श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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वडभागी साधसंगु परापति तिन भेटत दुरमति खोई ॥ तिन की धूरि नानकु दासु बाछै जिन हरि नामु रिदै परोई ॥२॥५॥३३॥

पद्अर्थ: साध संगु = भले लोगों की संगति में। तिन भेटत = उनको मिलने से। दुरमति = खोटी मति। बांछै = मांगता है, चाहता है। जिन = जिन्होंने। रिदै = हृदय में।2।

अर्थ: हे भाई! बड़ी किस्मत से भले मनुष्यों की संगति हासिल होती है, उनको मिलने से खोटी बुद्धि नाश हो जाती है। दास नानक (भी) उनके चरणों की धूल माँगता है, जिन्होंने परमात्मा का नाम अपने हृदय में परो रखा है।2।5।33।

सोरठि महला ५ ॥ जनम जनम के दूख निवारै सूका मनु साधारै ॥ दरसनु भेटत होत निहाला हरि का नामु बीचारै ॥१॥

पद्अर्थ: निवारै = दूर कर देता है। सूका = सूखा हुआ, परमात्मा के प्रेम की हरियाली से वंचित। साधारै = साहारा देता है। भेटत = मिलके, प्राप्त हो के। निहाला = प्रसन्न चिक्त। बीचारै = विचार करता है, सोच मण्डल में बसा लेता है।1।

अर्थ: हे भाई! वैद्य-गुरु (शरण आए मनुष्य के) अनेक जन्मों के दुख दूर कर देता है, आत्मिक जीवन की हरियाली से वंचित उसके मन को (नाम रूपी दवा का) सहारा देता है। गुरु के दर्शन करते ही (मनुष्य) खिल जाता है, और, परमात्मा के नाम को अपने सोच-मण्डल में बसा लेता है।1।

मेरा बैदु गुरू गोविंदा ॥ हरि हरि नामु अउखधु मुखि देवै काटै जम की फंधा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बैदु = हकीम। अउखधु = दवाई। मुखि = मुँह में। फंधा = फंदा, फांसी।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गोबिंद का रूप मेरा गुरु (पूरा) हकीम है। (ये हकीम जिस मनुष्य के) मुँह में हरि-नाम की दवाई डालता है, (उसका) जम का फंदा काट देता है (आत्मिक मौत लाने वाले विकारों के फंदे उसके अंदर से काट देता है)।1। रहाउ।

समरथ पुरख पूरन बिधाते आपे करणैहारा ॥ अपुना दासु हरि आपि उबारिआ नानक नाम अधारा ॥२॥६॥३४॥

पद्अर्थ: समरथ = हे सब ताकतों के मालिक! पुरख = हे सर्व व्यापक! पूरन = हे भरपूर! बिधाते = हे विधाता! आपे = (तू) खुद ही। करणैहारा = (गुरु को) बनाने वाला। उबारिआ = (जम के फंदे से) उबार लिया, बचा लिया। अधारा = आसरा।2।

अर्थ: हे नानक! (कह:) हे सब ताकतों के मालिक! हे सर्व-व्यापक! हे भरपूर! हे सब जीवों के पैदा करने वाले! तू खुद ही (गुरु को पूरा वैद्य) बनाने वाला है। अपने सेवक को (वैद्य-गुरु से) नाम का आसरा दिलवा के तू खुद ही (जम के फंदे से) बचा लेता है।2।6।34।

सोरठि महला ५ ॥ अंतर की गति तुम ही जानी तुझ ही पाहि निबेरो ॥ बखसि लैहु साहिब प्रभ अपने लाख खते करि फेरो ॥१॥

पद्अर्थ: गति = आत्मिक अवस्था। पाहि = पास। निबेरो = निबेड़ा, फैसला। साहिब = हे मालिक! खते = पाप। करि फेरो = करता फिरता हूँ।1।

अर्थ: हे मेरे अपने मालिक प्रभु! मेरे दिल की हालत तू ही जानता है, तेरी शरण पड़ कर ही (मेरी अंदरूनी खराब हालत का) खात्मा हो सकता है। मैं लाखों पाप करता फिरता हूँ। हे मेरे मालिक! मुझे बख्श ले।1।

प्रभ जी तू मेरो ठाकुरु नेरो ॥ हरि चरण सरण मोहि चेरो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ठाकुरु = पालनहार। नेरो = नजदीक, अंग संग। मोहि = मुझे। चेरो = चेरा, दास।1। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु जी! तू मेरा पालनहारा मालिक है, मेरे अंग-संग बसता है। हे हरि! मुझे अपने चरणों की शरण में रख, मुझे अपना दास बनाए रख।1। रहाउ।

बेसुमार बेअंत सुआमी ऊचो गुनी गहेरो ॥ काटि सिलक कीनो अपुनो दासरो तउ नानक कहा निहोरो ॥२॥७॥३५॥

पद्अर्थ: सुआमी = हे मालिक! गुनी = गुणों का मालिक! गहेरा = गहरा। सिलक = फंदा। दासरो = तुच्छ सा दास। तउ = तब। निहोरो = अधीनता।2।

अर्थ: हे बेशुमार प्रभु! हे बेअंत! हे मेरे मालिक! तू ऊँची आत्मिक अवस्था वाला है, तू सारे गुणों का मालिक है, तू गहरा है। हे नानक! (कह: हे प्रभु! जब तू किसी मनुष्य के विकारों के) फंदे काट के उसको अपना दास बना लेता है, तब उसे किसी की अधीनता नहीं रहती।2।7।35।

सोरठि मः ५ ॥ भए क्रिपाल गुरू गोविंदा सगल मनोरथ पाए ॥ असथिर भए लागि हरि चरणी गोविंद के गुण गाए ॥१॥

पद्अर्थ: क्रिपाल = दयावान। गोविंदा = परमात्मा। सगल = सारे। मनोरथ = मन की मुरादें। असथिर = अडोल। गाए = गा के।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा का रूप गुरु दयावान होता है, उसके मन की सारी मुरादें पूरी हो जाती हैं (क्योंकि) परमात्मा के महिमा के गीत गा गा के प्रभु चरणों में लगन लगा के वह मनुष्य (माया के हमलों के आगे) नहीं डोलता।1।

भलो समूरतु पूरा ॥ सांति सहज आनंद नामु जपि वाजे अनहद तूरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भलो = अच्छा। पूरा = शुभ। स मूरतु = वह समय। सहज = आत्मिक अडोलता। जपि = जप के। वाजे = बज पड़े। अनहद = बिना बजाए, एक रस। तूरा = बाजा।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई! मनुष्य के जीवन में) वह समय सुहाना होता है, जब परमात्मा का नाम जप के उसके अंदर शांति, आत्मिक अडोलता, आनंद के एक-रस बाजे बजते हैं।1। रहाउ।

मिले सुआमी प्रीतम अपुने घर मंदर सुखदाई ॥ हरि नामु निधानु नानक जन पाइआ सगली इछ पुजाई ॥२॥८॥३६॥

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। पुजाई = पूरी हो गई।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को अपने मालिक प्रीतम प्रभु जी मिल जाते हैं, उसे ये घर-घाट सुख देने वाले प्रतीत होते हैं। हे दास नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम खजाना पा लिया, उसकी हरेक मनोकामना पूरी हो जाती है।2।8।36।

सोरठि महला ५ ॥ गुर के चरन बसे रिद भीतरि सुभ लखण प्रभि कीने ॥ भए क्रिपाल पूरन परमेसर नाम निधान मनि चीने ॥१॥

पद्अर्थ: रिद भीतरि = हृदय में। सुभ लखण = सफलता देने वाले लक्षण। प्रभि = प्रभु ने। मनि = मन में। चीने = पहचान लिए।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के हृदय में गुरु के चरण बस गए, प्रभु ने (उसकी जिंदगी में) सफलता पैदा करने वाले लक्षण पैदा कर दिए। सर्व-व्यापक प्रभु जी जिस मनुष्य पर दयावान हो गए, उस मनुष्य ने परमात्मा के नाम के खजाने अपने मन में (टिके हुए) पहचान लिए।1।

मेरो गुरु रखवारो मीत ॥ दूण चऊणी दे वडिआई सोभा नीता नीत ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मेरो = मेरा। रखवारो = रखवाला। चऊणी = चौगुनी। दे = देता है। नीता नीत = रोजाना, सदा ही।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु मेरा रखवाला है मेरा मित्र है, (प्रभु का नाम दे के, मुझे) वह बड़ाई बख्शता है जो दुगनी-चौगुनी हो जाती है (सदैव बढ़ती जाती है), मुझे सदा शोभा दिलवाता है।1। रहाउ।

जीअ जंत प्रभि सगल उधारे दरसनु देखणहारे ॥ गुर पूरे की अचरज वडिआई नानक सद बलिहारे ॥२॥९॥३७॥

पद्अर्थ: जीअ जंत सगले = सारे ही जीव। प्रभि = प्रभु ने। देखणहारे = देखने वाले। अचरज = हैरान कर देने वाली। वडिआई = बड़ा दर्जा। सद = सदा। बलिहारे = कुर्बान।2।

अर्थ: हे भाई! गुरु के दर्शन करने वाले सारे मनुष्यों को प्रभु ने (विकारों से) बचा लिया। पूरे गुरु का इतना बड़ा दर्जा है कि (देख के) हैरान हो जाते हैं। हे नानक! (कह: मैं गुरु से) सदा कुर्बान जाता हूँ।2।9।37।

सोरठि महला ५ ॥ संचनि करउ नाम धनु निरमल थाती अगम अपार ॥ बिलछि बिनोद आनंद सुख माणहु खाइ जीवहु सिख परवार ॥१॥

पद्अर्थ: संचनि करउ = (करूँ) मैं इकट्ठा करता हूँ। नाम धनु निरमल = निर्मल नाम धन, प्रभु के पवित्र नाम का धन। थाती = (स्थिति) टिकाव। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपार = बेअंत। बिलछि = (विलस्य) प्रसन्न हो के। बिनोद = (आत्मिक) चोज तमाशे। जीवहु = आत्मिक जीवन प्राप्त करो। सिख परवार = हे (गुरु के) सिख परिवार!।1।

अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से) मैं परमात्मा के पवित्र नाम का धन इकट्ठा कर रहा हूँ (जहाँ ये धन एकत्र किया जाए, वहाँ) अगम्य (पहुँच से परे) और बेअंत प्रभु का निवास हो जाता है। हे (गुरु के) सिख परिवार! (हे गुरसिखो!) तुम भी (आत्मिक जीवन वास्ते ये नाम-भोजन) खा के आत्मिक जीवन हासिल करो, खुश हो के आत्मिक चोज आनंद लिया करो।1।

हरि के चरन कमल आधार ॥ संत प्रसादि पाइओ सच बोहिथु चड़ि लंघउ बिखु संसार ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: आधार = आसरा। संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। सच = सदा कायम रहने वाला। बोहिथु = जहाज़। चढ़ि = चढ़ के। लंघउ = पार होऊँ। बिखु = जहर।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के कोमल चरणों को (मैंने अपनी जिंदगी का) आसरा (बना लिया है)। गुरु की कृपा से मैं सदा-स्थिर प्रभु का नाम-जहाज़ पा लिया है, (उसमें) चढ़ के मैं (आत्मिक मौत लाने वाले विकारों के) ज़हर भरे संसार समुंदर से पार लांघ रहा हूँ।1। रहाउ।

भए क्रिपाल पूरन अबिनासी आपहि कीनी सार ॥ पेखि पेखि नानक बिगसानो नानक नाही सुमार ॥२॥१०॥३८॥

पद्अर्थ: आपहि = खुद ही। सार = संभाल। पेखि = देख के। नानकु बिगसानो = नानक खुश हो रहा है। नानक = हे नानक! सुमार = शुमारी, गिनती, लेखा।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर सर्व-व्यापक अविनाशी प्रभु जी दयावान होते हैं, उसकी संभाल आप ही करते हैं। नानक (उसका ये करिश्मा) देख देख के खुश हो रहा है। हे नानक! (सेवक की संभाल करने की प्रभु की दया का) अंदाजा नहीं लगाया जा सकता।2।10।38।

सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै अपनी कल धारी सभ घट उपजी दइआ ॥ आपे मेलि वडाई कीनी कुसल खेम सभ भइआ ॥१॥

पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। कल = कला, सत्ता, ताकत। सभ घट = सारे शरीरों के लिए। उपजी = पैदा हो गई है। आपे = आप ही। मेलि = (प्रभु के चरणों में) मिला के। वडाई = ऊँचा आत्मिक दर्जा। कुसल खेम = खुशी प्रसन्नता।1।

अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु ने (मेरे अंदर) अपनी (ऐसी) ताकत भर दी है (कि मेरे अंदर) सब जीवों के लिए प्यार पैदा हो गया है। (गुरु ने) खुद ही (मुझे प्रभु चरणों में) जोड़ के (मुझको) आत्मिक उच्चता बख्शी है, (अब मेरे अंदर) आनंद ही आनंद बना रहता है।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh