श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 617 सोरठि महला ५ घरु २ दुपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सगल बनसपति महि बैसंतरु सगल दूध महि घीआ ॥ ऊच नीच महि जोति समाणी घटि घटि माधउ जीआ ॥१॥ पद्अर्थ: सगल बनसपति = सारी बनस्पति। बैसंतरु = आग। घीआ = घी। समाणी = समाई हुई है। घटि घटि = हरेक शरीर में। माधउ = माधव, माया का पति, परमात्मा। जीआ = सब जीवों में।1। अर्थ: हे भाई! जैसे सब पौधों में आग (गुप्त रूप में मौजूद) है, जैसे हरेक किस्म के दूध में घी (मक्खन) गुप्त मौजूद है, वैसे अच्छे-बुरे सब जीवों में प्रभु की ज्योति समाई हुई है, परमात्मा हरेक शरीर में है, सब जीवों में है।1। संतहु घटि घटि रहिआ समाहिओ ॥ पूरन पूरि रहिओ सरब महि जलि थलि रमईआ आहिओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रहिआ समाइओ = समा रहा है। पूरन = पूरे तौर पर। जलि = पानी में। आहिओ = है। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा हरेक शरीर में मौजूद है। वह पूरी तरह सारे शरीरों में व्यापक है, वह सुंदर राम पानी में है, धरती में है।1। रहाउ। गुण निधान नानकु जसु गावै सतिगुरि भरमु चुकाइओ ॥ सरब निवासी सदा अलेपा सभ महि रहिआ समाइओ ॥२॥१॥२९॥ नोट: दुपदे = दो पदों वाले, दो बंदों वाले। पद्अर्थ: गुण निधान जसु = गुणों के खजाने प्रभु का यश। सतिगुरि = गुरु ने। भरमु = भुलेखा। चुकाइओ = देर कर दिया है। अलेपा = निर्लिप।2। अर्थ: हे भाई! नानक (उस) गुणों के खजाने परमात्मा की महिमा के गीत गाता है। गुरु ने (नानक का) भुलेखा दूर कर दिया है (तभी तो नानक को यकीन है कि) परमात्मा सब जीवों में बसता है (फिर भी) सदा (माया के मोह से) निर्लिप है, सब जीवों में समा रहा है।2।1।29। सोरठि महला ५ ॥ जा कै सिमरणि होइ अनंदा बिनसै जनम मरण भै दुखी ॥ चारि पदारथ नव निधि पावहि बहुरि न त्रिसना भुखी ॥१॥ पद्अर्थ: जा कै सिमरणि = जिस (प्रभु) के स्मरण से। भै = डर। दुखी = दुख भी। नवनिधि = (धरती के सारे) नौ खजाने। पावहि = तू प्राप्त कर सकता है। बहुरि = दुबारा। त्रिसना = प्यास। भुखी = भूख।1। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु के स्मरण से तू खुशियों भरा जीवन जी सकता है तेरे जनम-मरण के सारे डर और दुख दूर हो सकते हैं, तू (धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष) चारों पदार्थ और दुनिया के नौ के नौ खजाने हासिल कर सकता है, (जिसके स्मरण से) तुझे माया की प्यास भूख फिर नहीं व्यापेगी (उसका स्मरण हरेक सांस के साथ करता रह)।1। जा को नामु लैत तू सुखी ॥ सासि सासि धिआवहु ठाकुर कउ मन तन जीअरे मुखी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = का। सासि सासि = हरेक सांस से। कउ = को। जीअ रे = हे जीव! मुखी = मुखि, मुँह से।1। रहाउ। अर्थ: हे जीव! जिस परमात्मा का नाम स्मरण करने से तू सुखी हो सकता है, उस पालनहार प्रभु को अपने मन से तन से मुँह से हरेक सांस से स्मरण किया कर।1। रहाउ। सांति पावहि होवहि मन सीतल अगनि न अंतरि धुखी ॥ गुर नानक कउ प्रभू दिखाइआ जलि थलि त्रिभवणि रुखी ॥२॥२॥३०॥ पद्अर्थ: होवहि = तू हो जाएगा। अंतरि = (तेरे) अंदर। धुखी = धधकती। गुर = गुरु ने। जलि = जल में। थलि = धरती में। त्रिभवणि = सारे संसार में, तीन भवनों वाले जगत में। रुखी = रुखों में, वृक्षों में।2। अर्थ: (हे भाई! नाम-जपने की इनायत से) तू शांति हासिल कर लेगा, तू अंतरात्मे शीतलता से भर जाएगा, तेरे अंदर तृष्णा की आग नहीं धधकेगी। हे भाई! गुरु ने (मुझे) नानक को वह परमात्मा पानी में धरती में वृक्षों में सारे संसार में बसता दिखा दिया है।2।2।30। सोरठि महला ५ ॥ काम क्रोध लोभ झूठ निंदा इन ते आपि छडावहु ॥ इह भीतर ते इन कउ डारहु आपन निकटि बुलावहु ॥१॥ पद्अर्थ: इन ते = इनसे। इह भीतर ते = इस मन के भीतर से, इस मन में से। डारहु = निकाल के। निकटि = नजदीक।1। अर्थ: हे प्रभु! काम-क्रोध-लोभ-झूठ-निंदा (आदि) इन (सारे विकारों) से तू मुझे स्वयं छुड़ा ले। मेरे इस मन में से इन (विकारों) को निकाल दे, मुझे अपने चरणों में जोड़े रख।1। अपुनी बिधि आपि जनावहु ॥ हरि जन मंगल गावहु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बिधि = युक्ति। अपुनी बिधि = अपनी भक्ति की विधि। जनावहु = सिखा दो। गावहु = गवाओ, प्रेरणा दे कि मैं गा सकूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! अपनी भक्ति की विधि तू मुझे खुद सिखा। मुझे प्रेरणा दे कि कि मैं तेरे संत जनों के साथ मिल के तेरी महिमा के गीत गाया करूँ।1। रहाउ। बिसरु नाही कबहू हीए ते इह बिधि मन महि पावहु ॥ गुरु पूरा भेटिओ वडभागी जन नानक कतहि न धावहु ॥२॥३॥३१॥ पद्अर्थ: कबहू = कभी भी। हीए ते = हृदय में से। बिधि = तरीका। पावहु = पा के। धावहु = दौड़।2। अर्थ: हे प्रभु! मेरे मन में तू ऐसी शिक्षा डाल दे कि मेरे हृदय में से तू कभी ना बिसरे। हे दास नानक! तुझे बड़े भाग्यों से पूरा गुरु मिल गया है, अब तू किसी और की तरफ ना दौड़ता फिर।2।3।31। सोरठि महला ५ ॥ जा कै सिमरणि सभु कछु पाईऐ बिरथी घाल न जाई ॥ तिसु प्रभ तिआगि अवर कत राचहु जो सभ महि रहिआ समाई ॥१॥ पद्अर्थ: जा कै सिमरणि = जिस (प्रभु) के स्मरण से। सभ कछु = हरेक चीज। बिरथी = व्यर्थ। घाल = मेहनत। तिआगि = भुला के। अवर कत = और कहाँ। राचहु = तू मस्त हो रहा है।1। अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु के नाम-जपने की इनायत से हरेक पदार्थ मिल सकता है, (स्मरण की) की हुई मेहनत व्यर्थ नहीं जाती, जो प्रभु सारी सृष्टि में मौजूद है उसे छोड़ के किस तरफ मस्त हो रहे हो?।1। हरि हरि सिमरहु संत गोपाला ॥ साधसंगि मिलि नामु धिआवहु पूरन होवै घाला ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संत = हे संत जनो! गेपाला = सृष्टि को पालने वाला! पूरन = सफल।1। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! सृष्टि के पालनहार को सदा स्मरण करते रहो। साधु-संगत में मिल के प्रभु का नाम स्मरण किया करो, (स्मरण की) मेहनत जरूर सफल हो जाती है।1। रहाउ। सारि समालै निति प्रतिपालै प्रेम सहित गलि लावै ॥ कहु नानक प्रभ तुमरे बिसरत जगत जीवनु कैसे पावै ॥२॥४॥३२॥ पद्अर्थ: सारि = सार ले के। समालै = संभाल करता है। सहित = साथ। गलि = गले से। प्रभ = हे प्रभु! जगत जीवनु = जगत का जीवन, सारे जीवों की जिंदगी का सहारा।2। अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा (सब जीवों की) सार ले के संभाल करता है, सदैव पालना करता है (स्मरण करने वालों को) प्रेम से अपने गले से लगा लेता है। हे नानक! कह: हे प्रभु! तुझे विसार के जीव तुझे कैसे मिल सकता है? और, तू ही सारे जीवों की जिंदगी का सहारा है।2।4।32। सोरठि महला ५ ॥ अबिनासी जीअन को दाता सिमरत सभ मलु खोई ॥ गुण निधान भगतन कउ बरतनि बिरला पावै कोई ॥१॥ पद्अर्थ: जीअन को = सब जीवों का। सभ मलु = सारी मैल। निधान = खजाना। कउ = वास्ते। बरतनि = हर वक्त काम आने वाली चीज।1। नोट: शब्द ‘मलु’ शक्ल से पुलिंग लगता है पर है नहीं। ये स्त्रीलिंग है। देखें गुरबाणी व्याकरण। अर्थ: हे भाई! उस परमात्मा का स्मरण करने से (मन से विकारों की) सारी मैल उतर जाती है जो नाश-रहित है, और, जो सारे जीवों को दातें देने वाला है। वह प्रभु सारे गुणों का खजाना है, भक्तों के वास्ते हर वक्त का सहारा है। पर, कोई विरला मनुष्य ही उसका मिलाप हासिल करता है।1। मेरे मन जपि गुर गोपाल प्रभु सोई ॥ जा की सरणि पइआं सुखु पाईऐ बाहुड़ि दूखु न होई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बाहुड़ि = फिर, दुबारा।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! उस प्रभु को जपा करो जो सबसे बड़ा है, जो सृष्टि को पालने वाला है, और, जिसका आसरा लेने से सुख प्राप्त कर लिया जाता है, फिर कभी दुख नहीं व्याप्ता।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |