श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 616 सतिगुरि नामु निधानु द्रिड़ाइआ चिंता सगल बिनासी ॥ करि किरपा अपुनो करि लीना मनि वसिआ अबिनासी ॥२॥ पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। निधानु = खजाना। द्रिढ़ाइआ = हृदय में पक्का कर दिया। करि लीना = बना लिया। मनि = मन में।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में गुरु ने सारे सुखों का खजाना प्रभु-नाम पक्का कर दिया, उसकी सारी चिंताएं दूर हो गई। परमात्मा मेहर करके उसको अपना बना लेता है, उसके मन में नाश-रहित परमात्मा आ बसता है।2। ता कउ बिघनु न कोऊ लागै जो सतिगुरि अपुनै राखे ॥ चरन कमल बसे रिद अंतरि अम्रित हरि रसु चाखे ॥३॥ पद्अर्थ: कउ = को। बिघनु = रुकावट। रिद = हृदय। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला।3। अर्थ: हे भाई! अपने गुरु ने जिस मनुष्य की रक्षा की उसको (आत्मिक जीवन के रास्ते में) कोई रुकावट नहीं आती। परमात्मा के कमल-फूल जैसे कोमल चरण उसके हृदय में आ बसते हैं, वह मनुष्य आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम-रस सदा चखता है।3। करि सेवा सेवक प्रभ अपुने जिनि मन की इछ पुजाई ॥ नानक दास ता कै बलिहारै जिनि पूरन पैज रखाई ॥४॥१४॥२५॥ पद्अर्थ: सेवक = सेवकों की तरह। जिनि = जिस (प्रभु) ने। इछ = कामना। पुजाई = पूरी कर दी। ता कै = उसके। पैज = इज्जत। पूरन = पूरे तौर पर।4। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने (हर वक्त) तेरे मन की (हरेक) कामना पूरी की है, सेवक की तरह उसकी सेवा-भक्ति करता रह। हे दास नानक! (कह:) मैं उस प्रभु से सदके जाता हूँ, जिसने (विघनों से मुकाबले पर हर समय) पूरी तौर पर इज्जत बचा के रखी है।4।14।25। सोरठि महला ५ ॥ माइआ मोह मगनु अंधिआरै देवनहारु न जानै ॥ जीउ पिंडु साजि जिनि रचिआ बलु अपुनो करि मानै ॥१॥ पद्अर्थ: मगनु = मस्त। अंधिआरै = अंधेरे में। न जानै = गहरी सांझ नहीं डालता। जीउ = जिंद। पिंडु = शरीर। साजि = बना के। रचिआ = पैदा किया। मानै = मानता है।1। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने शरीर-जिंद बना के जीव को पैदा किया हुआ है, उस सब दातें देने वाले प्रभु के साथ जीव गहरी सांझ नहीं डालता। माया के मोह के (आत्मिक) अंधकार में मस्त रहके अपनी ताकत को बड़ा समझता है।1। मन मूड़े देखि रहिओ प्रभ सुआमी ॥ जो किछु करहि सोई सोई जाणै रहै न कछूऐ छानी ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! मूढ़े = हे मूर्ख। करहि = तू करता है। कछूऐ = कोई करतूत। छानी = छुपी। रहाउ। अर्थ: हे मूर्ख मन! मालिक प्रभु (तेरी सारी करतूतें हर वक्त) देख रहा है। तू जो कुछ करता है, (मालिक प्रभु) वही वही जान लेता है, (उससे तेरी) कोई भी करतूत छुपी नहीं रह सकती। रहाउ। जिहवा सुआद लोभ मदि मातो उपजे अनिक बिकारा ॥ बहुतु जोनि भरमत दुखु पाइआ हउमै बंधन के भारा ॥२॥ पद्अर्थ: मदि = नशे में। मातो = मस्त। उपजे = पैदा हो गए। भरमत = भटकते। बंधन = जंजीर।2। अर्थ: हे भाई! मनुष्य जीभ के स्वादों में, लोभ के नशे में मस्त रहता है (जिसके कारण इसके अंदर) अनेक विकार पैदा हो जाते हैं, मनुष्य अहंकार की जंजीरों के भार तले दब जाता है, बहुत जूनियों में भटकता फिरता है, और दुख सहता रहता है।2। देइ किवाड़ अनिक पड़दे महि पर दारा संगि फाकै ॥ चित्र गुपतु जब लेखा मागहि तब कउणु पड़दा तेरा ढाकै ॥३॥ पद्अर्थ: देइ = दे के। देइ किवाड़ = दरवाजे बंद करके। दारा = स्त्री। संगि = साथ। फाकै = कुकर्म करता है। चित्र गुपतु = धर्मराज के मुंशी। मागहि = मांगते हैं, मांगेंगे।3। अर्थ: (माया के मोह के अंधकार में फसा मनुष्य) दरवाजे बंद करके अनेक पर्दों के पीछे पराई स्त्री के साथ कुकर्म करता है। (पर, हे भाई!) जब (धर्मराज के दूत) चित्र और गुप्त (तेरी करतूतों का) हिसाब मांगेंगे, तब कोई भी तेरी करतूतों पर पर्दा नहीं डाल सकेगा।3। दीन दइआल पूरन दुख भंजन तुम बिनु ओट न काई ॥ काढि लेहु संसार सागर महि नानक प्रभ सरणाई ॥४॥१५॥२६॥ पद्अर्थ: दुख भंजन = हे दुखों का नाश करने वाले! ओट = आसरा। सागर = समुंदर।4। अर्थ: हे नानक! कह: दीनों पर दया करने वाले! हे सर्व-व्यापक! हे दुखों का नाश करने वाले! तेरे बग़ैर और कोई आसरा नहीं है। हे प्रभु! मैं तेरी शरण आया हूँ। संसार समुंदर में (डूबते हुए की मेरी बाँह पकड़ के) निकाल ले।4।15।26। सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमु होआ सहाई कथा कीरतनु सुखदाई ॥ गुर पूरे की बाणी जपि अनदु करहु नित प्राणी ॥१॥ पद्अर्थ: सहाई = मददगार। सुखदाई = सुख देने वाला, आत्मिक आनंद देने वाला। जपि = जप के, पढ़ के। अनदु करहु = आत्मिक आनंद लो। प्राणी = हे प्रणी!।1। अर्थ: हे प्राणी! पूरे गुरु की (महिमा की) वाणी हमेशा पढ़ा कर, और, आत्मिक आनंद लिया कर। (जो मनुष्य सतिगुरु की वाणी से प्यार बनाता है) परमात्मा (उसका) मददगार बन जाता है, परमात्मा की महिमा (उसके अंदर) आत्मिक आनंद पैदा करती है।1। हरि साचा सिमरहु भाई ॥ साधसंगि सदा सुखु पाईऐ हरि बिसरि न कबहू जाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। भाई = हे भाई! साध संगि = साधु-संगत में। बिसरि न जाई = भूलता नही। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाले परमात्मा का स्मरण करते रहा करो, (नाम-जपने की इनायत से) साधु-संगत में सदा आत्मिक आनंद लेते हैं, और परमात्मा को कभी नहीं भूलते। रहाउ। अम्रित नामु परमेसरु तेरा जो सिमरै सो जीवै ॥ जिस नो करमि परापति होवै सो जनु निरमलु थीवै ॥२॥ पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। जीवै = आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। करमि = (तेरी) बख्शिश से। निरमलु = पवित्र जीवन वाला। थीवै = हो जाता है।2। अर्थ: हे सबसे ऊँचे मालिक! (परमेश्वर!) तेरा नाम आत्मिक जीवन देने वाला है। जो मनुष्य तेरा नाम स्मरण करता है वह आत्मिक जीवन हासिल कर लेता है। जिस मनुष्य को तेरी मेहर से (हे परमेश्वर!) तेरा नाम हासिल होता है, वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन जाता है।2। बिघन बिनासन सभि दुख नासन गुर चरणी मनु लागा ॥ गुण गावत अचुत अबिनासी अनदिनु हरि रंगि जागा ॥३॥ पद्अर्थ: बिघन = रुकावटें। सभि = सारे। चरणी = चरणों में। अचुत = ना नाश होने वाला। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। जागा = (माया के हमलों से) सचेत रहता है।3। अर्थ: (हे भाई! गुरु के चरण आत्मिक जीवन के राह की सारी) रुकावटों का नाश करने वाले हैं, सारे दुख दूर करने वाले हैं, जिस मनुष्य का मन गुरु के चरणों में परचता है, वह मनुष्य हर समय अविनाशी व अटल परमात्मा के गुण गाता गाता प्रभु के प्रेम-रंग में लीन हो के (माया के हमलों से) सचेत रहता है।3। मन इछे सेई फल पाए हरि की कथा सुहेली ॥ आदि अंति मधि नानक कउ सो प्रभु होआ बेली ॥४॥१६॥२७॥ पद्अर्थ: सुहेली = सुख देने वाली। आदि अंति मधि = शुरू में, आखिर में, बीच में, हर वक्त। बेली = मददगार।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की महिमा आत्मिक आनंद देने वाली है (महिमा करने वाला मनुष्य) वही फल प्राप्त कर लेता है जिसकी कामना उसका मन करता है। हे भाई! (महिमा की इनायत से) परमात्मा नानक के लिए सदा मददगार बन गया है।4।16।27। सोरठि महला ५ पंचपदा ॥ बिनसै मोहु मेरा अरु तेरा बिनसै अपनी धारी ॥१॥ पद्अर्थ: बिनसै = खत्म हो गए। मेरा अरु तेरा = मेर तेर वाला भेदभाव। अपनी धारी = अपनत्व, माया से पकड़।1। अर्थ: (जिस इलाज से मेरे अंदर से) मोह का नाश हो जाए, मेर-तेर वाला भेदभाव दूर हो जाए, मेरी माया से पकड़ खत्म हो जाए।1। संतहु इहा बतावहु कारी ॥ जितु हउमै गरबु निवारी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ईहा = एसी। कारी = इलाज। जितु = जिस से। गरबु = अहंकार। निवारी = मैं दूर कर लूँ। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! (मुझे कोई) ऐसा इलाज बताओ, जिससे मैं (अपने अंदर से) अहंकार को दूर कर सकूँ। रहाउ। सरब भूत पारब्रहमु करि मानिआ होवां सगल रेनारी ॥२॥ पद्अर्थ: भूत = जीव। मानिआ = माना जा सके। रेनारी = चरण धूल।2। अर्थ: (जिस उपचार से) परमात्मा सभी जीवों में बसा हुआ माना जा सके, और, मैं सभी के चरणों की धूल बना रहूँ।2। पेखिओ प्रभ जीउ अपुनै संगे चूकै भीति भ्रमारी ॥३॥ पद्अर्थ: पेखिओ = देखा जा सके। चूकै = खत्म हो जाए। भीति = दीवार। भ्रमारी = भटकना की।3। अर्थ: (जिस इलाज से) परमात्मा अपने अंग-संग देखा जा सके, और (मेरे अंदर से) माया की खातिर भटकने वाली दीवार दूर हो जाए (जो परमात्मा से दूरियां डाले हुए है)।3। अउखधु नामु निरमल जलु अम्रितु पाईऐ गुरू दुआरी ॥४॥ पद्अर्थ: अउखधु = दवाई। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। दुआरी = दर पर।4। अर्थ: (हे भाई!) वह दवा तो परमात्मा का नाम ही है, आत्मिक जीवन देने वाला पवित्र नाम-जल ही है। ये नाम गुरु के दर से मिलता है।4। कहु नानक जिसु मसतकि लिखिआ तिसु गुर मिलि रोग बिदारी ॥५॥१७॥२८॥ नोट: पंचपदा = पाँच बंदों वाले शब्द। पद्अर्थ: जिसु मसतकि = जिस (मनुष्य) के माथे पर। तिसु रोग = उसके रोग। गुर मिलि = गुरु को मिल के। बिदारी = दूर किए जा सकते हैं।5। अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य के माथे पर (नाम की प्राप्ति का लेख) लिखा हो, (उसे नाम गुरु से मिलता है और), गुरु को मिल के उसके रोग काटे जाते हैं।5।17।28। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |