श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 627 सोरठि महला ५ ॥ हरि नामु रिदै परोइआ ॥ सभु काजु हमारा होइआ ॥ प्रभ चरणी मनु लागा ॥ पूरन जा के भागा ॥१॥ पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। परोइआ = अच्छी तरह बसा लिया। सभु = सारा। काजु = जीवन उद्देश्य। जा के = जिस मनुष्य के।1। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के भाग्य अच्छी तरह जाग पड़ते हैं, उसका मन परमात्मा के चरणों में लीन रहता है। हे भाई! जब परमात्मा का नाम अच्छी तरह दिल में बसा लिया जाता है, तब हम जीवों का सारा जीवन का उद्देश्य सफल हो जाता है।1। मिलि साधसंगि हरि धिआइआ ॥ आठ पहर अराधिओ हरि हरि मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मिलि = मिल के। साध संगि = साधु-संगत में। अराधिओ = स्मरण किया। मन चिंदिआ = मन इच्छित। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! जिस भी मनुष्य ने) साधु-संगत में मिल के परमात्मा का नाम स्मरण किया, आठों पहर (हर वक्त) परमात्मा का नाम याद किया, उसने हरेक मन-मांगी मुरादें पा लीं। रहाउ। परा पूरबला अंकुरु जागिआ ॥ राम नामि मनु लागिआ ॥ मनि तनि हरि दरसि समावै ॥ नानक दास सचे गुण गावै ॥२॥८॥७२॥ पद्अर्थ: परा पूरबला = अनेक पहले जन्मों का। अंकुरु = अंगूर। जागिआ = फूट पड़ा। नामि = नाम में। मनि तनि = मन से तन से, पूरी तरह से। दरसि = दर्शन मे। सचे = सदा स्थिर हरि के।2। अर्थ: हे दास नानक! (कह: साधु-संगत में मिल के जब किसी मनुष्य के) अनेक पूर्बले जन्मों के संस्कारों के बीज अंकुरित हो जाते हैं (पूर्बले संस्कार जाग जाते हैं, तब उसका) मन परमात्मा के नाम में लगने लग जाता है, वह मनुष्य मन से तन से परमात्मा के दीदार में मस्त रहता है, वह मनुष्य सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के गुण गाता रहता है।2।8।72। सोरठि महला ५ ॥ गुर मिलि प्रभू चितारिआ ॥ कारज सभि सवारिआ ॥ मंदा को न अलाए ॥ सभ जै जै कारु सुणाए ॥१॥ पद्अर्थ: गुर मिलि = गुरु को मिल के। सभि = सारे। मंदा को = कोई बुरा बोल। अलाए = बोलता। सभ = सारी (दुनिया) को। जै जै कारु = परमात्मा की महिमा। सुणाए = सुनाता है।1। अर्थ: हे संत जनो! (जिस मनुष्य ने) गुरु को मिल के परमात्मा को याद करना शुरू कर दिया, उसने अपने सारे काम सवार लिए। वह मनुष्य (किसी को) कोई बुरे बोल नहीं बोलता, वह सारी दुनिया को प्रभु की महिमा ही सुनाता रहता है।1। संतहु साची सरणि सुआमी ॥ जीअ जंत सभि हाथि तिसै कै सो प्रभु अंतरजामी ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साची = सदा कायम रहने वाली। सभि = सारे। हाथि = हाथ में। तिसै कै हाथि = उसी के हाथ में। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! मालिक प्रभु का आसरा पक्का आसरा है (क्योंकि) सारे जीव उस प्रभु के हाथ में हैं, और वह प्रभु हरेक जीव के दिल की जानने वाला है। रहाउ। करतब सभि सवारे ॥ प्रभि अपुना बिरदु समारे ॥ पतित पावन प्रभ नामा ॥ जन नानक सद कुरबाना ॥२॥९॥७३॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। बिरदु = ईश्वर का मूल प्यार वाला स्वभाव। समारे = याद रखा हुआ है। पतित पावन = विकारों में गिरे हुए लोगों को पवित्र करने वाला।2। अर्थ: हे संत जनो! (जिस मनुष्य ने प्रभु का पक्का आसरा लिया, प्रभु ने उसके) सारे काम सवार दिए। प्रभु ने अपना ये बिरद (प्यार करने वाला स्वभाव) हमेशा ही याद रखा हुआ है। (हे संत जनो!) परमात्मा का नाम विकारियों को पवित्र करने वाला है। हे दास नानक! (कह: मैं उससे) सदा सदके जाता हूँ।2।9।73। सोरठि महला ५ ॥ पारब्रहमि साजि सवारिआ ॥ इहु लहुड़ा गुरू उबारिआ ॥ अनद करहु पित माता ॥ परमेसरु जीअ का दाता ॥१॥ पद्अर्थ: पारब्रहमि = परमात्मा ने। साजि = साज के, पैदा करके। सवारिआ = सुंदर बना दिया। लहुड़ा = छोटा बच्चा। उबारिआ = बचा लिया है। करहु = बेशक करो। पित माता = माता पिता। जीअ का दाता = जीवन देने वाला।1। नोट: ‘करहु’ है हुकमी भविष्यत्, अन्न पुरख, बहुवचन। अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने इस छोटे बच्चे (हरगोबिंद) को सजाया और सँवारा। परमात्मा ही जीवन का दाता है (रक्षक है)। (साधु-संगत की अरदास सुन के) गुरूने इसको बचा लिया है। (गुरु परमात्मा की मेहर के सदका इस के) माता-पिता बेशक खुशी मनाएं।1। सुभ चितवनि दास तुमारे ॥ राखहि पैज दास अपुने की कारज आपि सवारे ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सुभ = भलाई। चितवनि = चितवते हैं। राखहि = तू रखता है। पैज = इज्जत। सवारे = सवार के, सफल करे। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! तेरे सेवक सब का भला मांगते हैं। (अपने सेवकों की मांग के मुताबिक) तू काम सवार के सेवकों की इज्जत रख लेता है। रहाउ। मेरा प्रभु परउपकारी ॥ पूरन कल जिनि धारी ॥ नानक सरणी आइआ ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥२॥१०॥७४॥ पद्अर्थ: परउपकारी = दूसरों की भलाई करने वाला। कल = सत्ता, शक्ति। जिनि = जिस (प्रभु) ने। मन चिंदिआ = मनचाहा। चिंदिआ = सोचा हुआ।2। अर्थ: हे भाई! जिस मेरे प्रभु ने सारे जगत में अपनी शक्ति टिकाई हुई है, वही सबकी भलाई करने वाला है। हे नानक! (कह: हे भाई!) जो भी मनुष्य (उस प्रभु की) शरण आ पड़ता है, वह मन-मांगी मुरादें पा लेता है।2।10।74। सोरठि महला ५ ॥ सदा सदा हरि जापे ॥ प्रभ बालक राखे आपे ॥ सीतला ठाकि रहाई ॥ बिघन गए हरि नाई ॥१॥ पद्अर्थ: जापे = जापि, जपा कर। आपे = आप ही। ठाकि = रोक के। नाई = महिमा (स्ना = नाई, महिमा)।1। अर्थ: हे भाई! सदा ही (सिर्फ) परमात्मा का नाम जपा करो। प्रभु जी खुद ही बालकों के रखवाले हैं। (बालक हरगोबिंद से प्रभु ने स्वयं ही) सीतला (चेचक) रोक ली है। परमात्मा की महिमा की इनायत से खतरे दूर हो गए हैं।1। मेरा प्रभु होआ सदा दइआला ॥ अरदासि सुणी भगत अपुने की सभ जीअ भइआ किरपाला ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: सभ जीअ = सारे जीवों पर। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मेरा प्रभु सदा ही दयावान रहता है। सारे ही जीवों पर वह दयालु रहता है। वह अपने भक्त की आरजू (हमेशा) सुनता है। रहाउ। प्रभ करण कारण समराथा ॥ हरि सिमरत सभु दुखु लाथा ॥ अपणे दास की सुणी बेनंती ॥ सभ नानक सुखि सवंती ॥२॥११॥७५॥ पद्अर्थ: करण कारण = जगत का मूल। करण = जगत। समराथा = सब ताकतों का मालिक। सुखि = सुख में, सुख से।2। अर्थ: हे भाई! प्रभु जगत का मूल है, और, सब ताकतों का मालिक है। प्रभु का नाम स्मरण करने से हरेक दुख दूर हो जाता है। हे नानक! प्रभु ने (हमेशा ही) अपने सेवकों की विनती सुनी है (प्रभु जी की मेहर से ही) सारी दुनिया सुखी बसती है।2।11।75। सोरठि महला ५ ॥ अपना गुरू धिआए ॥ मिलि कुसल सेती घरि आए ॥ नामै की वडिआई ॥ तिसु कीमति कहणु न जाई ॥१॥ पद्अर्थ: धिआए = ध्यान धरता है। मिलि = मिल के, (गुरु चरणों में) जुड़ के। कुसल सेती = आत्मिक आनंद से। घरि = घर में, हृदय घर में, अंतरात्मे। वडिआई = इनायत।1। अर्थ: हे संत जनो! जो मनुष्य अपने गुरु का ध्यान धरता है, वह (गुरु चरणों में) जुड़ के आत्मिक आनंद से अपने हृदय-घर में टिक जाता है (बाहर भटकने से बच जाता है)। ये नाम की ही इनायत है (कि मनुष्य अन्य आसरों की तलाश छोड़ देता है)। (पर) इस (हरि-नाम) का मूल्य नहीं आँका जा सकता (किसी दुनियावी पदार्थ के बदले नहीं मिलता)।1। संतहु हरि हरि हरि आराधहु ॥ हरि आराधि सभो किछु पाईऐ कारज सगले साधहु ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! आराधि = आराधना करके, स्मरण करके। सभो किछु = हरेक चीज। साधहु = सफल करो। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! सदा ही परमात्मा का नाम स्मरण किया करो। परमात्मा का नाम स्मरण करके हरेक चीज प्राप्त की जाती है। (तुम भी परमात्मा का नाम स्मरण करके अपने) सारे काम सवारो। रहाउ। प्रेम भगति प्रभ लागी ॥ सो पाए जिसु वडभागी ॥ जन नानक नामु धिआइआ ॥ तिनि सरब सुखा फल पाइआ ॥२॥१२॥७६॥ पद्अर्थ: प्रेम भगति = प्यार भरी भक्ति। तिनि = उस (मनुष्य) ने। सरब सुखा = सारे सुख देने वाले।2। अर्थ: (हे संत जनो! जो मनुष्य गुरु का ध्यान धरता है) प्रभु की प्यार भरी भक्ति में उसका मन लग जाता है। पर ये दाति वही मनुष्य हासिल करता है जिसके बड़े भाग्य हों। हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम स्मरण किया है, उसने सारे सुख देने वाले (फल) प्राप्त कर लिए हैं।2।12।76। सोरठि महला ५ ॥ परमेसरि दिता बंना ॥ दुख रोग का डेरा भंना ॥ अनद करहि नर नारी ॥ हरि हरि प्रभि किरपा धारी ॥१॥ पद्अर्थ: परमेसरि = परमेश्वर ने। बंना = रुकावट खड़ी करनी, बाँध लगाना। भंना = तोड़ दिया। करहि = करने हैं। नर नारी = (वह सारे) जीव। प्रभि = प्रभु ने।1। अर्थ: हे संत जनो! (जिस मनुष्य के आत्मिक जीवन के लिए) परमेश्वर ने (विकारों के रास्ते पर) रुकावट खड़ी कर दी, (उस मनुष्य के अंदर से) परमेश्वर ने दुखों और रोगों का डेरा ही खत्म कर दिया। जिस जीवों पर प्रभु ने (ये) कृपा कर दी वे सारे जीव आत्मिक आनंद पाते हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |