।

अर्थ: हे नानक! कह: वही मनुष्य ज्ञानवान है, वही मनुष्य तवज्जो अभ्यासी है, वही मनुष्य प्यार भरे स्वभाव वाला है, जिस मनुष्य पर परमात्मा खुद दयावान होता है। उस मनुष्य को मन से परमात्मा कभी नहीं भूलता।4।8।

सोरठि महला ५ ॥ सगल समग्री मोहि विआपी कब ऊचे कब नीचे ॥ सुधु न होईऐ काहू जतना ओड़कि को न पहूचे ॥१॥

पद्अर्थ: समग्री = रचना, दुनिया। मोहि = मोह में। विआपी = फसी हुई। कब = कब। सुधु = पवित्र। काहू जतना = किसी भी जतन से। ओड़कि = आखिर तक, सिरे तक, प्रभु तक। को = कोई भी।1।

अर्थ: हे भाई! सारी दुनिया मोह में फंसी हुई है (इसके कारण) कभी (जीव) अहंकार में आ जाते हैं, कभी घबरा जाते हैं। अपने किसी प्रयत्न से (मोह की मैल से) पवित्र नहीं हुआ जा सकता। कोई भी मनुष्य (अपने प्रयत्नों से मोह के) उस पार नहीं पहुँच सकता।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh