श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सिमरहु हरि हरि नामु परानी ॥ बिनसै काची देह अगिआनी ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: परानी = हे बंदे! काची = सदा कायम ना रहने वाली। देह = शरीर। अगिआनी = हे मूर्ख!। रहाउ।

अर्थ: हे बंदे! सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। हे ज्ञानहीन! ये शरीर सदा कायम रहने वाला नहीं है, ये जरूर नाश हो जाता है। रहाउ।

म्रिग त्रिसना अरु सुपन मनोरथ ता की कछु न वडाई ॥ राम भजन बिनु कामि न आवसि संगि न काहू जाई ॥२॥

पद्अर्थ: म्रिग त्रिसना = मृग त्रृष्णा, वह रेगिस्तान जहाँ प्यारे हिरन को पानी प्रतीत होता है। सुपन मनोरथ = सपने में मिले पदार्थ। ता की = इस (माया) की। कामि = काम में। न आवसि = नहीं आएगी। काहू संगि = किसी के भी साथ।2।

अर्थ: (हे भाई! ये माया) मृग त्रिष्णा है (जो प्यासे हिरन को भगा भगा के मार देती है) सपनों में मिले पदार्थ हैं, (आत्मिक जीवन वाले देश में) इस माया को कुछ भी इज्जत नहीं मिलती। परमात्मा के भजन के बिना (कोई और चीज) काम नहीं आती, ये माया (अंत में) किसी के भी काम नहीं आती।2।

हउ हउ करत बिहाइ अवरदा जीअ को कामु न कीना ॥ धावत धावत नह त्रिपतासिआ राम नामु नही चीना ॥३॥

पद्अर्थ: हउ हउ करत = मैं मैं करते हुए, मान करते हुए। बिहाइ = गुजर जाती है। अवरदा = उम्र। जीअ को = जिंद का, जिंद के लाभ के लिए। धावत धावत = दौड़ता भटकता। त्रिपतासिआ = तृप्त। चीना = पहचाना, सांझ डाली।3।

अर्थ: (हे भाई! माया-ग्रसित मनुष्य की) उम्र (माया का) गुमान करते ही बीत जाती है, वह कोई ऐसा काम नहीं करता जो प्राणों के लाभ के लिए हो। (सारी उम्र माया की खातिर) दौड़ता-भटकता रहता है, तृप्त नहीं होता, परमात्मा के नाम के साथ सांझ नहीं डालता।3।

साद बिकार बिखै रस मातो असंख खते करि फेरे ॥ नानक की प्रभ पाहि बिनंती काटहु अवगुण मेरे ॥४॥११॥२२॥

पद्अर्थ: साद = चस्के। बिखै रस = पदार्थों के स्वाद। मातो = मस्त। खते = पाप। करि = कर के। फेरे = जनम मरन के चक्करों में। पाहि = पास।4।

अर्थ: हे भाई! माया-ग्रसित मनुष्य चस्कों में विकारों में पदार्थों के स्वादो में मस्त रहता है, बेअंत पाप कर करके जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है। हे भाई! नानक की आरजू तो प्रभु के पास ही है (नानक प्रभु को ही कहता है: हे प्रभु!) मेरे अवगुण काट दे।4।11।22।

सोरठि महला ५ ॥ गुण गावहु पूरन अबिनासी काम क्रोध बिखु जारे ॥ महा बिखमु अगनि को सागरु साधू संगि उधारे ॥१॥

पद्अर्थ: बिखु = जहर। जारे = जला देता है। बिखमु = मुश्किल। को = का। अगनि को सागरु = आग का समुंदर। संगि = संगति में। उधारे = पार लंघा देता है।1।

अर्थ: (हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ कर) सर्व-व्यापक नाश-रहित प्रभु के गुण गाया कर। (जो मनुष्य ये उद्यम करता है गुरु उसके अंदर से आत्मिक मौत लाने वाले) काम-क्रोध (आदि की) जहर जला देता है। (ये जगत विकारों की) आग का समुंदर (है, इस में से पार लांघना) बहुत कठिन है (महिमा के गीत गाने वाले मनुष्य को गुरु) साधु-संगत में (रख के इस समुंदर में से) पार लंघा देता है।1।

पूरै गुरि मेटिओ भरमु अंधेरा ॥ भजु प्रेम भगति प्रभु नेरा ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। भरमु = भटकना। अंधेरा = (माया के मोह का) अंधेरा। भजु = स्मरण कर। नेरा = नजदीक, अंग संग। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ो। जो मनुष्य पूरे गुरु की शरण पड़ा) पूरे गुरु ने (उसका) भ्रम मिटा दिया, (उसका माया के मोह का) अंधेरा दूर कर दिया। (हे भाई! तू भी गुरु की शरण पड़ कर) प्रेमा भक्ति से प्रभु के भजन किया कर, (तुझे) प्रभु अंग-संग (दिख जाएगा)। रहाउ।

हरि हरि नामु निधान रसु पीआ मन तन रहे अघाई ॥ जत कत पूरि रहिओ परमेसरु कत आवै कत जाई ॥२॥

पद्अर्थ: निधान = खजाने। रहे अघाई = तृप्त हो गए। जत कत = जहाँ कहाँ, हर जगह।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम (सारे रसों का खजाना है, जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर इस) खजाने का रस पीता है, उसका मन उसका तन (माया के रसों की ओर से) तृप्त हो जाते हैं। उसे हर जगह परमात्मा व्याप्त दिख पड़ता है। वह मनुष्य फिर ना पैदा होता है ना मरता है।2।

जप तप संजम गिआन तत बेता जिसु मनि वसै गुोपाला ॥ नामु रतनु जिनि गुरमुखि पाइआ ता की पूरन घाला ॥३॥

पद्अर्थ: बेता = जानने वाला। तत बेता = अस्लियत को जानने वाला। जिसु मनि = जिसके मन में। जिनि = जिस मनुष्य ने। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ के। घाला = मेहनत।3।

नोट: ‘गुोपाला’ में अक्षर ‘ग’ के साथ दो मात्राएं ‘ु’ और ‘ो’ हैं। असल शब्द ‘गोपाला’ है, यहाँ इसे ‘गुपाला’ पढ़ना है।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु की शरण पड़ कर नाम रत्न पा लिया, उसकी (आत्मिक जीवन वाली) मेहनत कामयाब हो गई। (गुरु के द्वारा) जिस मनुष्य के मन में सृष्टि का पालनहार आ बसता है, वह मनुष्य असल जप-तप-संयम के भेद को समझने वाला हो जाता है वह मनुष्य आत्मिक सूझ का ज्ञाता हो जाता है।3।

कलि कलेस मिटे दुख सगले काटी जम की फासा ॥ कहु नानक प्रभि किरपा धारी मन तन भए बिगासा ॥४॥१२॥२३॥

पद्अर्थ: कलि = कष्ट, झगड़े। सगले = सारे। फासा = जंजाल। प्रभि = प्रभु ने। बिगासा = प्रसन्न।4।

अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य पर प्रभु ने मेहर की (उसको प्रभु ने गुरु मिला दिया, और) उसका मन उसका तन आत्मिक आनंद से प्रफुल्लित हो गया। उस मनुष्य की जमों वाली जंजीरें काटी गई (उसके गले से माया के मोह की फाँसी कट गई जो आत्मिक मौत ला के उसे जमों के वश में करती है), उसके सारे दुख-कष्ट-कष्ट दूर हो गए।4।12।23।

सोरठि महला ५ ॥ करण करावणहार प्रभु दाता पारब्रहम प्रभु सुआमी ॥ सगले जीअ कीए दइआला सो प्रभु अंतरजामी ॥१॥

पद्अर्थ: करणहार = सब कुछ कर सकने वाला। करावणहार = (जीवों से) सब कुछ करवा सकने वाला। दाता = दातें देने वाला। सुआमी = मालिक। जीअ = जीव। कीए = पैदा किए। अंतरजामी = हरेक दिल की जानने वाला।1।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य का मददगार गुरु बन जाता है, उसे निश्चय हो जाता है कि) परमात्मा सब कुछ कर सकने वाला है (जीवों से) सब कुछ करवा सकने वाला है, सब जीवों को दातें देने वाला है, सब का मालिक है, सारे जीव उसी दया के घर प्रभु के पैदा किए हुए हैं, वह प्रभु हरेक के दिल की जानने वाला है।1।

मेरा गुरु होआ आपि सहाई ॥ सूख सहज आनंद मंगल रस अचरज भई बडाई ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सहाई = मददगार। सहज = आत्मिक अडोलता। मंगल = खुशियां। रस = स्वाद। अचरज = हैरान कर देने वाली। बडाई = इज्जत। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु (जिस मनुष्य का) मददगार खुद बनता है, उस मनुष्य के अंदर आत्मिक अडोलता के सुख आनंद खुशियां व स्वाद उघड़ आते हैं। उस मनुष्य को (लोक-परलोक में) ऐसी इज्जत मिलती है कि हैरान हो जाते हैं। रहाउ।

गुर की सरणि पए भै नासे साची दरगह माने ॥ गुण गावत आराधि नामु हरि आए अपुनै थाने ॥२॥

पद्अर्थ: भै = डर। साची = सदा कायम रहने वाली। माने = आदर पाते हैं। आराधि = स्मरण करके। अपुनै थाने = उस जगह पर जहाँ कोई विकार भटकना में नहीं डाल सकता।2।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ते हैं, उनके सारे डर दूर हो जाते हैं, सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की हजूरी में उन्हें आदर मिलता है। परमात्मा की महिमा के गीत गा के परमात्मा का नाम स्मरण करके वह अपने (उस हृदय-) स्थल में आ टिकते हैं (जहाँ कोई विकार उन्हें निकाल के भटकना में नहीं डाल सकता)।2।

जै जै कारु करै सभ उसतति संगति साध पिआरी ॥ सद बलिहारि जाउ प्रभ अपुने जिनि पूरन पैज सवारी ॥३॥

पद्अर्थ: जै जैकारु = बड़ाई, आदर मान। सभ = सारी दुनिया। उसतति = शोभा। साध = गुरु। सद = सदा। बलिहारी जाउ = मैं सदके जाता हूँ (जाऊँ)। जिनि = जिस (प्रभु) ने। पैज = इज्जत।3।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की संगति प्यारी लगने लग पड़ती है, सारी दुनिया उसकी सराहना करती है, शोभा करती है। हे भाई! मैं (भी) अपने प्रभु से सदा सदके जाता हूँ जिसने (मुझे गुरु की शरण डाल के) मेरी इज्जत पूरे तौर पर रख ली है।3।

गोसटि गिआनु नामु सुणि उधरे जिनि जिनि दरसनु पाइआ ॥ भइओ क्रिपालु नानक प्रभु अपुना अनद सेती घरि आइआ ॥४॥१३॥२४॥

पद्अर्थ: गोसटि = मिलाप। गिआनु = आत्मिक जीवन की समझ। सुणि = सुन के। उधारे = विकारों से बच जाते हैं। जिनि जिनि = जिस मनुष्य ने। सेती = साथ। घरि = घर में, हृदय घर में।4।

अर्थ: हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने (गुरु के) दर्शन किए हैं, उन्हें प्रभु का मिलाप प्राप्त हो गया, उनको आत्मिक जीवन की समझ प्राप्त हो गई, प्रभु का नाम सुन-सुन के वे मनुष्य (विकारों के हमलों से) बच गए। हे नानक! जिस मनुष्य पर प्यारा प्रभु दयावान हुआ वह मनुष्य आत्मिक आनंद से प्रभु चरणों में लीन हो गया।4।13।24।

सोरठि महला ५ ॥ प्रभ की सरणि सगल भै लाथे दुख बिनसे सुखु पाइआ ॥ दइआलु होआ पारब्रहमु सुआमी पूरा सतिगुरु धिआइआ ॥१॥

पद्अर्थ: भै = डर। पूरा = सारे गुणों का मालिक।1।

नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य पूरे गुरु का ध्यान धरता है, उस पर मालिक परमात्मा दयावान होता है (और, वह मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ता है) परमात्मा की शरण पड़ने से उसके सारे डर उतर जाते हैं, सारे दुख दूर हो जाते हैं, वह (सदा) आत्मिक आनंद लेता है।1।

प्रभ जीउ तू मेरो साहिबु दाता ॥ करि किरपा प्रभ दीन दइआला गुण गावउ रंगि राता ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! साहिबु = मालिक। गावउ = मैं गाऊँ। रंगि = प्रेम रंग में। राता = रंगा हुआ। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु जी! तू मेरा मालिक है, तू मुझे सारी दातें देने वाला है। हे दीनों पर दया करने वाले प्रभु! (मेरे पर) मेहर कर, मैं तेरे प्रेम-रंग में रंग के तेरे गुण गाता रहूँ। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh