श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 626 हरि के नाम की वडिआई ॥ आठ पहर गुण गाई ॥ गुर पूरे ते पाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: वडिआई = शोभा, महिमा। आठ पहिर = हर वक्त। ते = से। पाई = प्राप्त की। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के नाम की महिमा करनी, आठों पहर परमात्मा की महिमा के गीत गाने- (ये दाति) पूरे गुरु से ही मिलती है। रहाउ। प्रभ की अकथ कहाणी ॥ जन बोलहि अम्रित बाणी ॥ नानक दास वखाणी ॥ गुर पूरे ते जाणी ॥२॥२॥६६॥ पद्अर्थ: अकथ = बयान ना हो सकने वाली। कहाणी = स्वरूप का वर्णन। बोलहि = बोलते हैं। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाली। वखाणी = उचारी। ते = से।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के स्वरूप की बातचीत बताई नहीं जा सकती। प्रभु के सेवक आत्मिक जीवन देने वाली महिमा की वाणी उचारते रहते हैं। हे नानक! वही सेवक ये वाणी उचारते हैं, जिन्होंने पूरे गुरु से ये समझ हासिल की है।2।2।66। सोरठि महला ५ ॥ आगै सुखु गुरि दीआ ॥ पाछै कुसल खेम गुरि कीआ ॥ सरब निधान सुख पाइआ ॥ गुरु अपुना रिदै धिआइआ ॥१॥ पद्अर्थ: आगै = आगे आने वाले जीवन काल में, परलोक में। गुरि = गुरु ने। पाछै = बीते समय में, इस लोक में। कुसल खेम = सुख आनंद। निधान = खजाने। रिदै = हृदय में।1। अर्थ: हे संत जनो! जिस मनुष्य ने अपने गुरु को (अपने) हृदय में बसा लिया, उसने सारे (आत्मिक) खजाने सारे आनंद प्राप्त कर लिए। गुरु ने उस मनुष्य को आगे आने वाले जीवन-राह में सुख बख्श दिया, बीते समय में भी उसे गुरु ने सुख आनंद दिया।1। अपने सतिगुर की वडिआई ॥ मन इछे फल पाई ॥ संतहु दिनु दिनु चड़ै सवाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: वडिआई = बड़प्पन, उच्च आत्मिक अवस्था। दिनु दिनु = हर रोज, दिनो दिन। सवाई = ज्यादा। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! (देखो) अपने गुरु की ऊँची आत्मिक अवस्था। (जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है वह) मन-मांगी मुरादें प्राप्त कर लेता है। गुरु की ये उदारता दिनो दिन बढ़ती चली जाती है। रहाउ। जीअ जंत सभि भए दइआला प्रभि अपने करि दीने ॥ सहज सुभाइ मिले गोपाला नानक साचि पतीने ॥२॥३॥६७॥ पद्अर्थ: सभि = सारे। दइआला = दया का घर, दया भरपूर। प्रभि = प्रभु ने। सहज = आत्मिक अडोलता। सुभाइ = प्रेम से। साचि = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा में। पतीने = पतीजे, मस्त हो गए।2। अर्थ: हे संत जनो! (जो भी जीव गुरु की शरण पड़ते हैं वह) सारे ही जीव दया-भरपूर (हृदय वाले) हो जाते हैं, प्रभु उन्हें अपने बना लेता है। हे नानक! (अंदर पैदा हो चुकी) आत्मिक अडोलता और प्रीति के कारण उन्हें सृष्टि का पालक-प्रभु मिल जाता है, वह सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा (की याद) में मगन रहते हैं।2।3।67। सोरठि महला ५ ॥ गुर का सबदु रखवारे ॥ चउकी चउगिरद हमारे ॥ राम नामि मनु लागा ॥ जमु लजाइ करि भागा ॥१॥ पद्अर्थ: रखवारे = रखवाला। चउकी = पहरा। चउगिरद = चारों तरफ। नामि = नाम में। लजाइ करि = शर्मिंदा हो के।1। अर्थ: (हे भाई! विकारों के मुकाबले में) गुरु का शब्द ही हम जीवों का रखवाला है, शब्द ही (हमें विकारों से बचाने के लिए) हमारे चारों तरफ पहरा है। (गुरु के शब्द की इनायत से जिस मनुष्य का) मन परमात्मा के नाम में जुड़ता है, उससे (विकार तो एक तरफ रहे,) जम (भी) शर्मिंदा हो के भाग जाता है।1। प्रभ जी तू मेरो सुखदाता ॥ बंधन काटि करे मनु निरमलु पूरन पुरखु बिधाता ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! बंधन = (माया के मोह आदि की) जंजीरें। काटि = काट के। निरमलु = पवित्र। पुरखु = सर्व व्यापक। बिधाता = विधाता प्रभु। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु जी! मेरे लिए तो तू ही सुखों का दाता है। (हे भाई! जो मनुष्य प्रभु के नाम में मन जोड़ता है) सर्व-व्यापक विधाता प्रभु (उसके माया के मोह आदि के सारे) बंधन काट के उसके मन को पवित्र कर देता है। रहाउ। नानक प्रभु अबिनासी ॥ ता की सेव न बिरथी जासी ॥ अनद करहि तेरे दासा ॥ जपि पूरन होई आसा ॥२॥४॥६८॥ पद्अर्थ: ता की = उस (प्रभु) की। सेव = सेवा भक्ति। बिरथी = व्यर्थ। जासी = जाएगी। करहि = करते हैं। जपि = जप के। आसा = मनो कामना।2। अर्थ: हे नानक! (कह:) अविनाशी प्रभु (ऐसा उदार-चिक्त है कि) उसकी की हुई सेवा-भक्ति व्यर्थ नहीं जाती। हे प्रभु! तेरे सेवक (सदा) आत्मिक आनंद भोगते हैं, तेरा नाम जप के उनकी हरेक मनोकामना पूरी हो जाती है।2।4।68। सोरठि महला ५ ॥ गुर अपुने बलिहारी ॥ जिनि पूरन पैज सवारी ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥ प्रभु अपुना सदा धिआइआ ॥१॥ पद्अर्थ: गुर बलिहारी = गुरु से सदके। जिनि = जिस (गुरु) ने। पूरन = पूरी तरह। पैज = आदर, इज्जत। चिंदिआ = चितवा हुआ।1। अर्थ: हे संत जनो! मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, जिसने (प्रभु के नाम की दाति दे के) पूरी तरह से (मेरी) इज्जत रख ली है। हे भाई! जो भी मनुष्य सदा अपने प्रभु का ध्यान धरता है वह मन-मांगी मुरादें प्राप्त कर लेता है।1। संतहु तिसु बिनु अवरु न कोई ॥ करण कारण प्रभु सोई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: तिसु बिनु = उस परमात्मा के बिना। करण = जगत। कारण = मूल। सोई = वही। रहाउ। अर्थ: हे संत जनो! उस परमात्मा के बिना (जीवों का) कोई और (रक्षक) नहीं है। वही परमात्मा जगत का मूल है। रहाउ। प्रभि अपनै वर दीने ॥ सगल जीअ वसि कीने ॥ जन नानक नामु धिआइआ ॥ ता सगले दूख मिटाइआ ॥२॥५॥६९॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। वर = बख्शिशें। जीअ = जीव। वसि = अपने वश।2। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे संत जनो! प्यारे प्रभु ने (जीवों को) सब वर दिए हुए हैं, सारे जीवों को उसने अपने वश में किया हुआ है। हे दास नानक! (कह: जब भी किसी ने) परमात्मा का नाम स्मरण किया, तब उसने अपने सारे दुख दूर कर लिए।2।5।69। सोरठि महला ५ ॥ तापु गवाइआ गुरि पूरे ॥ वाजे अनहद तूरे ॥ सरब कलिआण प्रभि कीने ॥ करि किरपा आपि दीने ॥१॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। तापु = दुख-कष्ट। वाजे = बज गए। अनहद = एक रस, बिना बजाए। तूरे = बाजे। कलिआण = सुख। प्रभि = प्रभु ने। करि = कर के।1। अर्थ: पूरे गुरु ने (हरि नाम की दवा दे के जिस मनुष्य के अंदर से) ताप दूर कर दिया, (उसके अंदर आत्मिक आनंद के, मानो) एक-रस बाजे बजने लग पड़े। प्रभु ने कृपा करके खुद ही वह सारे सुख आनंद बख्श दिए।1। बेदन सतिगुरि आपि गवाई ॥ सिख संत सभि सरसे होए हरि हरि नामु धिआई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बेदन = पीड़ा। सतिगुरि = सतिगुरु ने। सभि = सारे। सरसे = स+रस, रस सहित, आनंद भरपूर। धिआई = स्मरण करके। रहाउ। अर्थ: हे भाई! सारे सिख संत परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के आनंद भरपूर हुए रहते हैं। (जिसने भी परमात्मा का नाम स्मरण किया) गुरु ने खुद (उसकी हरेक) पीड़ा दूर कर दी। रहाउ। जो मंगहि सो लेवहि ॥ प्रभ अपणिआ संता देवहि ॥ हरि गोविदु प्रभि राखिआ ॥ जन नानक साचु सुभाखिआ ॥२॥६॥७०॥ पद्अर्थ: मंगहि = मांगते हैं। लेवहि = हासिल करते हैं। प्रभ = हे प्रभु! देवहि = तू देता है। प्रभि = प्रभु ने। सुभाखिआ = उचारा है। अर्थ: हे प्रभु! (तेरे दर से तेरे संत जन) जो कुछ माँगते हैं, वह हासिल कर लेते हैं। तू अपने संतों को (खुद सब कुछ) देता है। (हे भाई! बालक) हरि गोबिंद को (भी) प्रभु ने (खुद) बचाया है (किसी देवी आदि ने नहीं)। हे दास नानक! (कह:) मैं तो सदा स्थिर रहने वाले प्रभु का नाम ही उचारता हूँ।2।6।70। सोरठि महला ५ ॥ सोई कराइ जो तुधु भावै ॥ मोहि सिआणप कछू न आवै ॥ हम बारिक तउ सरणाई ॥ प्रभि आपे पैज रखाई ॥१॥ पद्अर्थ: सोई = वही काम। कराइ = तू कराना। भावै = अच्छा लगता है। मोहि = मुझे। तउ = तेरी। प्रभि = प्रभु ने। आपे = आप ही। पैज = इज्जत। अर्थ: हे प्रभु पातशाह! तू मुझसे वही काम करवाया कर जो तूझे अच्छा लगता है, मुझे कोई समझदारी वाली बात करनी नहीं आती। हे प्रभु! हम (तेरे) बच्चे तेरी शरण आए हैं। हे भाई! (शरण पड़े जीव की) प्रभु ने खुद ही इज्जत (हमेशा) रखवाई है।1। मेरा मात पिता हरि राइआ ॥ करि किरपा प्रतिपालण लागा करीं तेरा कराइआ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हरि राइआ = हे प्रभु पातशाह! करी = मैं करता हूँ। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु पातशाह! तू ही मेरी माँ है, तू ही मेरा पिता है। मेहर करके तू खुद ही मेरी पालना कर रहा है। हे प्रभु! मैं वही कुछ करता हूँ, जो तू मुझसे करवाता है। रहाउ। जीअ जंत तेरे धारे ॥ प्रभ डोरी हाथि तुमारे ॥ जि करावै सो करणा ॥ नानक दास तेरी सरणा ॥२॥७॥७१॥ पद्अर्थ: धारे = सहारे लिए हुए। हाथि = हाथ में। करावै = कराता है।2। अर्थ: हे प्रभु! (हम जीवों की जिंदगी की) डोर तेरे हाथ में है, सारे जीव तेरे ही आसरे हैं। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरे दास तेरी ही शरण पड़े रहते हैं। हे भाई! हम जीव वही कुछ कर सकते हैं जो कुछ परमात्मा हमसे करवाता है।2।7।71। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |