श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अपने गुर ऊपरि कुरबानु ॥ भए किरपाल पूरन प्रभ दाते जीअ होए मिहरवान ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गुर ऊपरि = गुरु से। कुरबानु = सदके। जीअ = सारे जीवों पर। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से सदके जाता हूँ, (जिसकी मेहर से) सर्व-व्यापक दातार प्रभु जी (सेवकों पर) कृपाल होते हैं, सारें जीवों पर मेहरवान होते हैं। रहाउ।

नानक जन सरनाई ॥ जिनि पूरन पैज रखाई ॥ सगले दूख मिटाई ॥ सुखु भुंचहु मेरे भाई ॥२॥२८॥९२॥

पद्अर्थ: नानक जन = हे दास नानक! जिनि = जिस (परमात्मा) ने। पूरन = अच्छी तरह। पैज = इज्जत। सगले = सारे। भुंचहु = खाओ। भाई = हे भाई!।2।

अर्थ: हे दास नानक! (कह:) हे मेरे भाईयो! उस परमात्मा की शरण पड़े रहो, जिस ने (शरण आए मनुष्यों की) इज्जत (दुखों-विकारों के मुकाबले पर) अच्छी तरह रख ली, जिसने उनके सारे दुख दूर कर दिए। हे भाईओ! (तुम भी उसकी शरण पड़ कर) आत्मिक आनंद लो।2।28।92।

सोरठि महला ५ ॥ सुनहु बिनंती ठाकुर मेरे जीअ जंत तेरे धारे ॥ राखु पैज नाम अपुने की करन करावनहारे ॥१॥

पद्अर्थ: ठाकुर मेरे = हे मेरे पालनहार प्रभु! जीअ जंत = छोटे बड़े सारे जीव। धारे = आसरे। पैज = सत्कार, इज्जत। करन करावनहारे = हे सब कुछ कर सकने वाले, और, जीवों से करा सकने वाले!।1।

अर्थ: हे मेरे ठाकुर! हे सब कुछ कर सकने और करा सकने वाले प्रभु! (मेरी) विनती सुन। सारे छोटे बड़े जीव तेरे ही आसरे हैं (तेरा नाम है ‘शरण योग’। हम जीव तेरे ही आसरे हैं) तू अपने (इस) नाम की इज्जत रख (और, हमारे माया के बंधन काट)।1।

प्रभ जीउ खसमाना करि पिआरे ॥ बुरे भले हम थारे ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: खसमाना = पति वाला फर्ज। थारे = तेरे। रहाउ।

अर्थ: हे प्यारे प्रभु जी! (तू हमारा पति है) पति वाले फर्ज पूरे कर। (चाहे हम) बुरे हैं (चाहे हम) अच्छे हैं, हम तेरे ही हैं (हमारे विकारों के बंधन काट)। रहाउ।

सुणी पुकार समरथ सुआमी बंधन काटि सवारे ॥ पहिरि सिरपाउ सेवक जन मेले नानक प्रगट पहारे ॥२॥२९॥९३॥

पद्अर्थ: समरथ = सारी ताकतों के मालिक। काटि = काट के। सवारे = सुंदर जीवन वाले बना दिए। पहिरि = पहना के। सिरपाउ = सिरोपा, आदर मान वाला पोशाका। प्रगट = मशहूर। पहारे = जगत में।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जिस सेवकों की) पुकार सब ताकतों के मालिक प्रभु ने सुन ली, उनके (माया के) बंधन काट के प्रभु ने उनके जीवन सुंदर बना दिए। उन सेवकों को दासों को आदर-मान दे के अपने चरणों में मिला लिया, और, संसार में प्रमुख कर दिया।2।29।93।

सोरठि महला ५ ॥ जीअ जंत सभि वसि करि दीने सेवक सभि दरबारे ॥ अंगीकारु कीओ प्रभ अपुने भव निधि पारि उतारे ॥१॥

पद्अर्थ: जीअ जंत सभि = जीव-जंतु सब, सारे जीव और सारे जंतु। वसि = वश में। दरबारे = दरबार में (जगह देता है)। अंगीकारु = पक्ष, सहायता। भव निधि = संसार समुंदर। पारि उतारे = पार लंघा लिए।1।

अर्थ: हे भाई! हमारा पति दीनों पर दया करने वाला है, कृपा का घर है, कृपा का खजाना है, सब ताकतों का मालिक है। (हमारा पति-प्रभु) संत जनों के सारे काम सँवार देता है (दुनिया के) सारे जीवों को उनके आज्ञाकार बना देता है। सेवकों का सदा पक्ष करता है, और, उनको संसार समुंदर से पार लंघा लेता है।1।

संतन के कारज सगल सवारे ॥ दीन दइआल क्रिपाल क्रिपा निधि पूरन खसम हमारे ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सगल = सारे। सवारे = सवार देता है। क्रिपाल = कृपा का घर। क्रिपा निधि = कृपा का खजाना। पूरन = सब ताकतों वाले। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (हमारा पति-प्रभु) सँत-जनों के सारे काम सँवार देता है।

हमारा पति दीनों पर दया करने वाला है, कृपा का घर है, कृपा का खजाना है, सब ताकतों का मालिक है। रहाउ।

आउ बैठु आदरु सभ थाई ऊन न कतहूं बाता ॥ भगति सिरपाउ दीओ जन अपुने प्रतापु नानक प्रभ जाता ॥२॥३०॥९४॥

पद्अर्थ: सभ थाई = सब जगहों पर। ऊन = कमी। कतहूँ बाता = किसी भी बात की। प्रताप = तेज। जाता = जाना जाता है, उघड़ पड़ता है।2।

अर्थ: हे नानक! (कह: परमात्मा के सेवकों को संत जनों को) हर जगह आदर मिलता है (हर जगह लोग) स्वागत करते हैं। (संतजनों को) किसी बात की कोई कमी नहीं रहती। परमात्मा अपने सेवकों को भक्ति (का) सिरोपा बख्शता है (इस तरह) परमात्मा का तेज-प्रताप (सारे संसार में) रौशन हो जाता है।2।30।94।

सोरठि महला ९    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

रे मन राम सिउ करि प्रीति ॥ स्रवन गोबिंद गुनु सुनउ अरु गाउ रसना गीति ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: सिउ = से। प्रीति = प्यार। स्रवन = कानों से। गोबिंद गुन = गोबिंद के गुण, परमात्मा की महिमा के गीत। अरु = और। (शब्द ‘अरु’ और ‘अरि’ में फर्क है)। रसना = जीभ से।1। रहाउ।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा से प्यार बना। (हे भाई!) कानों से परमात्मा की स्तुति सुना कर, और, जीभ से परमात्मा (की महिमा) के गीत गाया कर। रहाउ।

करि साधसंगति सिमरु माधो होहि पतित पुनीत ॥ कालु बिआलु जिउ परिओ डोलै मुखु पसारे मीत ॥१॥

पद्अर्थ: माधो = माधव, माया का पति, प्रभु। होहि = हो जाते हैं। पतित = विकारों में गिरे हुए, विकारी लोग। पुनीत = पवित्र। बिआल = व्याल, साँप। जिउ = जैसे। परिओ डोलै = फिर रहा है। पसारे = पसार के, बिखेर के, खोल के। मीत = हे मित्र!।1।

अर्थ: हे भाई! गुरमुखों की संगत किया कर, परमात्मा का स्मरण करता रह। (नाम-जपने की इनायत से) विकारी भी पवित्र बन जाते हैं। हे मित्र! (इस काम में आलस ना कर, देख) मौत साँप की तरह मुँह खोल के घूम रही है।1।

आजु कालि फुनि तोहि ग्रसि है समझि राखउ चीति ॥ कहै नानकु रामु भजि लै जातु अउसरु बीत ॥२॥१॥

पद्अर्थ: आजु कालि = आज कल, जल्दी ही। फुनि तोहि = तुझे भी। ग्रसि है = ग्रस लेगा, हड़प जाएगा। चीति = चिक्त में। कहै नानकु = नानक कहता है। जातु बीत = बीतता जा रहा है। अउसरु = जिंदगी का समय।2।

अर्थ: हे भाई! अपने चिक्त में ये बात समझ ले कि (ये मौत) तुझे भी जल्दी ही हड़प कर लेगी। नानक (तुझे) कहता है: (अब अभी वक्त है) परमात्मा का भजन कर ले, ये वक्त गुजरता जा रहा है।2।1।

सोरठि महला ९ ॥ मन की मन ही माहि रही ॥ ना हरि भजे न तीरथ सेवे चोटी कालि गही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माहि = में। रही = रह गई। भजे = भजन किया। तीरथ = (तीर्थ = a holy person) संत जन। सेवे = सेवा की। चोटी = बोदी। कालि = काल ने। गही = पकड़ ली।1। रहाउ।

नोट: देखें;

1. “नामि रते तीरथ से निरमल, दुखु हउमै मैलु चुकाइआ॥
....नानकु तिन के चरन पखालै, जिना गुरमुखि साचा भाइआ॥ ” (प्रभाती महला १, पंन्ना 1345)

2. सोरठि महला ९ “ना हरि भजिओ ना गुरजनु सेविओ” पंना 632 (शब्द तीजा)

अर्थ: (हे भाई! देखो, माया धारी के दुर्भाग्य! उस के) मन की आस मन में ही रह गई। ना उसने परमात्मा का भजन किया, ना ही उसने संतजनों की सेवा की, और, मौत ने चोटी आ पकड़ी।1। रहाउ।

दारा मीत पूत रथ स्मपति धन पूरन सभ मही ॥ अवर सगल मिथिआ ए जानउ भजनु रामु को सही ॥१॥

पद्अर्थ: दारा = स्त्री। पूत = पुत्र। रथ = गाड़ियां। संपति = माल असबाब। सभ मही = सारी धरती। अवर = और। सगल = सारा। मिथिआ = नाशवान। जानहु = समझो। को = का। सही = ठीक, साथ निभाने वाला, असल साथी।1।

अर्थ: हे भाई! स्त्री, मित्र, पुत्र, गाड़ियां, माल असबाब, धन पदार्थ, सारी ही धरती - ये सब कुछ नाशवान समझो। परमात्मा का भजन (ही) असल (साथी) है।1।

फिरत फिरत बहुते जुग हारिओ मानस देह लही ॥ नानक कहत मिलन की बरीआ सिमरत कहा नही ॥२॥२॥

पद्अर्थ: जुग = जुगों में। हारिओ = थक गया। मानस देह = मानव शरीर। लही = मिला। बरीआ = बारी। कहा नही = क्यों नही?।2।

अर्थ: हे भाई! कई युग (जोनियों में) भटक-भटक के तू थक गया था। (अब) तुझे मनुष्य का शरीर मिला है। नानक कहता है: (हे भाई! परमात्मा को) मिलने की यही बारी है, अब तू स्मरण क्यों नहीं करता?।2।2।

सोरठि महला ९ ॥ मन रे कउनु कुमति तै लीनी ॥ पर दारा निंदिआ रस रचिओ राम भगति नहि कीनी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कुमति = बुरी मति। दारा = स्त्री। रासि = रस में। रचिओ = मस्त है। रहाउ।

अर्थ: हे मन! तूने कैसी कुबुद्धि ले ली है? तू पराई स्त्री, पराई निंदा के रस में मस्त रहता है। परमात्मा की भक्ति तूने (कभी) नहीं की।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh