श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 621 हलतु पलतु प्रभ दोवै सवारे हमरा गुणु अवगुणु न बीचारिआ ॥ अटल बचनु नानक गुर तेरा सफल करु मसतकि धारिआ ॥२॥२१॥४९॥ पद्अर्थ: हलतु = (अत्र) ये लोक। पलतु = (परत्र) परलोक। हमरा = हम जीवों का। अटल = कभी ना टलने वाला। नानक = हे नानक! गुर = हे गुरु! सफल = फल देने वाला, बरकत वाला। करु = हाथ। मसतकि = माथे पर।2। अर्थ: (हे भाई! जो भी मनुष्य प्रभु का पल्लू पकड़ के रखता है, उसका) ये लोक और परलोक दोनों ही परमात्मा सवार देता है, हम जीवों का कोई गुण अथवा अवगुण परमात्मा चिक्त में नहीं रखता। हे नानक! (कह:) हे गुरु! तेरा (ये) वचन कभी टलने वाला नहीं (कि परमात्मा ही जीव का लोक-परलोक में रक्षक है)। हे गुरु! तू अपना बरकत भरा हाथ (हम जीवों के) माथे पर रखता है।2।21।49। सोरठि महला ५ ॥ जीअ जंत्र सभि तिस के कीए सोई संत सहाई ॥ अपुने सेवक की आपे राखै पूरन भई बडाई ॥१॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। सोई = वह (प्रभु) ही। सहाई = मददगार। आपो = खुद ही। बडाई = इज्जत।1। नोट: ‘तिस के’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! सारे जीव उस (परमात्मा) के ही पैदा किए हुए हैं; वह परमात्मा ही संत जनों का मददगार रहता है। अपने सेवक की (इज्जत) परमात्मा खुद ही रखता है (उसकी कृपा से ही सेवक की) इज्जत पूरे तौर पर बनी रहती है।1। पारब्रहमु पूरा मेरै नालि ॥ गुरि पूरै पूरी सभ राखी होए सरब दइआल ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुरि पूरे = पूरे गुरु ने। सरब = सब पर। रहाउ। अर्थ: हे भाई! पूर्ण-परमात्मा (सदा) मेरे अंग-संग (मददगार) है। पूरे गुरु ने अच्छी तरह मेरी (इज्जत) रख ली है। गुरु सारे जीवों पर ही दयावान रहता है।1। रहाउ। अनदिनु नानकु नामु धिआए जीअ प्रान का दाता ॥ अपुने दास कउ कंठि लाइ राखै जिउ बारिक पित माता ॥२॥२२॥५०॥ पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। नानकु धिआए = नानक ध्याता है। जीअ का दाता = जीवन देने वाला। कउ = को। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। पित = पिता।2। अर्थ: हे भाई! नानक (तो उस परमात्मा का) नाम हर वक्त स्मरण करता रहता है जो जीवन देने वाला है जो सांसें देने वाला है। हे भाई! जैसे माता-पिता अपने बच्चों का ध्यान रखते हैं, वैसे ही परमात्मा अपने सेवक को (अपने) गले से लगा के रखता है।2।22।50। सोरठि महला ५ घरु ३ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मिलि पंचहु नही सहसा चुकाइआ ॥ सिकदारहु नह पतीआइआ ॥ उमरावहु आगै झेरा ॥ मिलि राजन राम निबेरा ॥१॥ पद्अर्थ: मिलि = मिल के (शब्द ‘मिलि’ और आखिरी तुक के शब्द ‘मिलु’ का फर्क ध्यान से देखें)। मिलि पंचहु = (नगर के) पँचों को मिल के। सहसा = (कामादिक वैरियों में पड़ रहा) सहम। चुकाइआ = खत्म किया। सिकदारहु = सरदारों से। पतीआइआ = पतीज सका। उमरावहु आगै = सरकारी हाकिमों के सामने। झेरा = झगड़ा। राजन राम = प्रभु पातशाह। निबेरा = निबेड़ा, फैसला।1। अर्थ: हे भाई! नगर के पँचों को मिल के (कामादिक वैरियों पर पड़ रहा) सहम दूर नहीं किया जा सकता। सिकदारों (आगुओं), लोगों से भी तसल्ली नहीं मिल सकती (कि ये वैरी तंग नहीं करेंगे) सरकारी हाकिमों के आगे भी ये झगड़ा (पेश करने से कुछ नहीं बनता) प्रभु पातशह को मिल के फैसला हो जाता है (और, कामादिक वैरियों का डर खत्म हो जाता है)।1। अब ढूढन कतहु न जाई ॥ गोबिद भेटे गुर गोसाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कतहु = कहीं भी। भेटे = मिल गए। गोसाई = धरती का मालिक। रहाउ। अर्थ: जब गोबिंद को, गुरु को सृष्टि के पति को मिल पड़ें, तो अब (कामादिक वैरियों को पड़ रहे सहम से बचने के लिए) किसी और जगह (आसरा) तलाशने की जरूरत नहीं रह गई। रहाउ। आइआ प्रभ दरबारा ॥ ता सगली मिटी पूकारा ॥ लबधि आपणी पाई ॥ ता कत आवै कत जाई ॥२॥ पद्अर्थ: पूकारा = (कामादिक वैरियों के बिरुद्ध) शिकायत। लबधि = जिस चीज की प्राप्ति करने की जरूरत थी। कत = कहाँ? ता = तब।2। अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य प्रभु की हजूरी में पहुँचता है (चिक्त जोड़ता है), तब इसकी (कामादिक वैरियों के विरुद्ध) सारी शिकायत समाप्त हो जाती है। तब मनुष्य वह वस्तु हासिल कर लेता है जो सदा इसकी अपनी ही बनी रहती है, तब विकारों के चक्कर में पड़ के भटकने से बच जाता है।2। तह साच निआइ निबेरा ॥ ऊहा सम ठाकुरु सम चेरा ॥ अंतरजामी जानै ॥ बिनु बोलत आपि पछानै ॥३॥ पद्अर्थ: तह = वहाँ, प्रभु के दरबार में। साच निआइ = सदा कायम रहने वाले न्याय के अनुसार। सम = बराबर। ठाकुरु = मालिक। चेरा = नौकर। अंतरजामी = हरेक दिल की जानने वाला।3। अर्थ: हे भाई! प्रभु की हजूरी में सदा कायम रहने वाले न्याय के अनुसार (कामादिक आदि के साथ हो रही टक्कर का) फैसला हो जाता है। उस दरगाह में (जुल्म करने वालों का कोई लिहाज नहीं किया जाता) मालिक और नौकर को एक समान ही समझा जाता है। हरेक के दिल की जानने वाला प्रभु (हजूरी में पहुँचे हुए सवालिए के दिल की) जानता है, (उसके) बोले बिना वह प्रभु स्वयं (उसके दिल की पीड़ा को) समझ लेता है।3। सरब थान को राजा ॥ तह अनहद सबद अगाजा ॥ तिसु पहि किआ चतुराई ॥ मिलु नानक आपु गवाई ॥४॥१॥५१॥ पद्अर्थ: को = का। तह = वहाँ, ‘सरब थान को राजा’ से मेल अवस्था में। अनहद = एक रस, बिना बजाए, लगातार। सबद = महिमा की वाणी। अगाजा = गज गई, पूरा प्रभाव डालती है। पहि = पास। आपु = स्वै भाव। गवाई = गवा के।4। अर्थ: हे भाई! प्रभु सब जगहों का मालिक है, उससे मिलाप-अवस्था में मनुष्य के अंदर प्रभु की महिमा की वाणी एक-रस पूरा प्रभाव डाल लेती है (और, मनुष्य पर कामादिक वैरी अपना जोर नहीं डाल सकते)। (पर, हे भाई! उससे मिलने के लिए) उसके साथ कोई चालाकी नहीं की जा सकती। हे नानक! (कह: हे भाई! अगर उससे मिलना है तो) स्वै भाव गवा के (उसको) मिल।4।1।51। नोट: यहाँ से ‘घरु ३’ के शब्द शुरू हुए है। आखिर का अंक १ यही बताता है। सोरठि महला ५ ॥ हिरदै नामु वसाइहु ॥ घरि बैठे गुरू धिआइहु ॥ गुरि पूरै सचु कहिआ ॥ सो सुखु साचा लहिआ ॥१॥ पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। घरि = घर में, हृदय में, अंतरात्मे। बैठे = टिक के। गुरि = गुरु ने। सचु = सदा स्थिर हरि नाम (का स्मरण)। लहिआ = पाया। साचा = सदा कायम रहने वाला।1। अर्थ: हे भाई! अपने दिल में परमात्मा का नाम बसाए रखो। अंतरात्मे टिक के गुरु का ध्यान धरा करो। जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने सदा-स्थिर हरि-नाम (के स्मरण) का उपदेश दिया, उसने वह आत्मिक आनंद पा लिया जो सदा कायम रहता है।1। अपुना होइओ गुरु मिहरवाना ॥ अनद सूख कलिआण मंगल सिउ घरि आए करि इसनाना ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कलिआण = ख़ैरियत। सिउ = साथ। घरि = घर में, दिल में, अंतरात्मे। करि इसनान = स्नान कर के, आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल में चुभी लगा के, नाम जल से मन को पवित्र करके। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों पर प्यारा गुरु दयावान होता है, वह मनुष्य नाम-जल से मन को पवित्र करके आत्मिक आनंद सुख खुशियों से भरपूर हो के अंतरात्मे टिक जाते हैं (विकार आदि से भटकना हट जाती है)। रहाउ। साची गुर वडिआई ॥ ता की कीमति कहणु न जाई ॥ सिरि साहा पातिसाहा ॥ गुर भेटत मनि ओमाहा ॥२॥ पद्अर्थ: वडिआई = आत्मिक उच्चता। साची = सदा स्थिर रहने वाली। सिरि = सिर पर। गुर भेटत = गुरु को मिलते हुए। मनि = मन में। ओमाहा = उत्साह।2। अर्थ: हे भाई! गुरु की आत्मिक उच्चता सदा स्थिर रहने वाली है, उसकी कद्र-कीमत बताई नहीं जा सकती। गुरु (दुनिया के) शाहों के सिर पर पातशाह है। गुरु को मिल के मन में (हरि नाम स्मरण का) चाव पैदा हो जाता है।2। सगल पराछत लाथे ॥ मिलि साधसंगति कै साथे ॥ गुण निधान हरि नामा ॥ जपि पूरन होए कामा ॥३॥ पद्अर्थ: सगल = सारे। पराछत = पाप। मिलि = मिल के। साथे = साथ में। निधान = खजाने।3। अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में मिल के सारे पाप उतर जाते हैं, (गुरु की संगति की इनायत से) सारे गुणों के खजाने हरि नाम को जप जप के (जिंदगी के) सारे उद्देश्य सफल हो जाते हैं।3। गुरि कीनो मुकति दुआरा ॥ सभ स्रिसटि करै जैकारा ॥ नानक प्रभु मेरै साथे ॥ जनम मरण भै लाथे ॥४॥२॥५२॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। कीनो = बना दिया। मुकति दुआरा = पापों से खलासी करने का दरवाजा। जैकारा = शोभा। भै = डर।4। नोट: ‘भै’ है ‘भउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! गुरु ने (हरि-नाम स्मरण का एक ऐसा) दरवाजा तैयार कर दिया है (जो विकारों से) खलासी (करा देता है)। (गुरु की इस दाति के कारण) सारी सृष्टि (गुरु की) शोभा करती है। हे नानक! (कह: गुरु की कृपा से हरि का नाम हृदय में बसाने से) परमात्मा मेरे अंग-संग (बसता प्रतीत हो रहा है) मेरे जनम-मरण के सारे डर उतर गए हैं।4।2।52। सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै किरपा धारी ॥ प्रभि पूरी लोच हमारी ॥ करि इसनानु ग्रिहि आए ॥ अनद मंगल सुख पाए ॥१॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। प्रभि = प्रभु ने। लोच = तमन्ना। करि इसनानु = मन को नाम जल के साथ पवित्र कर के। ग्रिहि आए = अंरात्मे टिक गए हैं, माया की खातिर भटकना से बच गए हैं।1। अर्थ: (हे संत जनो! जब से) पूरे गुरु ने मेहर की है, प्रभु ने हमारी (नाम स्मरण की) तमन्ना पूरी कर दी है। (नाम जपने की इनायत से) आत्मिक स्नान करके हम अंतरात्मे टिके रहते हैं। आत्मिक आनंद आत्मिक खुशियां आत्मिक सुख भोग रहे हैं।1। संतहु राम नामि निसतरीऐ ॥ ऊठत बैठत हरि हरि धिआईऐ अनदिनु सुक्रितु करीऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नामि = नाम में (जुड़ के ही)। निसतरीऐ = पार लांघा जा सकता है। धिआईऐ = ध्यान धरना चाहिए। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। सुक्रितु = नेक कर्म। करीऐ = करना चाहिए।1। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा के नाम में (जुड़ने से ही संसार समुंदर से) पार लांघा जा सकता है। (इस वास्ते) उठते-बैठते हर वक्त नाम स्मरण करना चाहिए, (हरि-नाम जपने की ये) नेक कमाई हर समय करनी चाहिए।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |