श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 628 संतहु सुखु होआ सभ थाई ॥ पारब्रहमु पूरन परमेसरु रवि रहिआ सभनी जाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रवि रहिआ = मौजूद है। सभनी जाई = सब जगहों पर। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! (जिस मनुष्य को ये यकीन हो जाता है कि) पारब्रहम पूरन परमेश्वर हर जगह पर मौजूद है (उस मनुष्य को) सब जगहों में सुख ही प्रतीत होता है। रहाउ। धुर की बाणी आई ॥ तिनि सगली चिंत मिटाई ॥ दइआल पुरख मिहरवाना ॥ हरि नानक साचु वखाना ॥२॥१३॥७७॥ पद्अर्थ: धुर की वाणी = परमात्मा की महिमा की वाणी। आई = आ बसी। तिनि = उस (मनुष्य) ने। साचु = सदा-स्थिर प्रभु का नाम। वखाना = उचारा।2। अर्थ: हे संत जनो! परमात्मा की महिमा की वाणी जिस मनुष्य के अंदर आ बसी, उसने अपनी सारी चिन्ता दूर कर ली। हे नानक! दया का श्रोत प्रभु उस मनुष्य पर मेहरवान हुआ रहता है, वह मनुष्य उस सदा कायम रहने वाले प्रभु का नाम (हमेशा) उचारता है।2।13।77। सोरठि महला ५ ॥ ऐथै ओथै रखवाला ॥ प्रभ सतिगुर दीन दइआला ॥ दास अपने आपि राखे ॥ घटि घटि सबदु सुभाखे ॥१॥ पद्अर्थ: ऐथै = इस लोक में। ओथै = परलोक में। दइआला = दया करने वाला। घटि घटि = हरेक शरीर में। सबदु = वचन, बोल। सुभाखे = अच्छी तरह बोल रहा है।1। अर्थ: हे भाई! गुरु प्रभु गरीबों पर दया करने वाला है, (शरण आए की) इस लोक और परलोक में रक्षा करने वाला है। (हे भाई! प्रभु) अपने सेवकों की स्वयं रक्षा करता है (सेवकों को ये भरोसा रहता है कि) प्रभु हरेक शरीर में (स्वयं ही) वचन बिलास कर रहा है।1। गुर के चरण ऊपरि बलि जाई ॥ दिनसु रैनि सासि सासि समाली पूरनु सभनी थाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बलि जाई = मैं सदके जाता हूँ। रैनि = रात। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। समाली = मैं याद करता हूँ। सभनी थाई = सब जगहों में। पूरन = व्यापक। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मैं (अपने) गुरु के चरणों से सदके जाता हूँ, (गुरु की कृपा से ही) मैं (अपने) हरेक सांस के साथ दिन रात (उस परमात्मा को) याद करता रहता हूँ जो सब जगहों में भरपूर है। रहाउ। आपि सहाई होआ ॥ सचे दा सचा ढोआ ॥ तेरी भगति वडिआई ॥ पाई नानक प्रभ सरणाई ॥२॥१४॥७८॥ पद्अर्थ: सहाई = मददगार। सचे दा = सदा कायम रहने वाले परमात्मा का। सचा = सदा कायम रहने वाला। ढोआ = तोहफा, बख्शिश। वडिआई = शोभा, महिमा। प्रभ = हे प्रभु!।2। अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से) परमात्मा स्वयं मददगार बनता है (गुरु की मेहर से) सदा स्थिर रहने वाले प्रभु की सदा स्थिर रहने वाली महिमा की दाति मिलती है। हे नानक! (कह:) हे प्रभु! (गुरु की कृपा से) तेरी शरण में आने से, तेरी भक्ति, तेरी महिमा प्राप्त होती है।2।14।78। सोरठि महला ५ ॥ सतिगुर पूरे भाणा ॥ ता जपिआ नामु रमाणा ॥ गोबिंद किरपा धारी ॥ प्रभि राखी पैज हमारी ॥१॥ पद्अर्थ: सतिगुर भाणा = गुरु को अच्छा लगा। ता = तब। रमाणा = राम का। प्रभि = प्रभु ने। पैज = इज्जत।1। अर्थ: (पर, हे भाई!) जब गुरु को अच्छा लगता है (जब गुरु प्रसन्न होता है) तब ही परमात्मा का नाम जपा जा सकता है। परमात्मा ने मेहर की (गुरु मिलाया! गुरु की कृपा से हमने नाम जपा, तो) परमात्मा ने हमारी इज्जत रख ली (विष ठग-बूटी से बचा लिया)।1। हरि के चरन सदा सुखदाई ॥ जो इछहि सोई फलु पावहि बिरथी आस न जाई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सुखदाई = सुख देने वाले। इछहि = इच्छा करते हैं। बिरथी = खाली, व्यर्थ।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के चरण सदा सुख देने वाले हैं। (जो मनुष्य हरि के चरणों का आसरा लेते हैं, वह) जो कुछ (परमात्मा से) मांगते हैं वही फल प्राप्त कर लेते हैं। (परमात्मा की सहायत पर रखी हुई कोई भी) आस ख़ाली नहीं जाती।1। रहाउ। क्रिपा करे जिसु प्रानपति दाता सोई संतु गुण गावै ॥ प्रेम भगति ता का मनु लीणा पारब्रहम मनि भावै ॥२॥ पद्अर्थ: प्रानपति = प्राण का मालिक। ता की = उस (मनुष्य) की। लीणा = मस्त। पारब्रहम मनि = पारब्रहम के मन में। भावै = प्यारा लगने लग जाता है।2। अर्थ: हे भाई! जीवन का मालिक दातार प्रभु जिस मनुष्य पर मेहर करता है वह संत (स्वभाव बन जाता है, और) परमात्मा की महिमा के गीत गाता है। उस मनुष्य का मन परमात्मा की प्यार भरी भक्ति में मस्त हो जाता है, वह मनुष्य परमात्मा को (भी) प्यारा लगने लगता है।2। आठ पहर हरि का जसु रवणा बिखै ठगउरी लाथी ॥ संगि मिलाइ लीआ मेरै करतै संत साध भए साथी ॥३॥ पद्अर्थ: रवणा = स्मरण करना। जसु रवणा = महिमा करनी। बिखै ठगउरी = विषय विकारों की ठग-बूटी। संगि = साथ। करतै = कर्तार ने। साथी = मददगार, संगी।3। अर्थ: हे भाई! आठों पहर (हर समय) परमात्मा की महिमा करने से विकारों की ठग-बूटी का असर खत्म हो जाता है (जिस मनुष्य ने महिमा में मन जोड़ा) ईश्वर ने (उसको) अपने साथ मिला लिया, संत जन उसके संगी-साथी बन गए।3। करु गहि लीने सरबसु दीने आपहि आपु मिलाइआ ॥ कहु नानक सरब थोक पूरन पूरा सतिगुरु पाइआ ॥४॥१५॥७९॥ पद्अर्थ: करु = हाथ (एकवचन)। गहि = पकड़ के। सरबसु = (सर्वस्व) सब कुछ। आपहि = खुद ही। आपु = अपना आप। थोक = पदार्थ, काम।4। अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण पड़ कर जिस भी मनुष्य ने प्रभु-चरणों की आराधना की) प्रभु ने उसका हाथ पकड़ के उसको सब कुछ बख्श दिया, प्रभु ने उसको अपना आप ही मिला दिया। हे नानक! कह: जिस मनुष्य को पूरा गुरु मिल गया, उसके सारे काम सफल हो गए।4।15।79। सोरठि महला ५ ॥ गरीबी गदा हमारी ॥ खंना सगल रेनु छारी ॥ इसु आगै को न टिकै वेकारी ॥ गुर पूरे एह गल सारी ॥१॥ पद्अर्थ: गरीबी = विनम्र स्वभाव। गदा = गुरज। खंना = खंडा। रेनु = चरण धूल। छारी = छार, मिट्टी। न टिकै = खड़ा नहीं हो सकता। वेकारी = कुकर्मी। सारी = समझाई।1। अर्थ: हे भाई! विनम्रता भरा स्वभाव हमारी गदा है, सबकी चरण-धूल बने रहना हमारे पास खंडा हैं इस (गदा) के आगे इस (खंडे) के आगे कोई भी कुकर्मी टिक नहीं सकता। (हमें) पूरे गुरु ने ये बात समझा दी है।1। हरि हरि नामु संतन की ओटा ॥ जो सिमरै तिस की गति होवै उधरहि सगले कोटा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: ओटा = आसरा। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। उधरहि = (विकारों से) बच जाते हैं। कोटा = करोड़ो ही।1। रहाउ। नोट: ‘तिस की’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम संत जनों का आसरा है। जो भी मनुष्य (परमात्मा का नाम) स्मरण करता है, उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है। (नाम की इनायत से) सारे करोड़ों ही जीव (विकारों से) बच जाते हैं।1। रहाउ। संत संगि जसु गाइआ ॥ इहु पूरन हरि धनु पाइआ ॥ कहु नानक आपु मिटाइआ ॥ सभु पारब्रहमु नदरी आइआ ॥२॥१६॥८०॥ पद्अर्थ: संगि = संगति में। जसु = महिमा के गीत। आपु = स्वैभाव। सभु = हर जगह। नदरी आइआ = दिखा।2। अर्थ: हे नानक! कह: जिस मनुष्य ने संत जनों की संगति में (बैठ के) परमात्मा की महिमा के गीत गाए हैं, उसने ये हरि-नाम धन प्राप्त कर लिया है जो कभी खत्म नहीं होता। उस मनुष्य ने (अपने अंदर से) स्वै भाव दूर कर लिया है उसे हर जगह परमात्मा ही (बसता) दिख गया है।2।16।80। सोरठि महला ५ ॥ गुरि पूरै पूरी कीनी ॥ बखस अपुनी करि दीनी ॥ नित अनंद सुख पाइआ ॥ थाव सगले सुखी वसाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: गुरि पूरै = पूरे गुरु ने। पूरी कीनी = पूरी कृपा की। बखस = दाति, बख्शिश, भक्ति की दाति। नित = सदा। थाव = स्थान। सगले = सारे। थाव सगले = सारी जगहें, सारी इंद्रिय।1। नोट: ‘थाव’ है ‘थाउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर पूरे गुरु ने पूरी कृपा की, उसको गुरु ने अपने दर से प्रभु की भक्ति की दाति दे दी। वह मनुष्य सदा आत्मिक आनंद लेने लग पड़ा। गुरु ने उसकी सारी ज्ञान-इंद्रिय को (विकारों से बचा के) शांति में टिका दिया।1। हरि की भगति फल दाती ॥ गुरि पूरै किरपा करि दीनी विरलै किन ही जाती ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: फल दाती = फल देने वाली। किन ही = किनि ही, किसी ने ही। रहाउ। नोट: ‘किन ही’ के बारे में। यहां ‘किनि’ में ‘नि’ की ‘ि’ की मात्रा क्रिया विषोशण ‘ही’ के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की भक्ति सारे फल देने वाली है। पूरे गुरु ने (जिस मनुष्य पर) मेहर कर दी (उसने प्रभु की भक्ति करनी आरम्भ कर दी। पर, हे भाई!) किसी दुर्लभ मनुष्य ने ही परमात्मा की भक्ति की कद्र समझी है। रहाउ। गुरबाणी गावह भाई ॥ ओह सफल सदा सुखदाई ॥ नानक नामु धिआइआ ॥ पूरबि लिखिआ पाइआ ॥२॥१७॥८१॥ पद्अर्थ: गवह = आओ हम गाएं। ओह = वह गुरवाणी। पूरबि = पूर्बले जनम में।2। अर्थ: हे भाई! आओ हम भी गुरु की वाणी गाया करें। गुरु की वाणी सदा ही सारे फल देने वाली सुख देने वाली है। हे नानक! (कह:) (उसी मनुष्य ने गुरबाणी के द्वारा परमात्मा का) नाम स्मरण किया है जिसने पूर्बले जनम में लिखा भक्ति का लेख प्राप्त किया है।2।17।81। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |