श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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संत का मारगु धरम की पउड़ी को वडभागी पाए ॥ कोटि जनम के किलबिख नासे हरि चरणी चितु लाए ॥२॥

पद्अर्थ: मारगु = (जीवन का) रास्ता। को = कोई विरला। कोटि = करोड़ों। किलबिख = पाप।2।

अर्थ: (हे संत जनो! स्मरण करना ही मनुष्य के लिए) गुरु का (बताया हुआ सही) रास्ता है, (स्मरण ही) धर्म की सीढ़ी है (जिसके द्वारा मनुष्य प्रभु-चरणों में पहुँच सकता है, पर) कोई दुर्लभ भाग्यशाली ही (ये सीढ़ी) पाता है। जो मनुष्य (स्मरण के द्वारा) परमात्मा के चरणों में चिक्त जोड़ता है, उसके करोड़ों जन्मों के पाप नाश हो जाते हैं।2।

उसतति करहु सदा प्रभ अपने जिनि पूरी कल राखी ॥ जीअ जंत सभि भए पवित्रा सतिगुर की सचु साखी ॥३॥

पद्अर्थ: उसतति = महिमा। जिनि = जिस (प्रभु) ने। कल = कला, ताकत। सभि = सारे। साखी = शिक्षा। सचु = सदा स्थिर हरि नाम (का स्मरण)।3।

अर्थ: हे संत जनो! जिस परमात्मा ने (सारे संसार में अपनी) पूरी सत्ता टिका रखी है, उसकी महिमा सदा करते रहा करो। हे भाई! वह सारे ही प्राणी स्वच्छ जीवन वाले बन जाते हैं, जो सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण वाली गुरु की शिक्षा को ग्रहण करते हैं।3।

बिघन बिनासन सभि दुख नासन सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ ॥ खोए पाप भए सभि पावन जन नानक सुखि घरि आइआ ॥४॥३॥५३॥

पद्अर्थ: सतिगुरि = गुरु ने। द्रिड़ाइआ = दिल में पक्का कर दिया। सभि = सारे। पावन = पवित्र। सुखि = आनंद से। घरि = घर में, दिल में, अंतरात्मे।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: जीवन के राह में से सारी) रुकावटें दूर करने वाला, सारे दुख नाश करने वाला हरि-नाम गुरु ने जिस लोगों के दिल में दृढ़ कर दिया, उनके सारे पाप नाश हो जाते हैं, वह सारे पवित्र जीवन वाले बन जाते हैं, वह आत्मिक आनंद से अंतरात्मे टिके रहते हैं।4।3।53।

सोरठि महला ५ ॥ साहिबु गुनी गहेरा ॥ घरु लसकरु सभु तेरा ॥ रखवाले गुर गोपाला ॥ सभि जीअ भए दइआला ॥१॥

पद्अर्थ: गुनी = गुणों का मालिक। गहेरा = गहरा। घरु लसकरु = घर और परिवार आदि। गुर = हे गुरु! गेपाला = हे गोपाला! रखवाला = हे रक्षक! स्भि जीअ = सारे जीवों पर।1।

अर्थ: हे सबसे बड़े! हे सृष्टि के पालनहार! हे सब जीवों के रखवाले! तू सारे जीवों पर दयावान रहता है। तू सबका मालिक है, तू गुणों का मालिक है, तू गहरे जिगरे वाला है। (जीवों को) दिया हुआ सारा घर-घाट तेरा ही है।1।

जपि अनदि रहउ गुर चरणा ॥ भउ कतहि नही प्रभ सरणा ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अनदि = आत्मिक आनंद में। रहउ = रहूँ, मैं रहता हूँ। कतहि = कहीं भी। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! गुरु के चरणों को दिल में बसा के मैं आत्मिक आनंद में टिका रहता हूँ। हे भाई! प्रभु की शरण पड़ने से कहीं भी कोई डर छू नहीं सकता। रहाउ।

तेरिआ दासा रिदै मुरारी ॥ प्रभि अबिचल नीव उसारी ॥ बलु धनु तकीआ तेरा ॥ तू भारो ठाकुरु मेरा ॥२॥

पद्अर्थ: मुरारी = (मुर+अरि) परमात्मा। रिदै = दिल में। प्रभि = प्रभु ने। अबिचल नीव = (भक्ति की) कभी ना हिलने वाली नींव। तकीआ = आसरा। भारो = बड़ा। ठाकुरु = मालिक।2।

अर्थ: हे प्रभु! तेरे सेवकों दिल में ही नाम बसता है। हे प्रभु! तूने (अपने दासों के हृदय में भक्ति की) कभी ना हिलने वाली नींव रख दी है। हे प्रभु! तू ही मेरा बल है, तू ही मेरा धन है, तेरा ही मुझे आसरा है। तू मेरा सबसे बड़ा मालिक है।2।

जिनि जिनि साधसंगु पाइआ ॥ सो प्रभि आपि तराइआ ॥ करि किरपा नाम रसु दीआ ॥ कुसल खेम सभ थीआ ॥३॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (मनुष्य) ने। प्रभि = प्रभु ने। तराइआ = पार लंघा लिया। रसु = स्वाद। कुसल खेम = सुख आनंद।3।

अर्थ: हे भाई! जिस जिस मनुष्य ने गुरु की संगति प्राप्त की है, उस उस को प्रभु ने स्वयं (संसार समुंदर से) पार लंघा दिया है। जिस मनुष्य को प्रभु ने मेहर करके अपने नाम का स्वाद बख्शा है, उसके अंदर सदा आत्मिक आनंद बना रहता है।3।

होए प्रभू सहाई ॥ सभ उठि लागी पाई ॥ सासि सासि प्रभु धिआईऐ ॥ हरि मंगलु नानक गाईऐ ॥४॥४॥५४॥

पद्अर्थ: सहाई = मददगार। पाई = पैरों पर। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। मंगलु = महिमा का गीत।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य का मददगार बनता है, सारी दुनिया उठ के उसके पैरों में आ लगती है। हे नानक! हरेक सांस के साथ परमात्मा का ध्यान धरना चाहिए। सदा परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहना चाहिए।4।4।54।

सोरठि महला ५ ॥ सूख सहज आनंदा ॥ प्रभु मिलिओ मनि भावंदा ॥ पूरै गुरि किरपा धारी ॥ ता गति भई हमारी ॥१॥

पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। मनि = मन में। भावंदा = प्यारा लगने वाला। गुरि = गुरु ने। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था।1।

अर्थ: (हे भाई! जब से) पूरे गुरु ने (मेरे पर) मेहर की है तब से मेरी ऊँची आत्मिक अवस्था बन गई है, (मुझे) मन में प्यारा लगने वाला परमात्मा मिल गया है, मेरे अंदर आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद बने रहते हैं।1।

हरि की प्रेम भगति मनु लीना ॥ नित बाजे अनहत बीना ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रेम भगति = प्यार भरी भक्ति। बाजे = बजती है। अनहद = एक रस, लगातार। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का मन परमात्मा की प्यार भरी भक्ति में टिका रहता है, उसके अंदर सदा एक रस (आत्मिक आनंद की, मानो) वीणा बजती रहती है। रहाउ।

हरि चरण की ओट सताणी ॥ सभ चूकी काणि लोकाणी ॥ जगजीवनु दाता पाइआ ॥ हरि रसकि रसकि गुण गाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: ओट = आसरा। सताणी = स+ताणी, तगड़ी। काणि = अधीनता। लोकाणी = लोगों की। जगजीवनु = जगत का जीवन, जगत का जीवन दाता। रसकि = प्रेम से, रस ले ले के।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने प्रभु-चरणों का बलवान आसरा ले लिया, दुनिया के लोगों वाली उसकी सारी अधीनता खत्म हो गई। उसे जगत का सहारा दातार प्रभु मिल जाता है। वह सदा बड़े प्रेम से परमात्मा के गीत गाता रहता है।2।

प्रभ काटिआ जम का फासा ॥ मन पूरन होई आसा ॥ जह पेखा तह सोई ॥ हरि प्रभ बिनु अवरु न कोई ॥३॥

पद्अर्थ: फाहा = फंदा। जह = जहाँ। पेखा = मैं देखता हूँ। तह = वहाँ।3।

अर्थ: हे भाई! मेरी भी प्रभु ने जम की फांसी काट दी है, मेरे मन की (ये चिरों की) आशा पूरीहो गई है। अब मैं जिधर देखता हूँ, मुझे उस परमात्मा के बिना कोई और दिखाई नहीं देता।3।

करि किरपा प्रभि राखे ॥ सभि जनम जनम दुख लाथे ॥ निरभउ नामु धिआइआ ॥ अटल सुखु नानक पाइआ ॥४॥५॥५५॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। सभि = सारे। अटल = कभी ना खत्म होने वाला।4।

अर्थ: हे नानक! प्रभु ने कृपा करके जिनकी रक्षा की, उनके अनेक जन्मों के सारे दुख दूर हो गए। जिन्होंने निर्भय प्रभु का नाम स्मरण किया, उन्होंने वह आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया जो कभी दूर नहीं होता।4।5।55।

सोरठि महला ५ ॥ ठाढि पाई करतारे ॥ तापु छोडि गइआ परवारे ॥ गुरि पूरै है राखी ॥ सरणि सचे की ताकी ॥१॥

पद्अर्थ: ठाढि = ठंड, शांति। करतारे = कर्तार ने। परवारे = परवार को, जीव के सारी ज्ञानेंन्द्रियों को। गुरि = गुरु ने। सचे की = सदा कायम रहने वाले प्रभु की। ताकी = देखी।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर कर्तार ने ठंड बरता दी, उसके परिवार को (उसकी ज्ञान-इंद्रिय को विकारों का) ताप छोड़ जाता है। हे भाई! पूरे गुरु ने जिस मनुष्य की मदद की, उसने सदा कायम रहने वाले परमात्मा का आसरा देख लिया।1।

परमेसरु आपि होआ रखवाला ॥ सांति सहज सुख खिन महि उपजे मनु होआ सदा सुखाला ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: रखवाला = रक्षक। सहज सुख = आत्मिक अडोलता से सुख। उपजे = पैदा हो गए। सुखाला = सुखी। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य का रखवाला परमात्मा खुद बन जाता है, उसका मन सदा के लिए सुखी हो जाता है (क्योंकि उसके अंदर) एक छिन में आत्मिक अडोलता के सुख और शांति पैदा हो जाते हैं। रहाउ।

हरि हरि नामु दीओ दारू ॥ तिनि सगला रोगु बिदारू ॥ अपणी किरपा धारी ॥ तिनि सगली बात सवारी ॥२॥

पद्अर्थ: दारू = दवा। तिनि = उस (दारू) ने। बिदारू = नाश कर दिया। बात = (जीवन की) कहानी।2।

अर्थ: हे भाई! (विकार रोगों का इलाज करने के लिए गुरु ने मनुष्य को) परमात्मा का नाम-दवा दी, उस नाम-दवाई ने उस मनुष्य के सारे ही (विकार-) रोग काट दिए। जब प्रभु ने उस मनुष्य पर मेहर की, तो उसने अपनी सारी जीवन कहानी ही सुंदर बना ली (अपना सारा जीवन ही सँवार लिया)।2।

प्रभि अपना बिरदु समारिआ ॥ हमरा गुणु अवगुणु न बीचारिआ ॥ गुर का सबदु भइओ साखी ॥ तिनि सगली लाज राखी ॥३॥

पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। बिरदु = ईश्वर का मूल प्यार वाला स्वभाव। समारिआ = याद रखा। हमरा = हम जीवों का। साखी = साक्षात। तिनि = उस (शब्द) ने। लाज = इज्जत।3।

अर्थ: हे भाई! प्रभु ने (सदा ही) अपने प्यार करने वाले मूल प्राकृतिक स्वभाव (बिरद) को याद रखा है। वह हम जीवों के कोई भी गुण-अवगुण दिल से लगा के नहीं रखता। (प्रभु की कृपा से जिस मनुष्य के अंदर) गुरु के शब्द ने अपना प्रभाव डाला, शब्द ने उसकी सारी इज्जत रख ली (उसको विकारों के जाल में फंसने से बचा लिया)।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh