श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मेरे मन साध सरणि छुटकारा ॥ बिनु गुर पूरे जनम मरणु न रहई फिरि आवत बारो बारा ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! छुटकारा = मोह से खलासी। साध = गुरु। न रहई = नहीं खत्म होता। बारो बारा = बार बार। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे मन! गुरु की शरण पड़ने से ही (मोह से) खलासी हो सकती है। पूरे गुरु के बिना (जीवों का) जनम-मरण (का चक्र) नहीं खत्म होता। (जीव) बार बार (जगत में) आता रहता है। रहाउ।

ओहु जु भरमु भुलावा कहीअत तिन महि उरझिओ सगल संसारा ॥ पूरन भगतु पुरख सुआमी का सरब थोक ते निआरा ॥२॥

पद्अर्थ: भरमु = भटकना। भुलावा = भुलेखा। तिन महि = उन (भ्रम-भुलेखों) में। पुरख = सर्व व्यापक। थोक = पदार्थ। ते = से। निआरा = अलग।2।

अर्थ: जिस मानसिक हालत को ‘भ्रम-भुलावा’ कहते हैं, सारा जगत उन (भ्रम-भुलेखों में) फंसा हुआ है। परंतु सर्व-व्यापक मालिक-प्रभु का पूरन भक्त (दुनिया के) सारे पदार्थों (के मोह) से अलग रहता है।2।

निंदउ नाही काहू बातै एहु खसम का कीआ ॥ जा कउ क्रिपा करी प्रभि मेरै मिलि साधसंगति नाउ लीआ ॥३॥

पद्अर्थ: निंदउ = मैं निंदा करता हूँ। काहू बातै = किसी भी बात से। एहु = ये (संसार)। प्रभि = प्रभु ने। मिलि = मिल के।3।

अर्थ: फिर भी, हे भाई! ये सारा जगत मालिक प्रभु का पैदा किया हुआ है, मैं इसे किसी भी तरह गलत नहीं कह सकता। हाँ, जिस मनुष्य पर मेरे प्रभु ने मेहर कर दी, वह साधु-संगत में मिल के परमात्मा का नाम जपता है, (और मोह से बच निकलता है)।3।

पारब्रहम परमेसुर सतिगुर सभना करत उधारा ॥ कहु नानक गुर बिनु नही तरीऐ इहु पूरन ततु बीचारा ॥४॥९॥

पद्अर्थ: नही तरीऐ = पार नहीं लांघ सकते। ततु = अस्लियत।4।

अर्थ: हे नानक! कह: हमने ये पूरी सच्चाई विचार ली है कि गुरु की शरण पड़े बिना (संसार-समंद्र से) पार लांघा नहीं जा सकता। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ते हैं) परमात्मा का रूप गुरु उन सभी का पार उतारा कर देता है।4।8।

सोरठि महला ५ ॥ खोजत खोजत खोजि बीचारिओ राम नामु ततु सारा ॥ किलबिख काटे निमख अराधिआ गुरमुखि पारि उतारा ॥१॥

पद्अर्थ: खोजत = खोजते हुए। खोजि = खोज के। ततु = अस्लियत। सारा = श्रेष्ठ। किलबिख = पाप। निमख = आँख झपकने जितना समय। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर।1।

अर्थ: हे भाई! बड़ी लंबी खोज करके हम इस विचार पर पहुँचे हैं कि परमात्मा का नाम (-स्मरणा ही मानव जन्म की) सबसे ऊँची अस्लियत है। गुरु की शरण पड़ के हरि का नाम स्मरण करने से (ये नाम) आँख झपकने जितने समय में (सारे) पाप काट देता है, और, (संसार-समुंदर से) पार लंघा देता है।1।

हरि रसु पीवहु पुरख गिआनी ॥ सुणि सुणि महा त्रिपति मनु पावै साधू अम्रित बानी ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पुरखु ज्ञानी = हे आत्मिक जीवन की सूझ वाले मनुष्य! सुणि सुणि = बार बार सुन के। त्रिपति = तृप्ति, संतोष। साधू = गुरु। अंम्रित बानी = आत्मिक जीवन देने वाली वाणी के द्वारा। रहाउ।

अर्थ: हे आत्मिक जीवन की समझ वाले मनुष्य! (सदा) परमात्मा का नाम-रस पीया कर। (हे भाई!) गुरु की आत्मिक जीवन देने वाली वाणी के द्वारा (परमात्मा का) नाम बार-बार सुन सुन के (मनुष्य का) मन सबसे ऊँचा संतोष हासल कर लेता है। रहाउ।

मुकति भुगति जुगति सचु पाईऐ सरब सुखा का दाता ॥ अपुने दास कउ भगति दानु देवै पूरन पुरखु बिधाता ॥२॥

पद्अर्थ: मुकति = (माया के मोह से) मुक्ति। भुगति = (आत्मा की) खुराक। जुगति = जीने का सही तरीका। सचु = सदा कायम रहने वाला परमात्मा। कउ = को। पूरन = सर्व-व्यापक। बिधाता = कर्तार।2।

अर्थ: हे भाई! सारे सुखों को देने वाला, सदा कायम रहने वाला परमात्मा अगर मिल जाए, तो यही है विकारों से खलासी (का मूल), यही है (आत्मा की) खुराक, यही है जीने का सच्चा ढंग। वह सर्व-व्यापक विधाता प्रभु-भक्ति का (ये) दान अपने सेवक को (ही) बख्शता है।2।

स्रवणी सुणीऐ रसना गाईऐ हिरदै धिआईऐ सोई ॥ करण कारण समरथ सुआमी जा ते ब्रिथा न कोई ॥३॥

पद्अर्थ: स्रवणी = कानों से। रसना = जीभ (से)। सोई = वह (प्रभु) ही। करण कारण = जगत का मूल। जा ते = जिससे, जिस (के दर) से। ब्रिथा = खाली।3।

अर्थ: हे भाई! जिस जगत के मूल सब ताकतों के मालिक प्रभु के दर से कोई जीव खाली हाथ नहीं जाता, उस (के) ही (नाम) को कानों से सुनना चाहिए, हृदय में आराधना चाहिए।3।

वडै भागि रतन जनमु पाइआ करहु क्रिपा किरपाला ॥ साधसंगि नानकु गुण गावै सिमरै सदा गुोपाला ॥४॥१०॥

पद्अर्थ: भागि = किस्मत से। किरपाला = हे कृपालु! गावै = गाता रहे। गुोपाला = (असल शब्द ‘गोपाला’ है यहाँ ‘गुपाला’ पढ़ना है) हे गुपाल!।4।

अर्थ: हे गोपाल! हे कृपाल! बड़ी किस्मत से ये श्रेष्ठतम मानव जन्म मिला है (अब) मेहर कर, (तेरा सेवक) नानक साधु-संगत में रह के तेरे गुण गाता रहे, तेरा नाम सदा स्मरण करता रहे।4।10।

सोरठि महला ५ ॥ करि इसनानु सिमरि प्रभु अपना मन तन भए अरोगा ॥ कोटि बिघन लाथे प्रभ सरणा प्रगटे भले संजोगा ॥१॥

पद्अर्थ: करि = कर के। सिमरि = स्मरण करके। अरोगा = आरोग्य। कोटि = करोड़ों। बिघन = (जिंदगी के राह में) रुकावटें। प्रगटे = प्रकट हो जाते हैं। भले संजोगा = प्रभु मिलाप के भले अवसर।1।

अर्थ: (हे भाई! अमृत वेले, प्रभात के वक्त) स्नान करके, अपने प्रभु का नाम स्मरण करके मन और शरीर नरोए हो जाते हैं (क्योंकि) प्रभु की शरण पड़ने से (जीवन के राह में आने वाली) करोड़ों रुकावटें दूर हो जाती हैं, और, प्रभु से मिलाप के बढ़िया अवसर प्रगट हो जाते हैं।1।

प्रभ बाणी सबदु सुभाखिआ ॥ गावहु सुणहु पड़हु नित भाई गुर पूरै तू राखिआ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ बाणी = प्रभु की महिमा की वाणी। सुभाखिआ = सुंदर उचारा हुआ। भाई = हे भाई! तू = तुझे। गुर पूरै = पूरे गुरु ने। राखिआ = (जीवन विघ्नों से) बचा लिया। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (गुरु ने अपना) शब्द सुंदर उचारा हुआ है, (ये शब्द) प्रभु की महिमा की वाणी है। (इस शब्द को) सदा गाते रहो, सुनते रहो, पढ़ते रहो, (अगर ये उद्यम करता रहेगा, तो यकीन रख) पूरे गुरु ने तुझे (जीवन में आने वाली रुकावटों से) बचा लिया। रहाउ।

साचा साहिबु अमिति वडाई भगति वछल दइआला ॥ संता की पैज रखदा आइआ आदि बिरदु प्रतिपाला ॥२॥

पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। पैज = इज्जत। आदि = आरम्भ से। बिरदु = प्रकृति का मूल स्वभाव।2।

अर्थ: हे भाई! मालिक प्रभु सदा कायम रहने वाला है, उसकी प्रतिभा नापी नहीं जा सकती, वह भक्ति से प्यार करने वाला है, वह दया का श्रोत है, अपने संतों की इज्जत वह (सदा ही) रखता आया है, अपना ये बिरद स्वभाव वह आरम्भ से ही पालता आ रहा है।2।

हरि अम्रित नामु भोजनु नित भुंचहु सरब वेला मुखि पावहु ॥ जरा मरा तापु सभु नाठा गुण गोबिंद नित गावहु ॥३॥

पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। भुंचहु = खाओ। मुखि = मुँह में। जरा = (आत्मिक जीवन को) बुढ़ापा। मरा = मौत। तापु = दुख-कष्ट।3।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, ये (आत्मिक) खुराक खाते रहो, हर वक्त अपने मुँह में डालते रहो। हे भाई! गोबिंद के गुण सदा गाते रहो (आत्मिक जीवन को) ना बुढ़ापा आएगा ना मौत आएगी, हरेक दुख-कष्ट दूर हो जाएगा।3।

सुणी अरदासि सुआमी मेरै सरब कला बणि आई ॥ प्रगट भई सगले जुग अंतरि गुर नानक की वडिआई ॥४॥११॥

पद्अर्थ: सुआमी मेरै = मेरे मालिक ने। सरब कला = सारी ताकत (‘कोटि बिघन’ के मुकाबले के लिए) सारी शक्ति। बणि आई = पैदा हो जाती है। सगले जुग अंतरि = सारे युगों में, सदा ही। गुर नानक की = हे नानक! गुरु की।4।

अर्थ: हे भाई! (जिस भी मनुष्य ने गुरु के शब्द का आसरा ले के प्रभु का नाम जपा) मेरे मालिक ने उसकी अरदास सुन ली, (करोड़ों विघनों से मुकाबला करने के लिए उसके अंदर) पूरी ताकत पैदा हो जाती है। हे नानक! गुरु की ये अज़मत सारे युगों में ही प्रत्यक्ष प्रगट रहती है।4।11।

सोरठि महला ५ घरु २ चउपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

एकु पिता एकस के हम बारिक तू मेरा गुर हाई ॥ सुणि मीता जीउ हमारा बलि बलि जासी हरि दरसनु देहु दिखाई ॥१॥

पद्अर्थ: गुर हाई = गुरभाई। मीता = हे मित्र! जीउ = जिंद, प्राण। बलि जासी = सदके जाएगी।1।

अर्थ: हे मित्र! (हमारा) एक ही प्रभु पिता है, हम एक ही प्रभु-पिता के बच्चे हैं, (फिर,) तू मेरा गुरभाई (भी) है। मुझे परमात्मा के दर्शन करवा दे। मेरे प्राण तुझसे बारंबार सदके जाया करेंगे।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh