श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 623 बोलाइआ बोली तेरा ॥ तू साहिबु गुणी गहेरा ॥ जपि नानक नामु सचु साखी ॥ अपुने दास की पैज राखी ॥४॥६॥५६॥ पद्अर्थ: बोली = मैं बोलता हूँ, मैंतेरी महिमा करता हूँ। गुणी = गुणों का मालिक। गहेरा = गहरा। सचु साखी = सदा साथ निभने वाला मददगार। साखी = साख भरने वाला, साथ निभाने वाला। पैज = इज्जत।4। अर्थ: हे प्रभु! तू हमारा मालिक है, तू गुणों का खजाना है, तू गहरे जिगरे वाला है। जब तू प्रेरणा देता है तब ही मैं तेरी महिमा कर सकता हूं। हे नानक! सदा स्थिर प्रभु का नाम जपा कर, यही सदा हामी भरने वाला है। प्रभु अपने सेवक की (सदा) इज्जत रखता आया है।4।6।56। सोरठि महला ५ ॥ विचि करता पुरखु खलोआ ॥ वालु न विंगा होआ ॥ मजनु गुर आंदा रासे ॥ जपि हरि हरि किलविख नासे ॥१॥ पद्अर्थ: करता = कर्तार। पुरखु = सर्व व्यापक। विचि खलोआ = खुद सहायता करता है। वालु न विंगा होआ = रक्ती भर भी नुकसान नहीं होता। मजनु = स्नान, राम के दासों के सरोवर में स्नान, नाम-जल से आत्मिक स्नान। गुरि = गुरु ने। आंदा रासे = रास कर लिया, सफल कर दिया। जपि = जप के। किलविख = पाप।1। अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत में जिस मनुष्य का) आत्मिक स्नान गुरु ने सफल कर दिया, वह मनुष्य सदा परमात्मा का नाम जप-जप के (अपने सारे) पाप नाश कर लेता है। सर्व-व्यापक कर्तार खुद उसकी सहायता करता है, (उसकी आत्मिक राशि-पूंजी का) रक्ती भर भी नुकसान नहीं होता।1। संतहु रामदास सरोवरु नीका ॥ जो नावै सो कुलु तरावै उधारु होआ है जी का ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: राम दास सरोवरु = राम के दासों का सरोवर, साधु-संगत। नीका = अच्छा, सोहणा। नावै = नहाता है। उधारु = पार उतारा। जी का = प्राण का।1। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! साधु-संगत (एक) सुंदर (स्थान) है। जो मनुष्य (साधु-संगत में) आत्मिक स्नान करता है (मन को नाम-जल से पवित्र करता है), उसके जीवन का (विकारों से) पार-उतारा हो जाता है, वह अपनी सारी कुल को भी (संसार समुंदर से) पार लंघा लेता है।1। रहाउ। जै जै कारु जगु गावै ॥ मन चिंदिअड़े फल पावै ॥ सही सलामति नाइ आए ॥ अपणा प्रभू धिआए ॥२॥ पद्अर्थ: जै जै कारु = शोभा। जगु = जगत। मनि = मन में। चिंदिअड़े = चितवे हुए। सही सलामति = आत्मिक जीवन को पूरी तौर पर बचा के। नाइ = नहा के।2। अर्थ: हे भाई! (जो मनुष्य राम के दासों के सरोवर में टिक के) अपने परमात्मा की आराधना करता है, (वह मनुष्य इस सत्संग-सरोवर में आत्मिक) स्नान कर के अपनी आत्मिक जीवन की राशि-पूंजी को पूर्ण-तौर पर बचा लेता है। सारा जगत उसकी शोभा के गीत गाता है, वह मनुष्य मन-वांछित फल हासिल कर लेता है।2। संत सरोवर नावै ॥ सो जनु परम गति पावै ॥ मरै न आवै जाई ॥ हरि हरि नामु धिआई ॥३॥ पद्अर्थ: संत सरोवरि = संतों के सरोवर में, साधु-संगत में। नावै = नहाता है। परम गति = सबसे उच्च आत्मिक अवस्था। न आवै जाई = न आवै न जाई, पैदा होता मरता नहीं है।3। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य संतो के सरोवर में (साधु-संगत में) आत्मिक स्नान करता है, वह मनुष्य सबसे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम स्मरण करता रहता है, वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता।3। इहु ब्रहम बिचारु सु जानै ॥ जिसु दइआलु होइ भगवानै ॥ बाबा नानक प्रभ सरणाई ॥ सभ चिंता गणत मिटाई ॥४॥७॥५७॥ पद्अर्थ: ब्रहमु बिचारु = परमात्मा से सांझ की सोच। सु = वह मनुष्य। बाबा = हे भाई! नानक! गणत = गिनती, फिक्र।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के मिलाप की इस विचार को वही मनुष्य समझता है जिस पर परमात्मा खुद दयावान होता है। हे नानक! (कह:) हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़ा रहता है, वह अपनी हरेक किस्म की चिन्ता-फिक्र दूर कर लेता है।4।7।57। सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमि निबाही पूरी ॥ काई बात न रहीआ ऊरी ॥ गुरि चरन लाइ निसतारे ॥ हरि हरि नामु सम्हारे ॥१॥ पद्अर्थ: पारब्रहमि = पारब्रहम ने। ऊरी = ऊणी, कम। गुरि = गुरु ने। निसतारे = (संसार सागर से) पार लंघा दिए। समारे = संभालता है, दिल में बसाए रखता है।1। अर्थ: (हे भाई! सदा से ही) परमात्मा ने अपने सेवक से प्रीति आखिर तक निभाई है। सेवक को किसी बात की कोई कमी नहीं रहती। सेवक सदा परमात्मा का नाम अपने दिल में संभाल के रखता है। गुरु ने (सेवकों को सदा ही) चरणों से लगा के (संसार-समुंदर से) पार लंघाया है।1। अपने दास का सदा रखवाला ॥ करि किरपा अपुने करि राखे मात पिता जिउ पाला ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: करि = बना के। जिउ = जैसे।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक का सदा रक्षक बना रहता है। जैसे माँ-बाप (बच्चों को) पालते हैं, वैसे ही प्रभु कृपा करके अपने सेवकों को अपने बनाए रखता है।1। रहाउ। वडभागी सतिगुरु पाइआ ॥ जिनि जम का पंथु मिटाइआ ॥ हरि भगति भाइ चितु लागा ॥ जपि जीवहि से वडभागा ॥२॥ पद्अर्थ: वडभागी = बड़े भाग्यों वालों ने। जिनि = जिस (गुरु) ने। पंथु = रास्ता। भाइ = प्यार में। जीवहि = जीते हैं, आत्मिक जीवन प्राप्त करते हैं।2। अर्थ: हे भाई! बड़े भाग्यों वाले मनुष्यों ने (वह) गुरु पा लिया, जिस (गुरु) ने (उनके वास्ते) जम के देश को ले जाने वाला रास्ता मिटा दिया (क्योंकि गुरु की कृपा से) उनका मन परमात्मा की भक्ति में प्रभु के प्रेम में मगन रहता है। वे भाग्यशाली मनुष्य परमात्मा का नाम जप जप के आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेते हैं।2। हरि अम्रित बाणी गावै ॥ साधा की धूरी नावै ॥ अपुना नामु आपे दीआ ॥ प्रभ करणहार रखि लीआ ॥३॥ पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। नावै = नहाए। आपे = खुद ही।3। अर्थ: (हे भाई! परमात्मा का सेवक) परमात्मा की आत्मिक जीवन देने वाली वाणी गाता रहता है सेवक गुरमुखों के चरणों की धूल में स्नान करता रहता है (सवै भाव मिटा के संत जनों की शरण पड़ा रहता है)। परमात्मा ने खुद ही (अपने सेवक को) अपना नाम बख्शा है, विधाता प्रभु ने खुद ही (सदा से अपने सेवक को विकारों से) बचाया है।3। हरि दरसन प्रान अधारा ॥ इहु पूरन बिमल बीचारा ॥ करि किरपा अंतरजामी ॥ दास नानक सरणि सुआमी ॥४॥८॥५८॥ पद्अर्थ: अधारा = आसरा। बिमल = शुद्ध, पवित्र। अंतरजामी = हे हरेक के दिल की जानने वाले!।4। अर्थ: हे भाई! (प्रभु के सेवक का) ये पवित्र और पूर्ण विचार बना रहता है कि परमात्मा के दर्शन ही (सेवक की) जिंदगी का आसरा हैं। हे दास नानक! (तू भी प्रभु दर पर अरदास कर, और कह:) हे सबके दिलों की जानने वाले! हे स्वामी! (मेरे पर) मेहर कर, मैं तेरी शरण आया हूँ।4।8।58। सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै चरनी लाइआ ॥ हरि संगि सहाई पाइआ ॥ जह जाईऐ तहा सुहेले ॥ करि किरपा प्रभि मेले ॥१॥ पद्अर्थ: गुरि पूरे = पूरे गुरु ने। संगि = (अपने) साथ। सहाई = साथी, मददगार। जह = जहाँ। सुहेले = सुखी। प्रभि = प्रभु ने।1। अर्थ: (हे भाई जिस मनुष्य को) पूरे गुरु ने (परमात्मा के) चरणों में जोड़ दिया, उसने वह परमात्मा पा लिया जो हर वक्त अंग-संग बसता है, और (जीवन का) मददगार है। (अगर प्रभु चरणों में जुड़े रहें तो) जहाँ भी जाएं, वहीं सुखी रह सकते हैं (पर जिन्हें चरणों में मिलाया है) प्रभु ने (खुद ही) कृपा करके मिलाया है।1। हरि गुण गावहु सदा सुभाई ॥ मन चिंदे सगले फल पावहु जीअ कै संगि सहाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सुभाई = प्यार से। मनचिंदे = मन चाहे। सगले = सारे। जीअ कै संगि = जिंद के साथ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सदा प्यार से परमात्मा के महिमा के गीत गाते रहा करो। (महिमा की इनायत से) मन मांगे फल (प्रभु के दर से) प्राप्त करते रहोगे, परमात्मा जीवन के साथ (बसता) साथी (प्रतीत होता रहेगा)।1। रहाउ। नाराइण प्राण अधारा ॥ हम संत जनां रेनारा ॥ पतित पुनीत करि लीने ॥ करि किरपा हरि जसु दीने ॥२॥ पद्अर्थ: हम = मैं। रेनारा = रेणु, चरण धूल। अधारा = आसरा। पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। जसु = महिमा।2। अर्थ: हे भाई! मैं तो संत जनों की धूल बना रहता हूँ, (संत जनों की कृपा से) परमात्मा जीवन का आसरा (प्रतीत होता रहता है)। संत जन कृपा करके परमात्मा की महिमा की दाति देते हैं, (और इस तरह) विकारों में गिरे हुओं को (भी) पवित्र जीवन वाला बना लेते हैं।2। पारब्रहमु करे प्रतिपाला ॥ सद जीअ संगि रखवाला ॥ हरि दिनु रैनि कीरतनु गाईऐ ॥ बहुड़ि न जोनी पाईऐ ॥३॥ पद्अर्थ: सद = सदा। रैनि = रात। बहुड़ि = दुबारा।3। अर्थ: हे भाई! दिन-रात (हर समय) परमात्मा की महिमा के गीत गाते रहना चाहिए, (महिमा की इनायत से) दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं पड़ता। परमात्मा खुद (महिमा करने वालों की) रक्षा करता है, सदा उनके प्राणों के साथ रक्षक बना रहता है।3। जिसु देवै पुरखु बिधाता ॥ हरि रसु तिन ही जाता ॥ जमकंकरु नेड़ि न आइआ ॥ सुखु नानक सरणी पाइआ ॥४॥९॥५९॥ पद्अर्थ: बिधाता = कर्तार, रचनहार। रसु = स्वाद। तिन ही = उस मनुष्य ने ही। जम कंकरु = (किंकर) जम का सेवक, जम दूत।4। नोट: ‘तिन ही’ के बारे में। यहां ‘तिनि ही’ में से ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है। अर्थ: (पर) हे नानक! उस मनुष्य ने ही परमात्मा के नाम का स्वाद समझा है (कद्र जानी है), जिसे विधाता सर्व-व्यापक प्रभु खुद (ये दाति) देता है। परमात्मा की शरण पड़ा रह के वह आत्मिक आनंद लेता रहता है। जम दूत भी उसके नजदीक नहीं फटकते।4।9।49। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |