श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 613 जिह जन ओट गही प्रभ तेरी से सुखीए प्रभ सरणे ॥ जिह नर बिसरिआ पुरखु बिधाता ते दुखीआ महि गनणे ॥२॥ पद्अर्थ: ओट = आसरा। गही = पकड़ी। प्रभ = हे प्रभु! गनणे = गिने जाते हैं।2। अर्थ: हे प्रभु! जिस मनुष्यों ने तेरा आसरा लिया, वे तेरी शरण में रह के सुख पाते हैं। पर, हे भाई! जिस मनुष्यों को सर्व-व्यापक कर्तार भूल जाता है, वे मनुष्य दुखियों में गिने जाते हैं।2। जिह गुर मानि प्रभू लिव लाई तिह महा अनंद रसु करिआ ॥ जिह प्रभू बिसारि गुर ते बेमुखाई ते नरक घोर महि परिआ ॥३॥ पद्अर्थ: गुर मानि = गुरु का हुक्म मान के। लिव लाई = तवज्जो जोड़ी। गुर ते = गुरु से। ते = वह लोग। घोर = भयानक।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने गुरु की आज्ञा मान के परमात्मा में तवज्जो जोड़ ली, उन्होंने बड़ा आनंद बड़ा रस पाया। पर जो मनुष्य परमात्मा को भुला के गुरु की ओर से मुँह मोड़ के रखते हैं वे भयानक नर्क में पड़े रहते हैं।3। जितु को लाइआ तित ही लागा तैसो ही वरतारा ॥ नानक सह पकरी संतन की रिदै भए मगन चरनारा ॥४॥४॥१५॥ पद्अर्थ: जितु = जिस (काम) में। को = कोई बंदा। तित ही = उस (काम) में ही। सह = शह, ओट। मगन = मस्त।4। नोट: ‘तित ही’ में ‘तितु’ के अंत की ‘ु’ मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है। अर्थ: हे नानक! (जीवों के क्या वश?) जिस काम में परमात्मा किसी जीव को लगाता है उसी काम में वह लगा रहता है, हरेक जीव वैसा ही काम करता है। जिस मनुष्यों ने (प्रभु की प्रेरणा से) संत-जनों का आसरा लिया है वे अंदर से प्रभु के चरणों में मस्त रहते हैं।4।4।15। सोरठि महला ५ ॥ राजन महि राजा उरझाइओ मानन महि अभिमानी ॥ लोभन महि लोभी लोभाइओ तिउ हरि रंगि रचे गिआनी ॥१॥ पद्अर्थ: राजन महि = राज के काम में। उरझाइओ = मगन रहता है। मानन महि = मान बढ़ाने वाले कामों में। अभिमानी = अहंकारी, मान का भूखा। लोभन महि = लालच बढ़ाने वाले कामों में। गिआनी = आत्मिक जीवन की सूझ वाले बंदे।1। अर्थ: (हे भाई! जैसे) राज के कामों में राजा मगन रहता है, जैसे मान बढ़ाने वाले कामों में आदर-मान का भूखा मनुष्य लगा रहता है, जैसे लालची मनुष्य लालच बढ़ाने वाले कामों में फसा रहता है, वैसे ही आत्मिक जीवन की समझ वाला मनुष्य प्रभु के प्रेम रंग में मस्त रहता है।1। हरि जन कउ इही सुहावै ॥ पेखि निकटि करि सेवा सतिगुर हरि कीरतनि ही त्रिपतावै ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सुहावै = सुहाती है। पेखि = देख के। निकटि = नजदीक, अंग संग। कीरतनि = कीर्तन मे। त्रिपतावै = प्रसन्न रहता है। रहाउ। अर्थ: परमात्मा के भक्त को यही काम अच्छा लगता है। (भक्त परमात्मा को) अंग-संग देख के और गुरु की सेवा करके परमात्मा की महिमा में ही प्रसन्न रहता है। रहाउ। अमलन सिउ अमली लपटाइओ भूमन भूमि पिआरी ॥ खीर संगि बारिकु है लीना प्रभ संत ऐसे हितकारी ॥२॥ पद्अर्थ: अमलन सिउ = नशों से। अमली = नशों का प्रेमी। भूमन = जमीन के मालिक। भूमि = जमीन। खीर = दूध। बारिकु = बच्चा। हितकारी = प्यार करने वाले।2। अर्थ: हे भाई! नशों का प्रेमी मनुष्य नशों से चिपका रहता है, जमीन के मालिक को जमीन प्यारी लगती है, बच्चा दूध में परचा रहता है। इसी तरह संत जन परमात्मा से प्यार करते हैं।2। बिदिआ महि बिदुअंसी रचिआ नैन देखि सुखु पावहि ॥ जैसे रसना सादि लुभानी तिउ हरि जन हरि गुण गावहि ॥३॥ पद्अर्थ: बिदुअंसी = विद्वान। रचिआ = मस्त। नैन = आँखें। देखि = देख देख के। सादि = स्वाद में। लुभानी = मस्त रहती है।3। अर्थ: हे भाई! विद्वान मनुष्य विद्या (पढ़ने-पढ़ाने) में खुश रहता है, आँखें (पदार्थ) देख-देख के सुख भोगती हैं। हे भाई! जैसे जीभ (स्वादिष्ट पदार्थों के) स्वाद (चखने) में खुश रहती है, वैसे ही प्रभु के भक्त प्रभु की महिमा के गीत गाते हैं।3। जैसी भूख तैसी का पूरकु सगल घटा का सुआमी ॥ नानक पिआस लगी दरसन की प्रभु मिलिआ अंतरजामी ॥४॥५॥१६॥ पद्अर्थ: भूख = लालसा, जरूरत। पूरकु = मस्त। घट = शरीर। अंतरजामी = दिल की जानने वाला।4। अर्थ: हे भाई! सारे शरीरों के मालिक प्रभु जैसे जैसी किसी जीव की लालसा हो वैसी वैसी ही पूरी करने वाला है। हे नानक! (जिस मनुष्य को) परमात्मा के दर्शन की प्यास लगती है, उस मनुष्य को दिल की जानने वाला परमात्मा (खुद) आ के मिलता है।4।5।16। सोरठि महला ५ ॥ हम मैले तुम ऊजल करते हम निरगुन तू दाता ॥ हम मूरख तुम चतुर सिआणे तू सरब कला का गिआता ॥१॥ पद्अर्थ: मैले = विकारों की मैल से भरे हुए। ऊजल = साफ सुथरे, पवित्र। करते = करने वाले। दाता = गुण देने वाला। चतुर = समझदार। कला = हुनर। गिआता = ज्ञाता, जानने वाला।1। अर्थ: हे प्रभु! हम जीव विकारों की मैल से भरे रहते हैं, तू हमें पवित्र करने वाला है। हम गुण-हीन हैं, तू हमें गुण बख्शने वाला है। हम जीव मूर्ख हैं, तू दाना है, तू समझदार है तू (हमें अच्छा बना सकने वाले) सारे हुनर जानने वाला है।1। माधो हम ऐसे तू ऐसा ॥ हम पापी तुम पाप खंडन नीको ठाकुर देसा ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: माधो = (माधव = माया का पति) हे प्रभु! पाप खंडन = पापों के नाश करने वाले। नीको = अच्छा, सोहणा। ठाकुर = हे पालनहार प्रभु!। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! हम जीव ऐसे (विकारी) हैं, और तू ऐसा (उपकारी) है। हम पाप कमाने वाले हैं, तू हमारे पापों का नाश करने वाला है। हे ठाकुर! तेरा देश सुंदर है (वह देश-साधु-संगत सोहणा है जहाँ तु बसता है)। रहाउ। तुम सभ साजे साजि निवाजे जीउ पिंडु दे प्राना ॥ निरगुनीआरे गुनु नही कोई तुम दानु देहु मिहरवाना ॥२॥ पद्अर्थ: साजि = पैदा करके। निवाजे = आदर मान दिया। जीउ = प्राण, जिंद। पिंडु = शरीर। दे = दे कर। देहु = तू देता है। मिहरवाना = हे मेहरवान!।2। अर्थ: हे प्रभु! तूने जिंद शरीर प्राण दे के सारे जीवों को पैदा किया है, पैदा करके सब पर बख्शिश करता है। हे मेहरवान! हम गुण-हीन हैं, हममें कोई गुण नहीं हैं। तू हमें गुणों की दाति बख्शता है।2। तुम करहु भला हम भलो न जानह तुम सदा सदा दइआला ॥ तुम सुखदाई पुरख बिधाते तुम राखहु अपुने बाला ॥३॥ पद्अर्थ: न जानह = हम नहीं जानते, हम कद्र नहीं समझते। बिधाते = हे विधाता! बाला = बच्चे।3। अर्थ: हे प्रभु! तू हमारे लिए भलाई करता है, पर हम तेरी की हुई भलाई की कद्र नहीं जानते। फिर भी तू हम पर सदा दयावान रहता है। हे सर्व-व्यापक विधाता! तू हमें सुख देने वाला है, तू (हमारी) अपने बच्चों की रखवाली करता है।3। तुम निधान अटल सुलितान जीअ जंत सभि जाचै ॥ कहु नानक हम इहै हवाला राखु संतन कै पाछै ॥४॥६॥१७॥ पद्अर्थ: निधान = खजाने। अटल = सदा कायम रहने वाला। सुलितान = बादशाह। सभि = सारे। जाचै = जाचना करते हैं, माँगते हैं। इहै = ये ही। हवाला = हाल। कै पाछै = के आसरे।4। अर्थ: हे प्रभु जी! तुम सारे गुणों के खजाने हो। तुम सदा कायम रहने वाले बादशाह हो। सारे जीव (तेरे दर से) माँगते हैं। हे नानक! कह: (हे प्रभु!) हम जीवों का तो यही हाल है। तू हमें संत-जनों के आसरे में रख।4।6।17। सोरठि महला ५ घरु २ ॥ मात गरभ महि आपन सिमरनु दे तह तुम राखनहारे ॥ पावक सागर अथाह लहरि महि तारहु तारनहारे ॥१॥ पद्अर्थ: गरभ महि = पेट में। आपन = अपना। दे = दे के। तह = वहाँ, माँ के पेट में। राखनहारे = बचाने की सामर्थ्य वाले। पावक = (विकारों की) आग। सागर = समुंदर। अथाह = बहुत गहरा। तारनहारे = हे पार लंघा सकने वाले!।1। अर्थ: हे (संसार समुंदर से) पार लंघा सकने की सामर्थ्य रखने वाले! माँ के पेट में हमें अपना स्मरण दे के वहाँ हमारी रक्षा करने वाला है। (विकारों की) आग के समुंदर में गहरी लहरों में गिरे हुए को भी मुझे पार लंघा ले।1। माधौ तू ठाकुरु सिरि मोरा ॥ ईहा ऊहा तुहारो धोरा ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: माधो = (मा+धव, माया का पति) हे प्रभु! सिरि मोरा = मेरे सिर पर। ईहा = इस लोक में। ऊहा = उस लोक में। धोरा = आसरा। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! तू मेरे सिर पर रखवाला है इस लोक में, परलोक में मुझे तेरा ही आसरा है। रहाउ। कीते कउ मेरै समानै करणहारु त्रिणु जानै ॥ तू दाता मागन कउ सगली दानु देहि प्रभ भानै ॥२॥ पद्अर्थ: कीते कउ = बनाई हुई चीजों को। मेरै संमानै = मेरे सम मानै, मेरु पर्वत के समान मानता है। त्रिणु = तृण, तीला, तुच्छ। मागन कउ = माँगने वाली। सगली = सारी दुनिया। देहि = ते देता है। प्रभ = हे प्रभु! भानै = अपनी रजा में।2। अर्थ: हे प्रभु! तेरे पैदा किए पदार्थों को (ये जीव) मेरु पर्वत समान समझते हैं, पर तुझे, जो तू सब को पैदा करने वाला है, को एक तीले समान समझते हैं। हे प्रभु! तू सबको दातें देने वाला है, सारी दुनिया तेरे ही दर से माँगने वाली है, तू अपनी रजा में सबको दान देता है।2। खिन महि अवरु खिनै महि अवरा अचरज चलत तुमारे ॥ रूड़ो गूड़ो गहिर ग्मभीरो ऊचौ अगम अपारे ॥३॥ पद्अर्थ: खिन = छिन, थोड़ा सा समय। अवरु = और। खिनै महि = खिन में ही। अचरज = हैरान कर देने वाले। चलत = करिश्में। रूढ़ो = सुंदर। गूढ़ो = (सारे संसार में) छुपा हुआ। गंभीरो = बड़े जिगरे वाला। अगम = हे अगम्य (पहुँच से परे)! अपारे = हे अपार! हे बेअंत!।3। अर्थ: हे प्रभु! तेरे करिश्में हैरान कर देने वाले हैं, एक छिन में तू कुछ का कुछ बना देता है। हे अगम्य (पहुँच से परे)! हे बेअंत! तू सबसे ऊँचा है, तू सुंदर है, तू बड़े जिगरे वाला है, तू सारे संसार में गुप्त बस रहा है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |