श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 619 सतिगुरु पूरा मेरै नालि ॥ पारब्रहमु जपि सदा निहाल ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जपि = जप के। निहाल = प्रसन्न चिक्त। रहाउ। अर्थ: हे भाई! पूरा गुरु (हर वक्त) मेरे साथ (मेरी सहायता करने वाला) है। (उसकी मेहर से) परमात्मा का नाम जप के मैं सदा प्रसन्न-चित्त रहता हूँ। रहाउ। अंतरि बाहरि थान थनंतरि जत कत पेखउ सोई ॥ नानक गुरु पाइओ वडभागी तिसु जेवडु अवरु न कोई ॥२॥११॥३९॥ पद्अर्थ: थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हर जगह में। जत कत = जहाँ कहाँ। पेखउ = मैं देखूँ। सोई = वह (परमात्मा) ही। जेवडु = जितना, बराबर का। अवरु = और।2। अर्थ: हे भाई! अब अपने अंदर और बाहर (सारे जगत में), हर जगह में, मैं जहाँ भी देखता हूँ उस परमात्मा को ही (बसता देखता हूँ)। हे नानक! (मुझे) बड़े भाग्यों से गुरु मिला है (ऐसी दाति बख्शिश कर सकने वाला) गुरु के बराबर का और कोई नहीं है।2।11।39। सोरठि महला ५ ॥ सूख मंगल कलिआण सहज धुनि प्रभ के चरण निहारिआ ॥ राखनहारै राखिओ बारिकु सतिगुरि तापु उतारिआ ॥१॥ पद्अर्थ: मंगल = खुशियां। कलिआण = सुख। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की लहर। निहारिआ = देखे। राखनहारै = रक्षा करने की सामर्थ्य वाले ने। सतिगुरु ने।1। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण आ पड़ा) गुरु ने उसका ताप (दुख-कष्ट) उतार दिया, रक्षा करने की सामर्थ्य वाले गुरु ने उस बालक को (विघनों से) बचा लिया (उसे यूँ बचाया जैसे पिता अपने पुत्र की रक्षा करता है)। (गुरु की शरण पड़ के जिस मनुष्य ने) परमात्मा के चरणों के दर्शन कर लिए, उसके अंदर सुख-खुशी-आनंद और आत्मिक अडोलता की लहर चल पड़ी।1। उबरे सतिगुर की सरणाई ॥ जा की सेव न बिरथी जाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: उबरे = बच गए। जा की = जिस (गुरु) की। बिरथी = व्यर्थ, ख़ाली। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस गुरु की की हुई सेवा ख़ाली नहीं जाती, उस गुरु की शरण जो मनुष्य पड़ते हैं वह (आत्मिक जीवन के रास्ते में आने वाली रुकावटों से) बच जाते हैं। रहाउ। घर महि सूख बाहरि फुनि सूखा प्रभ अपुने भए दइआला ॥ नानक बिघनु न लागै कोऊ मेरा प्रभु होआ किरपाला ॥२॥१२॥४०॥ पद्अर्थ: घर महि = हृदय में। फुनि = भी। बिघनु = रुकावट।2। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है उसके) हृदय में आत्मिक आनंद बना रहता है, बाहर (दुनिया से बर्ताव-व्यवहार करते हुए) भी उसे आत्मिक सुख मिला रहता है, उस पर प्रभु सदा दयावान रहता है। हे नानक! उस मनुष्य की जिंदगी के रास्ते में कोई रुकावट नहीं आती, उस पर परमात्मा कृपालु हुआ रहता है।2।12।40। सोरठि महला ५ ॥ साधू संगि भइआ मनि उदमु नामु रतनु जसु गाई ॥ मिटि गई चिंता सिमरि अनंता सागरु तरिआ भाई ॥१॥ पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। मनि = मन में। जसु = महिमा के गीत। गाई = गाए, गाने लग पड़ता है। सिमरि = स्मरण करके। अनंता = बेअंत प्रभु। सागरु = समुंदर। भाई = हे भाई!।1। अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में रहने से मन में उद्यम पैदा होता है, (मनुष्य) श्रेष्ठ नाम जपने लग जाता है, परमात्मा की महिमा के गीत गाने लग पड़ता है। बेअंत प्रभु का स्मरण करके मनुष्य की चिन्ता मिट जाती है, मनुष्य संसार समुंदर से पार लांघ जाता है।1। हिरदै हरि के चरण वसाई ॥ सुखु पाइआ सहज धुनि उपजी रोगा घाणि मिटाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। वसाई = बसा के टिका के। सहज धुनि = आत्मिक अडोलता की लहर। घाणि = घाणी, ढेर। रहाउ। अर्थ: हे भाई! अपने हृदय में परमात्मा के चरण टिकाए रख (विनम्रता में रह के परमात्मा का स्मरण किया कर)। (जिसने भी ये उद्यम किया है, उसने) आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया, (उसके अंदर) आत्मिक अडोलता की लहर पैदा हो गई, (उसने अपने अंदर से) रोगों के ढेर मिटा लिए। रहाउ। किआ गुण तेरे आखि वखाणा कीमति कहणु न जाई ॥ नानक भगत भए अबिनासी अपुना प्रभु भइआ सहाई ॥२॥१३॥४१॥ नोट: ‘इया’ का उच्चारण ‘या’ व ‘यआ’ करना है जैसे ‘भइआ’ को ‘भया’। पद्अर्थ: आखि = कह के। वखाणा = कहूँ। अबिनासी = नाश रहित, आत्मिक मौत से रहित। अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे कौन-कौन से गुण बयान करके बताऊँ? तेरा मूल्य बताया नहीं जा सकता (तू किसी दुनियावी पर्दाथ के बदले में नहीं मिल सकता)। हे नानक! प्यारा प्रभु जिस मनुष्यों का मददगार बनता है, वह भक्त-जन आत्मिक मौत से रहित हो जाते हैं।2।13।41। सोरठि मः ५ ॥ गए कलेस रोग सभि नासे प्रभि अपुनै किरपा धारी ॥ आठ पहर आराधहु सुआमी पूरन घाल हमारी ॥१॥ पद्अर्थ: कलेस = मानसिक दुख। सभि = सारे। प्रभि = प्रभु ने। आठ पहर = सदा, हर वक्त। घाल = मेहनत। हमारी = हम जीवों की।1। अर्थ: हे भाई! जिस भी मनुष्य पर प्यारे प्रभु ने मेहर की उसके सारे कष्ट और रोग दूर हो गए। (हे भाई!) मालिक प्रभु को आठों पहर याद करते रहा करो, हम जीवों की (ये) मेहनत (अवश्य) सफल होती है।1। हरि जीउ तू सुख स्मपति रासि ॥ राखि लैहु भाई मेरे कउ प्रभ आगै अरदासि ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संपति = धन। रासि = राशि, संपत्ति, धन-दौलत। भाई = हे भाई! हे प्रभु। मेरे कउ = मुझे। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! तू ही मुझे आत्मिक आनंद की धन-संपत्ति देने वाला है। हे प्रभु! मुझे (कष्टों-अंदेशों से) बचा ले। हे प्रभु! मेरी तेरे आगे यही आरजू है। रहाउ। जो मागउ सोई सोई पावउ अपने खसम भरोसा ॥ कहु नानक गुरु पूरा भेटिओ मिटिओ सगल अंदेसा ॥२॥१४॥४२॥ पद्अर्थ: मागउ = मागूँ। पावउ = प्राप्त कर लेता हूँ। भरोसा = सहारा।2। अर्थ: हे भाई! मैं तो जो कुछ (प्रभु से) माँगता हूँ, वही कुछ प्राप्त कर लेता हूँ। मुझे अपने मालिक प्रभु पर (पूरा) ऐतबार (बन चुका) है। हे नानक! कह: जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल जाता है, उसकी सारी चिन्ता-फिक्र दूर हो जाती हैं।2।14।42। सोरठि महला ५ ॥ सिमरि सिमरि गुरु सतिगुरु अपना सगला दूखु मिटाइआ ॥ ताप रोग गए गुर बचनी मन इछे फल पाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: सिमरि सिमरि = बार बार याद करके। सगला = सारा। गुर बचनी = गुरु के वचन पर चल के।1। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है, वह) बार बार गुरु सतिगुरु (की वाणी) को याद करके अपना हरेक किस्म का दुख दूर कर लेता है। गुरु के वचन पर चल के उसके सारे कष्ट, सारे रोग दूर हो जाते हैं, वह मन-मांगे फल प्राप्त कर लेता है।1। मेरा गुरु पूरा सुखदाता ॥ करण कारण समरथ सुआमी पूरन पुरखु बिधाता ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करण कारण = जगत का मूल। समरथ = सारी ताकतों का मालिक। बिधाता = विधाता। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मेरा गुरु सब गुणों से भरपूर है, सारे सुख बख्शने वाला है। गुरु उस सर्व-व्यापक विधाता का रूप है जो सारे जगत का मूल है, जो सब ताकतों का मालिक है। रहाउ। अनंद बिनोद मंगल गुण गावहु गुर नानक भए दइआला ॥ जै जै कार भए जग भीतरि होआ पारब्रहमु रखवाला ॥२॥१५॥४३॥ पद्अर्थ: बिनोद = कौतक, तमाशे, खुशियां। जै जै कार = शोभा। भीतरि = में।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! अगर तेरे पर) सतिगुरु जी दयावान हुए हैं, तो तू प्रभु की महिमा के गीत गाता रहा कर, (महिमा की इनायत से तेरे अंदर) आनंद-खुशियां व सुख बने रहेंगे। (महिमा के सदके) जगत में शोभा मिलती है। (ये निष्चय बना रहता है कि) परमात्मा (सदा सिर पर) रखवाला है।2।15।43। सोरठि महला ५ ॥ हमरी गणत न गणीआ काई अपणा बिरदु पछाणि ॥ हाथ देइ राखे करि अपुने सदा सदा रंगु माणि ॥१॥ पद्अर्थ: हमरी = हम जीवों की। गणत = किए कर्मों का हिसाब-किताब। न गणीआ = नहीं गिनता। काई गणत = कोई भी लेखा। बिरदु = प्राकृतिक (प्यार वाला) स्वभाव। पछाणि = पहचानता है, याद रखता है। देइ = दे के। राखे = (कुकर्मों से) बचाए रखता है। माणि = माणता है, भोगता है।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा हम जीवों के किए बुरे कर्मों का कोई ख्याल नहीं करता। वह अपने मूल (प्यार भरे) स्वभाव (बिरद) को याद रखता है (वह बल्कि, हमें गुरु से मिलवा के, हमें) अपने बना के (अपना) हाथ दे के (हमें विकारों से) बचाता है। (जिस भाग्यशाली को गुरु मिल जाता है, वह) सदा ही आत्मिक आनंद लेता है।1। साचा साहिबु सद मिहरवाण ॥ बंधु पाइआ मेरै सतिगुरि पूरै होई सरब कलिआण ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साचा = सदा कायम रहने वाला। सद = सदा। बंधु = रोक, बंधन, (कुकर्मों के राह में) रुकावट। सतिगुरि = गुरु ने। कलिआण = (आत्मिक) सुख। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सदा कायम रहने वाला मालिक प्रभु सदा दयावान रहता है, (कुकर्मों की ओर जा रहे लोगों को बचा के वह गुरु से मिलाता है। जिसे पूरा गुरु मिल गया, उसके विकारों के रास्ते में) मेरे पूरे गुरु ने रुकावट खड़ी कर दी (और, इस तरह उसके अंदर) सारे आत्मिक आनंद पैदा हो गए। रहाउ। जीउ पाइ पिंडु जिनि साजिआ दिता पैनणु खाणु ॥ अपणे दास की आपि पैज राखी नानक सद कुरबाणु ॥२॥१६॥४४॥ पद्अर्थ: जीउ = जिंद। पाइ = पा के। पिंडु = शरीर। जिन = जिस (प्रभु) ने। सजाइआ = पैदा किया। पैज = इज्जत। सद = सदा।2। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा ने प्राण डाल के (हमारा) शरीर पैदा किया है, जो (हर वक्त) हमें खुराक और पोशाक दे रहा है, वह परमात्मा (संसार समुंदर की विकार-लहरों से) अपने सेवक की इज्जत (गुरु को मिला के) बचाता है। हे नानक! (कह: मैं उस परमात्मा से) सदा सदके जाता हूँ।2।16।44। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |