श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 630 सभ जीअ तेरे दइआला ॥ अपने भगत करहि प्रतिपाला ॥ अचरजु तेरी वडिआई ॥ नित नानक नामु धिआई ॥२॥२३॥८७॥ पद्अर्थ: जीअ = जीव। दइआला = हे दया के घर! करहि = तू करता है। अचरजु = हैरान कर देने वाला। वडिआई = बख्शिश। धिआई = ध्याता है।2। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे दया के घर प्रभु! सारे जीव तेरे पैदा किए हुए हैं, तू अपने भक्तों की रखवाली स्वयं ही करता है। हे प्रभु! तू आश्चर्य स्वरूप है। तेरी बख्शिश भी हैरान कर देने वाली है। हे नानक! (कह: जिस मनुष्य पर प्रभु बख्शिश करता है, वह) सदा उसका नाम स्मरण करता रहता है।2।23।87। सोरठि महला ५ ॥ नालि नराइणु मेरै ॥ जमदूतु न आवै नेरै ॥ कंठि लाइ प्रभ राखै ॥ सतिगुर की सचु साखै ॥१॥ पद्अर्थ: नाराइणु = (नार+आयन) परमात्मा। कंठि = गले से। लाइ = लगा के। साखै = साखी, शिक्षा। सचु = सदा स्थिर प्रभु का नाम।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा मेरे साथ (मेरे हृदय में बस रहा) है। (उसकी इनायत से) जमदूत मेरे नजदीक नहीं फटकता (मुझे मौत का आत्मिक मौत का खतरा नहीं रहा)। हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की सदा-स्थिर हरि-नाम-जपने की शिक्षा मिल जाती है, प्रभु उस मनुष्य को अपने गले से लगाए रखता है।1। गुरि पूरै पूरी कीती ॥ दुसमन मारि विडारे सगले दास कउ सुमति दीती ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। पूरी = सफलता। दुसमन = (कामादिक) वैरी। मारि = मार के। विडारे = नाश कर दिए। कउ = को।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने (जीवन में) सफलता बख्शी, प्रभु ने (कामादिक उसके) सारे ही वैरी समाप्त कर दिए, और, उस सेवक को (नाम स्मरण की) श्रेष्ठ बुद्धि दे दी।1। रहाउ। प्रभि सगले थान वसाए ॥ सुखि सांदि फिरि आए ॥ नानक प्रभ सरणाए ॥ जिनि सगले रोग मिटाए ॥२॥२४॥८८॥ पद्अर्थ: प्रभि = प्रभु ने। सगले थान = सारे स्थान, सारी ज्ञान-इंद्रिय। वसाए = आत्मिक गुणों से बसा दिए। सुख सांदि = आत्मिक आनंद में, शांत अवस्था में। आए = आ टिके। जिनि = जिस प्रभु ने।2। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों को गुरु ने जीवन सफलता बख्शी) प्रभु ने उनके सारी ज्ञान-इंद्रिय को आत्मिक गुणों से भरपूर कर दिया, वह मनुष्य (कामादिक विकारों से) पलट के आत्मिक आनंद में आ टिके। हे नानक! उस प्रभु की शरण पड़ा रह, जिसने (शरण पड़ों के) सारे रोग दूर कर दिए।2।28।88। सोरठि महला ५ ॥ सरब सुखा का दाता सतिगुरु ता की सरनी पाईऐ ॥ दरसनु भेटत होत अनंदा दूखु गइआ हरि गाईऐ ॥१॥ पद्अर्थ: दाता = देने वाला। ता की = उस (गुरु) की। भेटत = मिलते ही। गाईऐ = गाना चाहिए।1। अर्थ: हे भाई! गुरु सारे सुखों को देने वाला है, उस (गुरु) की शरण पड़ना चाहिए। गुरु के दर्शन करने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है, हरेक दुख दूर हो जाता है, (गुरु की शरण पड़ कर) परमात्मा की महिमा करनी चाहिए।1। हरि रसु पीवहु भाई ॥ नामु जपहु नामो आराधहु गुर पूरे की सरनाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भाई = हे भाई! नामो = नाम ही। रहाउ। अर्थ: हे भाई! पूरे गुरु की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम जपा करो, हर वक्त नाम ही स्मरण किया करो, परमात्मा का नाम-अमुत पीते रहा करो। रहाउ। तिसहि परापति जिसु धुरि लिखिआ सोई पूरनु भाई ॥ नानक की बेनंती प्रभ जी नामि रहा लिव लाई ॥२॥२५॥८९॥ पद्अर्थ: तिसहि = तिसु ही, उसी को ही। धुरि = प्रभु की दरगाह से। प्रभ = हे प्रभु! नामि = नाम में। रहा = रहूँ। लिव = लगन।2। नोट: ‘तिसहि’ में ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्री क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हट गई है। अर्थ: पर, हे भाई! (ये नाम की दाति गुरु के दर से) उस मनुष्य को ही मिलती है जिसकी किस्मत में परमात्मा की हजूरी से इसकी प्राप्ती लिखी होती है। वह मनुष्य सर्वगुण संपन्न हो जाता है। हे प्रभु जी! (तेरे दास) नानक की (भी तेरे दर पर ये) विनती है: मैं तेरे नाम में तवज्जो जोड़े रखूँ।2।25।89। सोरठि महला ५ ॥ करन करावन हरि अंतरजामी जन अपुने की राखै ॥ जै जै कारु होतु जग भीतरि सबदु गुरू रसु चाखै ॥१॥ पद्अर्थ: करन करावन = सब कुछ कर सकने वाला और जीवों से करवा सकने वाला। अंतजामी = हरेक के दिल की जानने वाला। जै जै कारु = शोभा। भीतरि = (अभ्यंतर) अंदर, में।1। अर्थ: हे भाई! सब कुछ कर सकने वाला और जीवों से करा सकने वाला, हरेक के दिल की जानने वाला प्रभु अपने सेवक की (सदा इज्जत) रखता है। जो सेवक गुरु के शब्द को (हृदय में बसाता है, परमात्मा के नाम का) स्वाद चखता है उसकी शोभा (सारे) संसार में होती है।1। प्रभ जी तेरी ओट गुसाई ॥ तू समरथु सरनि का दाता आठ पहर तुम्ह धिआई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! ओट = आसरा। गुसाई = धरती के पति! सरनि = (शरन्य) आसरा। धिआई = मैं ध्याऊँ। रहाउ। अर्थ: हे (मेरे) प्रभु जी! हे धरती के पति! (मुझे) तेरा (ही) आसरा है। तू सब ताकतों का मालिक है, तू (सब जीवों को) सहारा देने वाला है, (मेरे पर मेहर कर) मैं आठों पहर तुझे याद करता रहूँ। रहाउ। जो जनु भजनु करे प्रभ तेरा तिसै अंदेसा नाही ॥ सतिगुर चरन लगे भउ मिटिआ हरि गुन गाए मन माही ॥२॥ पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! अंदेसा = चिन्ता फिक्र। माही = में।2। अर्थ: हे प्रभु! जो मनुष्य तेरी भक्ति करता है, उसे कोई चिन्ता-फिक्र नहीं सता सकता, (जिसके माथे को) गुरु के चरण छूते हैं, उसका हरेक डर मिट जाता है, वह मनुष्य अपने मन में परमात्मा के महिमा के गीत गाता रहता है।2। सूख सहज आनंद घनेरे सतिगुर दीआ दिलासा ॥ जिणि घरि आए सोभा सेती पूरन होई आसा ॥३॥ पद्अर्थ: सहज = आत्मिक अडोलता। घनेरे = बहुत। दिलासा = हौसला। जिणि = जीत के। सेती = साथ।3। नोट: शब्द ‘जिणि’ और ‘जिनि’ का अंतर याद रखें॥ अर्थ: हे सतिगुरु! जिस मनुष्य को तूने (विकारों से टकराने के लिए) हौसला दिया, उसके अंदर आत्मिक अडोलता के बहुत सुख-आनंद पैदा हो जाते हैं। वह मनुष्य (जीवन खेल) जीत के (जगत में से) शोभा कमा के हृदय-गृह में टिका रहता है, उसकी (हरेक) आशा पूरी हो जाती है।3। पूरा गुरु पूरी मति जा की पूरन प्रभ के कामा ॥ गुर चरनी लागि तरिओ भव सागरु जपि नानक हरि हरि नामा ॥४॥२६॥९०॥ पद्अर्थ: मति = बुद्धि, शिक्षा। पूरी = त्रुटि हीन। जा की = जिस (गुरु) की। लागि = लग के। भव सागरु = संसार समुंदर। जपि = जप के।4। अर्थ: हे नानक! (कह:) जो गुरु किसी भी तरह की कमी वाला नहीं है (त्रुटिहीन है), जिस की गुरु की शिक्षा में कमी नहीं है, जो गुरु अपना सारा समय पूर्ण प्रभु (के नाम स्मरण के) उद्यमों में लगाता है, उस गुरु के चरणों में लग के, और, परमात्मा का नाम सदा जप के (मैं) संसार समुंदर से (सही सलामति) पार लांघ रहा हूँ।4।26।90। सोरठि महला ५ ॥ भइओ किरपालु दीन दुख भंजनु आपे सभ बिधि थाटी ॥ खिन महि राखि लीओ जनु अपुना गुर पूरै बेड़ी काटी ॥१॥ पद्अर्थ: किरपालु = दयावान। दीन दुख भंजनु = गरीबों के दुख नाश करने वाला। आपे = आप ही। सभ बिधि = सारे तरीके। थाटी = बनाई। राखि लीओ = बचा लिया। जनु = दास। गुर पूरे = पूरे गुरु ने। बेड़ी = पैरों की जंज़ीर।1। अर्थ: हे भाई! गरीबों के दुख नाश करने वाला परमात्मा (अपने सेवक पर सदा) दयावान होता आया है; उसने स्वयं ही (अपने सेवकों की रक्षा करने की) सारी विधि बनाई है। उसने एक पलक में अपने सेवक को (सदा) बचा लिया, (उसकी मेहर से) पूरे गुरु ने (सेवक के दुखों-कष्टों की) बेड़ी काट दी।1। मेरे मन गुर गोविंदु सद धिआईऐ ॥ सगल कलेस मिटहि इसु तन ते मन चिंदिआ फलु पाईऐ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: गोविंदु = धरती का मालिक हरि। सद = सदा। कलेस = दुख झगड़े। मिटहि = मिट जाते हैं। ते = से। मन चिंदिआ = मन इच्छित। चिंदिआ = चितवा हुआ। रहाउ। अर्थ: हे मेरे मन! सदा गुरु का ध्यान धरना चाहिए, सदा परमात्मा का नाम स्मरणा चाहिए (इस उद्यम से) इस शरीर में से सारे दुख-कष्ट मिट जाते हैं, और मन मांगी मुरादें हासिल कर ली जाती हैं। रहाउ। जीअ जंत जा के सभि कीने प्रभु ऊचा अगम अपारा ॥ साधसंगि नानक नामु धिआइआ मुख ऊजल भए दरबारा ॥२॥२७॥९१॥ पद्अर्थ: जा के = जिस (परमात्मा) के। सभि = सारे। कीने = पैदा किए हुए हैं। अगम = अगम्य (पहुँच से परे)। अपारा = बेअंत। साध संगि = साधु-संगत में। मुख ऊजल = उज्वल मुँह वाले। दरबारा = प्रभु की हजूरी में।2। अर्थ: हे नानक! (कह:) सारे जीव-जंतु जिस परमात्मा के पैदा किए हुए हैं वह प्रभु सबसे ऊँचा है, अगम्य (पहुँच से परे) है, बेअंत है। जिस मनुष्यों ने (गुरु की शरण पड़ कर उस परमात्मा का) नाम स्मरण किया, वे परमात्मा की हजूरी में सही स्वीकार हो गए।2।27।91। सोरठि महला ५ ॥ सिमरउ अपुना सांई ॥ दिनसु रैनि सद धिआई ॥ हाथ देइ जिनि राखे ॥ हरि नाम महा रस चाखे ॥१॥ पद्अर्थ: सिमरउ = स्मरण करूँ, मैं स्मरण करता हूँ। सांई = पति प्रभु। रैनि = रात। सद = सदा। धिआई = मैं ध्यान धरता हूं। देइ = दे के। जिनि = जिस (पति-प्रभु) ने।1। अर्थ: हे भाई! मैं (उस) पति-प्रभु (का नाम) स्मरण करता हूँ, दिन-रात सदा (उसका) ध्यान धरता हूं, जिसने अपना हाथ दे के (उन मनुष्यों को दुखों-विकारों से) बचा लिया जिन्होंने परमात्मा के नाम का श्रेष्ठ रस चखा।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |