श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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होइ दइआलु किरपालु प्रभु ठाकुरु आपे सुणै बेनंती ॥ पूरा सतगुरु मेलि मिलावै सभ चूकै मन की चिंती ॥ हरि हरि नामु अवखदु मुखि पाइआ जन नानक सुखि वसंती ॥४॥१२॥६२॥

पद्अर्थ: होइ = हो के। आपे = आप ही। मेलि = मेलता है। चूके = खत्म हो जाती है। चिंती = चिन्ता। अवखदु = दवाई। मुखि = मुँह में। सुखि = आत्मिक आनंद में। वसंती = बसता है।4।

अर्थ: हे भाई! मालिक-प्रभु दयावान हो के कृपालु हो के खुद ही (जिस मनुष्य की) विनती सुन लेता है, उसे पूरा गुरु मिला देता है (इस तरह, उस मनुष्य के) मन की हरेक चिन्ता समाप्त हो जाती है।

हे दास नानक! (कह: जिस मनुष्य के) मुँह में परमात्मा नाम-दवा डाल देता है, वह मनुष्य आत्मिक आनंद में जीवन व्यतीत करता है।4।12।62।

सोरठि महला ५ ॥ सिमरि सिमरि प्रभ भए अनंदा दुख कलेस सभि नाठे ॥ गुन गावत धिआवत प्रभु अपना कारज सगले सांठे ॥१॥

पद्अर्थ: सिमरि सिमरि = बार बार याद कर कर के। कलेस = झगड़े। सभि = सारे। सांठे = साध लिए। सगले = सारे।1।

अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम स्मरण कर-कर के (स्मरण करने वाले मनुष्य) प्रसन्नचिक्त हो जाते हैं, (उनके अंदर से) सारे दुख-कष्ट दूर हो जाते हैं। (हे भाई! भाग्यशाली मनुष्य) अपने प्रभु के गुण गाते हुए और उसका ध्यान धरते हुए अपने सारे काम सँवार लेते हैं।1।

जगजीवन नामु तुमारा ॥ गुर पूरे दीओ उपदेसा जपि भउजलु पारि उतारा ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जग जीवन = जगत (के जीवों) को आत्मिक जीवन देने वाला। जपि = जप के। भउजलु = संसार समुंदर। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तेरा नाम जगत (के जीवों) को आत्मिक जीवन देने वाला है। पूरे सतिगुरु ने (जिस मनुष्य को तेरा नाम स्मरण करने का) उपदेश दिया, (वह मनुष्य) नाम ज पके संसार समुंदर से पार लांघ गया। रहाउ।

तूहै मंत्री सुनहि प्रभ तूहै सभु किछु करणैहारा ॥ तू आपे दाता आपे भुगता किआ इहु जंतु विचारा ॥२॥

पद्अर्थ: मंत्री = सलाहकार। सुनहि = तू सुनता है। करणैहार = कर सकने की सामर्थ्य वाला। आपे = खुद ही। भुगता = भोगने वाला। किआ विचारा = कोई पाइयां नहीं।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू खुद ही अपना सलाहकार है, तू खुद ही (हरेक जीव को) दातें देने वाला है, तू खुद ही (हरेक जीव में बैठ के पदार्थों को) भोगने वाला है। इस जीव की कोई बिसात नहीं है।2।

किआ गुण तेरे आखि वखाणी कीमति कहणु न जाई ॥ पेखि पेखि जीवै प्रभु अपना अचरजु तुमहि वडाई ॥३॥

पद्अर्थ: वखाणी = मैं बयान करूँ। पेखि = देख के। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है। तुमहि = तेरी। वडाई = बड़प्पन।3।

अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे गुण कह के बयान के लायक नहीं हूँ तेरी कद्र-कीमति बताई नहीं जा सकती। तेरा बड़प्पन हैरान कर देने वाला है। (हे भाई! मनुष्य) अपने प्रभु के दर्शन कर करके आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है।3।

धारि अनुग्रहु आपि प्रभ स्वामी पति मति कीनी पूरी ॥ सदा सदा नानक बलिहारी बाछउ संता धूरी ॥४॥१३॥६३॥

पद्अर्थ: अनुग्रहु = कृपा। धारि = कर के। प्रभ = हे प्रभु! पति = इज्जत। मति = बुद्धि। बलिहारी = सदके। बाछहु = मैं चाहता हूँ। धूरी = चरण धूल।4।

अर्थ: हे प्रभु! हे स्वामी! तू स्वयं ही (जीव पर) कृपा करके उसको (लोक-परलोक में) आदर देता है, उसे पूर्ण बुद्धि दे देता है। हे नानक! (कह: हे प्रभु!) मैं सदा ही तुझसे कुर्बान जाता हूँ। मैं (तेरे दर से) संत जनों की चरण-धूल माँगता हूँ।4।13।63।

सोरठि मः ५ ॥ गुरु पूरा नमसकारे ॥ प्रभि सभे काज सवारे ॥ हरि अपणी किरपा धारी ॥ प्रभ पूरन पैज सवारी ॥१॥

पद्अर्थ: नमसकारे = सिर निवाता है, शरण पड़ता है। प्रभि = प्रभु ने। पैज = इज्जत।1।

अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ता है, (यकीन जानिए कि) परमात्मा ने उसके सारे काम सवार दिए हैं। प्रभु ने उस मनुष्य पर मेहर (की निगाह) की, और (लोक-परलोक में) उसकी इज्जत अच्छी तरह रख ली।1।

अपने दास को भइओ सहाई ॥ सगल मनोरथ कीने करतै ऊणी बात न काई ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: को = का। सहाई = मददगार। करतै = कर्तार ने। ऊणी बात = कमी। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवकों का मददगार बनता है। कर्तार ने (सदा से ही अपने भक्तों की) सारी मनोकामनाएं पूरी की हैं, सेवक को (किसी किस्म की) कोई कमी नहीं रहती। रहाउ।

करतै पुरखि तालु दिवाइआ ॥ पिछै लगि चली माइआ ॥ तोटि न कतहू आवै ॥ मेरे पूरे सतगुर भावै ॥२॥

पद्अर्थ: पुरखि = पुरख ने, सर्वव्यापक प्रभु ने। तालु = ताला, गुप्त नाम खजाना। दिवाइआ = दिला दिया (गुरु के द्वारा)। तोटि = कमी। कतहू = कहीं भी। सतगुर भावै = गुरु को अच्छी लगती है।2।

अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य गुरु की शरण पड़ता है) सर्वव्यापक कर्तार ने (उसको गुरु के द्वारा) गुप्त नाम-खजाना दिलवा दिया, (उसकी माया की लालसा नहीं रह जाती) माया उसके पीछे-पीछे चलती फिरती है। (माया की ओर से उसे) कहीं भी कमी महसूस नहीं होती। मेरे पूरे सतिगुरु को (उस भाग्यशाली मनुष्य के लिए यही बात) अच्छी लगती है।2।

सिमरि सिमरि दइआला ॥ सभि जीअ भए किरपाला ॥ जै जै कारु गुसाई ॥ जिनि पूरी बणत बणाई ॥३॥

पद्अर्थ: दइआला = दया का घर प्रभु। सभि = सारे। जीअ = जीव। किरपाला = कृपा के घर प्रभु का रूप। जै जै कारु = शोभा, महिमा। गुसाई = सृष्टि का मालिक। जिनि = जिस (गुसाई) ने। बणत = योजना, युक्ति।3।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे भाई! दया के घर परमात्मा का नाम स्मरण कर-कर के (स्मरण करने वाले) सारे ही जीव उस दया-स्वरूप प्रभु का रूप बन जाते हैं। (इस वास्ते हे भाई!) उस सृष्टि के मालिक प्रभु की महिमा करते रहा करो, जिस ने (जीवों को अपने साथ मिलाने की) ये सुंदर योजना बना दी है।3।

तू भारो सुआमी मोरा ॥ इहु पुंनु पदारथु तेरा ॥ जन नानक एकु धिआइआ ॥ सरब फला पुंनु पाइआ ॥४॥१४॥६४॥

पद्अर्थ: मोरा = मेरा। पुंनु = बख्शीश। पदारथु = नाम वस्तु। सरब फला = सारे फल देने वाला।4।

अर्थ: हे प्रभु! तू मेरा बड़ा मालिक है। तेरा नाम-पदार्थ (जो मुझे गुरु के माध्यम से मिला है) तेरी ही बख्शिश है। हे दास नानक! (कह:) जिस मनुष्य ने (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा को स्मरणा शुरू कर दिया, उसने सारे फल देने वाली (ईश्वरीय) कृपा पा ली।4।14।64।

सोरठि महला ५ घरु ३ दुपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

रामदास सरोवरि नाते ॥ सभि उतरे पाप कमाते ॥ निरमल होए करि इसनाना ॥ गुरि पूरै कीने दाना ॥१॥

पद्अर्थ: रामदास सरोवरि = राम के दासों के सरोवर में, साधु-संगत में जहाँ नाम जल का प्रवाह चलता है। नाते = नहाए। सभि = सारे। कमाते = कमाए हुए, किए हुए। करि = कर के। गुरि = गुरु ने। दाना = बख्शिश।1।

अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य राम के दासों के सरोवर में (साधु-संगत में नाम-अमृत से) स्नान करते हैं, उनके (पिछले) किए हुए पाप उतर जाते हैं। (हरि नाम जल से) स्नान करके वे पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं। पर ये कृपा पूरे गुरु ने ही की हुई होती है।1।

सभि कुसल खेम प्रभि धारे ॥ सही सलामति सभि थोक उबारे गुर का सबदु वीचारे ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सभि = सारे। कुसल खेम = सुख आनंद। प्रभि = प्रभु ने। सभि थोक = सारी चीजें, आत्मिक जीवन के सारे गुण। उबारे = बचा लिए। बीचारे = विचार के, सोच मंडल में टिका के। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने गुरु के शब्द को अपनी सोच मंडल में टिका के आत्मिक जीवन के सारे गुण (विकारों के जाल में फसने से) ठीक ठाक बचा लिए, प्रभु ने (उसके हृउय में) सारे आत्मिक सुख आनंद पैदा कर दिए। रहाउ।

साधसंगि मलु लाथी ॥ पारब्रहमु भइओ साथी ॥ नानक नामु धिआइआ ॥ आदि पुरख प्रभु पाइआ ॥२॥१॥६५॥

पद्अर्थ: साध संगि = साधु-संगत में। मलु = विकारों की मैल। साथी = सहायक, मददगार। पुरख = सर्वव्यापक।2।

अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में (टिकने से) विकारों की मैल दूर हो जाती है, (साधु-संगत की इनायत से) परमात्मा मददगार बन जाता है। हे नानक! (जिस मनुष्य ने रामदास सरोवर में आ के) परमात्मा का नाम स्मरण किया, उसने उस प्रभु को पा लिया जो सबका आदि है और सर्व-व्यापक है।2।1।65।

नोट: यहाँ से ‘घर ३’ के शब्द दो बंदों वाले शुरू होते हैं। दुपदे = दो बंदों वाले।

सोरठि महला ५ ॥ जितु पारब्रहमु चिति आइआ ॥ सो घरु दयि वसाइआ ॥ सुख सागरु गुरु पाइआ ॥ ता सहसा सगल मिटाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: जितु = जिस में। चिति = चिक्त में, हृदय में। जितु चिति = जिस हृदय घर में। सो घरु = वह हृदय घर। दयि = प्यार वाले प्रभु ने। सुख सागरु = सुखों के समुंदर। ता = तब। सहसा = सहम।1।

अर्थ: हे भाई! जिस हृदय-घर में परमात्मा आ बसा है, प्रीतम प्रभु ने वह हृदय-घर (आत्मिक गुणों से) भरपूर कर दिया। हे भाई! (जब किसी भाग्यशाली को) सुखों का समुंदर गुरु मिल गया, तब उसने अपना सारा सहम दूर कर लिया।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh