श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 612 सुणि मीता धूरी कउ बलि जाई ॥ इहु मनु तेरा भाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कउ = से। बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। भाई = हे भाई!। रहाउ। अर्थ: हे मित्र! (मेरी विनती) सुन। मैं (तेरे चरणों की) धूल से कुर्बान जाता हूँ। हे भाई! (मैं अपना) ये मन तेरा (आज्ञाकारी बनाने को तैयार हूँ)। रहाउ। पाव मलोवा मलि मलि धोवा इहु मनु तै कू देसा ॥ सुणि मीता हउ तेरी सरणाई आइआ प्रभ मिलउ देहु उपदेसा ॥२॥ पद्अर्थ: पाव = दोनों पाद। मलोवा = मैं मलूँगा। मलि = मल के। धोवा = धोऊँ, मैं धोऊँगा। तै कू = तुझे। देसा = दूँगा। हउ = मैं। प्रभ मिलउ = मैं प्रभु को मिल जाऊँ, मिलूँ।2। नोट: ‘पाव’ है ‘पाउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे मित्र! मैं (तेरे दोनों) पैर मलूँगा, (इनको) मल-मल के धोऊँगा, मैं अपना ये मन तेरे हवाले कर दूँगा। हे मित्र! (मेरी विनती) सुन। मैं तेरी शरण आया हूँ। मुझे (ऐसा) उपदेश दे (कि) मैं प्रभु को मिल सकूँ।2। नोट: गुरमुख मिलाप की युक्ति बताता है। मानु न कीजै सरणि परीजै करै सु भला मनाईऐ ॥ सुणि मीता जीउ पिंडु सभु तनु अरपीजै इउ दरसनु हरि जीउ पाईऐ ॥३॥ पद्अर्थ: मानु = अहंकार। कीजै = करना चाहिए। परीजै = पड़ना चाहिए। पिंडु = शरीर। अरपीजै = भेटा कर देना चाहिए। इउ = यूँ, इस तरह।3। अर्थ: हे मित्र! सुन। (किसी किस्म का) अहंकार नहीं करना चाहिए। जो कुछ परमात्मा कर रहा है, उसे भला करके मानना चाहिए। ये जिंद और ये शरीर सब कुछ उसकी भेट कर देना चाहिए। इस तरह परमात्मा को पा लिया जाता है।3। भइओ अनुग्रहु प्रसादि संतन कै हरि नामा है मीठा ॥ जन नानक कउ गुरि किरपा धारी सभु अकुल निरंजनु डीठा ॥४॥१॥१२॥ नोट: यहाँ से ‘घरु २’ के शब्द शुरू होते हैं। पहले शबदों का संग्रह11 है। पद्अर्थ: अनुग्रहु = मेहर, कृपा। प्रसादि = कृपा से। गुरि = गुरु ने। अकुल = अ+कुल, जिस की कोई खास कुल नहीं। निरंजनु = (निर+अंजनु। अंजनु = सुरमा, मायाकी कालिख़) माया के प्रभाव से रहित।4। जरूरी नोट: इस शब्द में एक जिज्ञासू से सवाल करवा के, और, किसी गुरसिख से उक्तर दिलवा के परमात्मा से मिलाप की जुगति बताई गई है। अर्थ: हे मित्र! संत जनों की कृपा से (जिस मनुष्य पर प्रभु की) मेहर हो उसे परमात्मा का नाम प्यारा लगने लग जाता है। (हे मित्र!) दास नानक पर गुरु ने कृपा की तो (नानक को) हर जगह वह प्रभु दिखाई देने लगा, जिसका कोई विशेष कुल नहीं, जो माया के प्रभाव से परे है।4।1।12। सोरठि महला ५ ॥ कोटि ब्रहमंड को ठाकुरु सुआमी सरब जीआ का दाता रे ॥ प्रतिपालै नित सारि समालै इकु गुनु नही मूरखि जाता रे ॥१॥ पद्अर्थ: ब्रहमंड = सृष्टि। को = का। ठाकुरु = पालनहार। रे = हे भाई! सारि = सार ले के। समालै = संभाल करता है। मूरखि = मूर्ख ने।1। अर्थ: हे भाई! मैं मूर्ख ने उस परमात्मा का एक भी उपकार नहीं समझा, जो करोड़ों ब्रहमण्डों का पालहार मालिक है, जो सारे जीवों को (रिजक आदि) देने वाला दाता है, जो (सब जीवों को) पालता है, सदा (सब की) सार ले के संभाल करता है।1। हरि आराधि न जाना रे ॥ हरि हरि गुरु गुरु करता रे ॥ हरि जीउ नामु परिओ रामदासु ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: आराधि न जाना = (मैंने) आराधना करनी नहीं समझी। करता = करता हूँ। रे = हे भाई! हरि जीउ = हे प्रभु जी! परिओ = पड़ गया है। राम दासु = राम का दास। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मुझे परमात्मा के स्मरण करने की विधि नहीं। मैं (ज़बानी ज़बानी ही) ‘हरि हरि’, ‘गुरु गुरु’ करता रहता हूँ। हे प्रभु जी! मेरा नाम ‘राम का दास’ पड़ गया है (अब तू ही मेरी इज्जत रख, और भक्ति की दाति दे)। रहाउ। दीन दइआल क्रिपाल सुख सागर सरब घटा भरपूरी रे ॥ पेखत सुनत सदा है संगे मै मूरख जानिआ दूरी रे ॥२॥ पद्अर्थ: सुख सागर = सुखों का समुंदर। भरपूरी = व्यापक। सरब घटा = सारे शरीरों में। संगे = साथ ही।2। अर्थ: हे भाई! मैं मूर्ख उस परमात्मा को कहीं दूर बसता समझ रहा हूँ जो गरीबों पर दया करने वाला है, जो दया का घर है, जो सुखों का समुंदर है, जो सारे शरीरों में हर जगह मौजूद है, जो सब जीवों के अंग-संग रहके सबके कर्म देखता है और (सबकी आरजूएं) सुनता रहता है।2। हरि बिअंतु हउ मिति करि वरनउ किआ जाना होइ कैसो रे ॥ करउ बेनती सतिगुर अपुने मै मूरख देहु उपदेसो रे ॥३॥ पद्अर्थ: हउ = मैं। मिति = हद बंदी। करि = कर के। वरनउ = वर्णन करूँ। किआ जाना = मैं क्या जानता हूँ? करउ = करूँ। मै मूरख = मुझ मूर्ख को।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता, पर मैं उसके गुणों को सीमा में रख के बयान करता हूँ। मैं कैसे जान सकता हूँ कि परमात्मा कैसा है? हे भाई! मैं अपने गुरु के पास विनती करता हूँ कि मुझ मूर्ख को शिक्षा दे।3। मै मूरख की केतक बात है कोटि पराधी तरिआ रे ॥ गुरु नानकु जिन सुणिआ पेखिआ से फिरि गरभासि न परिआ रे ॥४॥२॥१३॥ पद्अर्थ: केतक बात है = कौन सी बड़ी बात है, कोई बड़ी बात नहीं। कोटि = करोड़ों। जिन = जिन्होंने। गरभासि = गर्भ+आशय में, गर्भ जोनि में।4। अर्थ: हे भाई! मुझ मूर्ख को पार लंघाना (गुरु के वास्ते) कोई बड़ी बात नहीं (उसके दर पर आ के तो) करोड़ो पापी (संसार समुंदर से) पार लांघ रहे हैं। हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु नानक (के उपदेश) को सुना है गुरु नानक के दर्शन किए हैं, वह दुबारा कभी जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ते।4।2।13। सोरठि महला ५ ॥ जिना बात को बहुतु अंदेसरो ते मिटे सभि गइआ ॥ सहज सैन अरु सुखमन नारी ऊध कमल बिगसइआ ॥१॥ पद्अर्थ: को = का। जिना बात को = जिस बातों का। अंदेसरो = चिन्ता फिक्र। ते सभि = वह सारी बातें। सहज = आत्मिक अडोलता। सैन = लीनता। सहज सैन = आत्मिक अडोलता में लीनता। सुखमन = मन को सुख देने वाली। नारी = नारियां, इंद्रिय। ऊध = उलटा। बिगसाइआ = खिल उठा है।1। अर्थ: हे भाई! जिस बातों का मुझे बहुत चिन्ता-फिक्र लगा रहता था (गुरु की कृपा से) वह सारे चिन्ता-फिक्र मिट गए हैं। मेरा पलटा पड़ा हुआ हृदय-कमल पुष्प खिल गया है, आत्मिक अडोलता में मेरी लीनता हुई रहती है, और मेरी सारी इंद्रिय अब मेरे मन को आत्मिक सुख देने वाली हो गई हैं।1। देखहु अचरजु भइआ ॥ जिह ठाकुर कउ सुनत अगाधि बोधि सो रिदै गुरि दइआ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अचरजु = अनोखा तमाशा। जिह कउ = जिस को। अगाधि = अथाह, बहुत ही गहरा। बोधि = बुद्धि से। अगाधि बोधि = अथाह को समझ लिया। रिदै = हृदय में। गुरि = गुरु ने। रहाउ। अर्थ: हे भाई! देखो (मेरे अंदर) एक अनोखा करिश्मा हुआ है। गुरु ने (मुझे मेरे) हृदय में वह परमात्मा (दिखा) दिया है जिसके प्रथाय सुनते थे कि वह मनुष्य की समझ से बहुत परे है। रहाउ। जोइ दूत मोहि बहुतु संतावत ते भइआनक भइआ ॥ करहि बेनती राखु ठाकुर ते हम तेरी सरनइआ ॥२॥ पद्अर्थ: जोइ दूत = जो वैरी। मोहि = मुझे। ते = (बहुवचन) वह। भइआनक = भयभीत। करहि = करते हैं। ते = से। राखु = बचा ले।2। अर्थ: हे भाई! जो (कामादिक वैरी) मुझे बहुत सताया करते थे, वह अब (नजदीक फटकने से) डरते हैं, वह बल्कि तरले करते हैं कि हम अब तेरे अधीन हो के रहेंगे, हमें मालिक प्रभु (के क्रोप) से बचा ले।2। जह भंडारु गोबिंद का खुलिआ जिह प्रापति तिह लइआ ॥ एकु रतनु मो कउ गुरि दीना मेरा मनु तनु सीतलु थिआ ॥३॥ पद्अर्थ: जह = जहाँ, जिस अवस्था में। भंडारु = खजाना। जिह = जिस को। तिह = उस ने।3। अर्थ: हे भाई! (मेरे अंदर वह करिश्मा ऐसा हुआ है) कि उस अवस्था में परमात्मा (की भक्ति) का खजाना (मेरे अंदर) खुल गया है। पर (हे भाई! ये खजाना) उस मनुष्य को ही मिलता है जिसके भाग्यों में इसकी प्राप्ति लिखी हुई है। हे भाई! गुरु ने मुझे (परमात्मा का नाम) एक ऐसा रत्न दे दिया है कि (उसकी इनायत से) मेरा मन ठंडा-ठार हो गया है, मेरा शरीर शांत हो गया है।3। एक बूंद गुरि अम्रितु दीनो ता अटलु अमरु न मुआ ॥ भगति भंडार गुरि नानक कउ सउपे फिरि लेखा मूलि न लइआ ॥४॥३॥१४॥ नोट: ‘इआ’ मेल के अक्षरों को ‘अया’ पढ़ना है जैसे, ‘गइआ’ को ‘गयआ’, ‘बिगसया’ इत्यादि। पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। अटलु = अडोल। अमरु = आत्मिक मौत से बचा हुआ। न मुआ = नहीं मरता, आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती। भंडार = खजाने। कउ = को। लेखा = कर्मों का हिसाब। मूलि न = बिल्कुल नहीं।4। अर्थ: हे भाई! गुरु ने मुझे आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की एक बूँद दी है, अब मेरी आत्मा (विकारों की ओर से) अडोल हो गई है, आत्मिक मौत से मैं बच गया हूँ, आत्मिक मौत मेरे नजदीक नहीं फटकती। हे भाई! गुरु ने नानक को भक्ति के खजाने बख्श दिए हैं, उससे पिछले किए कर्मों का हिसाब बिल्कुल ही नहीं मांगा।4।3।14। सोरठि महला ५ ॥ चरन कमल सिउ जा का मनु लीना से जन त्रिपति अघाई ॥ गुण अमोल जिसु रिदै न वसिआ ते नर त्रिसन त्रिखाई ॥१॥ पद्अर्थ: जा का मनु = जिस मनुष्यों का मन। से जन = वह लोग। त्रिपति अघाई = (माया की ओर से) पूरी तौर पर तृप्त रहते हैं। जिसु रिदै = जिस जिस के हृदय में। ते नर = वह लोग। त्रिखाई = प्यासे।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों का मन प्रभु के कमल फूल जैसे कोमल चरणों में परच जाता है, वह मनुष्य (माया की ओर से) पूरे तौर पर संतोषी रहते हैं। पर, जिस जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के अमूल्य गुण नहीं आ के बसते, वे मनुष्य माया की तृष्णा में फंसे रहते हैं।1। हरि आराधे अरोग अनदाई ॥ जिस नो विसरै मेरा राम सनेही तिसु लाख बेदन जणु आई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अरोग = आरोग्य। अनदाई = प्रसन्न, आनंदमयी। सनेही = प्यारा। बेदन = पीड़ा, दुख। जणु = जानो, समझो, मानो। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की आराधना करने से निरोग हो जाते हैं, आत्मिक आनंद बना रहता है। पर जिस मनुष्य को मेरा प्यारा प्रभु भूल जाता है, उस पर (ऐसे) जानो (जैसे) लाखों तकलीफ़ें आ पड़ती हैं। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |