श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मुकति पंथु जानिओ तै नाहनि धन जोरन कउ धाइआ ॥ अंति संग काहू नही दीना बिरथा आपु बंधाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: मुकति पंथु = (इन) विकारों से खलासी का रास्ता। नाहनि = नहीं। धाइआ = दौड़ा फिरता है। संग = साथ। काहू = किसी ने भी। बिरथा = व्यर्थ ही। आपु = अपने आप को।1।

अर्थ: हे भाई! तूने विकारों से खलासी पाने का रास्ता (अभी तक) नहीं समझा, धन एकत्र करने के लिए तू सदा दौड़-भाग करता रहा है। (दुनिया के पदार्थों में से) किसी ने भी आखिर में किसी का साथ नहीं दिया। तूने व्यर्थ ही अपने आप को (माया के मोह में) जकड़ रखा है।1।

ना हरि भजिओ न गुर जनु सेविओ नह उपजिओ कछु गिआना ॥ घट ही माहि निरंजनु तेरै तै खोजत उदिआना ॥२॥

पद्अर्थ: गिआना = आत्मिक जीवन की सूझ। घट = हृदय। तेरै घट ही माहि = तेरे हृदय में ही। उदिआना = जंगल।2।

अर्थ: हे भाई! (अभी तक) ना तूने परमात्मा की भक्ति की है, ना गुरु की शरण पड़ा है, ना ही तेरे अंदर आत्मिक जीवन की सूझ आई है। माया से निर्लिप प्रभु तेरे हृदय में बस रहा है, पर तू (बाहर) जंगलों में उसे तलाश रहा है।2।

बहुतु जनम भरमत तै हारिओ असथिर मति नही पाई ॥ मानस देह पाइ पद हरि भजु नानक बात बताई ॥३॥३॥

पद्अर्थ: तै हारिओ = तूने (मानव जनम की बाजी) हार ली है। असथिर = अडोलता में रखने वाली। मानस देह पद = मानव शरीर का दर्जा। पाइ = पा के। नानक = हे नानक!।3।

अर्थ: हे भाई! अनेक जन्मों में भटक-भटक के तूने (मनुष्य जन्म की बाजी) हार ली है, तूने ऐसी अक्ल नहीं सीखी जिसकी इनायत से (जन्मों के चक्करों में से) तुझे अडोलता हासिल हो सके। हे नानक! (कह: हे भाई! गुरु ने तो ये) बात समझाई है कि मानव जन्म का (ऊँचा) दर्जा हासिल करके परमात्मा का भजन कर।3।3।

सोरठि महला ९ ॥ मन रे प्रभ की सरनि बिचारो ॥ जिह सिमरत गनका सी उधरी ता को जसु उर धारो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: बिचारो = (परमात्मा के नाम का) ध्यान धर। जिह सिमरत = जिसको स्मरण करते हुए। गनका = वेश्वा (देखें भाई गुरदास जी की वार दसवीं) किसी संत ने इसे एक तोता दिया था, जो ‘राम राम’ उचारता था। उससे ‘राम राम’ नाम-जपने की लगन इस वेश्वा को भी लग गई थी। उर = हृदय में।1। रहाउ।

अर्थ: हे मन! परमात्मा की शरण पड़ कर उसके नाम का ध्यान धरा कर। जिस परमात्मा का स्मरण करके गनिका (विकारों में डूबने से) बच गई थी तू भी, (हे भाई!) उसकी महिमा अपने दिल में बसाए रख। रहाउ।

अटल भइओ ध्रूअ जा कै सिमरनि अरु निरभै पदु पाइआ ॥ दुख हरता इह बिधि को सुआमी तै काहे बिसराइआ ॥१॥

पद्अर्थ: ध्रूअ = ध्रुव (देखें भाई गुरदास जी की वार दसवीं) राजा उक्तानपाद का पुत्र। सौतेली माँ द्वारा अपमान से उपराम हो के जंगल में भक्ति करने लगा, और सदा के लिए अटल शोभा कमा ली। सिमरन = स्मरण से। निरभै पदु = निर्भयता का आत्मिक दर्जा। इह बिधि को = इस तरह की। हरता = दूर करने वाला। काहे = क्यों?।1।

अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा के स्मरण से ध्रूव सदा के लिए अटल हो गया है और उसने निर्भयता का आत्मिक दर्जा हासिल कर लिया था, तूने उस परमात्मा को क्यों भुलाया हुआ है, वह तो इस तरह के दुखों का नाश करने वाला है।1।

जब ही सरनि गही किरपा निधि गज गराह ते छूटा ॥ महमा नाम कहा लउ बरनउ राम कहत बंधन तिह तूटा ॥२॥

पद्अर्थ: गही = पकड़ी। गज = हाथी (देखें भाई गुरदास जी की वार दसवीं) एक गंधर्व श्राप के कारण हाथी की जूनि में जा पड़ा था। जब ये वरुण के तालाब में घुसा, तो एक तेंदुए ने उसे पकड़ लिया। राम-नाम की इनायत से तेंदुए के पंजे से बचा।2।

अर्थ: हे भाई! जिस वक्त ही (हाथी ने) कृपा के समुंदर परमात्मा का आसरा लिया वह हाथी (गज) तेंदुए की पकड़ से निकल गया। मैं कहाँ तक परमात्मा के नाम की बड़ाई बताऊँ? परमात्मा का नाम उचार के उस (हाथी) के बंधन टूट गए थे।2।

अजामलु पापी जगु जाने निमख माहि निसतारा ॥ नानक कहत चेत चिंतामनि तै भी उतरहि पारा ॥३॥४॥

पद्अर्थ: अजामलु = कनौज का एक वैश्वागामी ब्राहमण। किसी महात्मा के कहने पर इसने अपने एक पुत्र का नाम ‘नारायण’ रखा। वहीं से ‘नारायण’ का स्मरण करने की लगन लग गई, और, विकारों से बच निकला। चेत = स्मरण कर। चिंतामन = परमात्मा, वह मणि जो हरेक चितवनी पूरी करती है।3।

अर्थ: हे भाई! सारा जगत जानता है कि अजामल विकारी था (परमात्मा के नामका स्मरण करके) पलक झपकने जितने समय में ही उसका पार-उतारा हो गया था। नानक कहता है: (हे भाई! तू) सारी चितवनियां पूरी करने वाले परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। तू भी (संसार समुंदर से) पार लांघ जाएगा।3।4।

सोरठि महला ९ ॥ प्रानी कउनु उपाउ करै ॥ जा ते भगति राम की पावै जम को त्रासु हरै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कउनु उपाउ = कौन सा उपाय? जा ते = जिससे। को = का। त्रासु = डर। हरै = दूर कर लिए।1।

अर्थ: (हे भाई! बता) मनुष्य वह कौन से उपाय करे जिससे परमात्मा की भक्ति प्राप्त कर सके, और जम का डर दूर कर सके।1। रहाउ।

कउनु करम बिदिआ कहु कैसी धरमु कउनु फुनि करई ॥ कउनु नामु गुर जा कै सिमरै भव सागर कउ तरई ॥१॥

पद्अर्थ: कउनु करम = कौन सा कर्म? कहु = बताओ। करई = करे। कउनु नाम गुर = गुरु का कौन सा नाम? जा कै सिमरै = जिसके स्मरण से। कउ = को। तरई = पार लांघ जाए।1।

अर्थ: (हे भाई!) बता, वह कौन से (धार्मिक) कर्म हैं, वह कैसी विद्या है, वह कौन सा धर्म है (जो मनुष्य) करे; वह कौन सा गुरु का (बताया) नाम है जिसका स्मरण करने से मनुष्य संसार समुंदर से पार लांघ सकता है।1।

कल मै एकु नामु किरपा निधि जाहि जपै गति पावै ॥ अउर धरम ता कै सम नाहनि इह बिधि बेदु बतावै ॥२॥

पद्अर्थ: कल मह = कलियुग में, जगत में। किरपा निधि नामु = कृपा के खजाने प्रभु का नाम। जाहि = जिसे। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। सम = बराबर। नाहिन = नही। बिधि = युक्ति।2।

अर्थ: (हे भाई!) कृपा के खजाने परमात्मा का नाम ही जगत में है जिसको (जो मनुष्य) जपता है (वह) उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। और किसी तरह के भी कोई कर्म उस (नाम) के बराबर नहीं हें- वेद (भी) यह युक्ति बताता है।2।

सुखु दुखु रहत सदा निरलेपी जा कउ कहत गुसाई ॥ सो तुम ही महि बसै निरंतरि नानक दरपनि निआई ॥३॥५॥

पद्अर्थ: सुख दुख रहत = सुखों दुखो से अलग। जा कउ = जिस को। गुसाई = धरती का पति। निरंतरि = एक रस, बिना दूरी के। दरपन निआई = शीशे की तरह।3।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिसे (जगत) धरती का पति (गोसाई) कहता है वह सुखों दुखों से अलग रहता है, वह सदा (माया से) निर्लिप रहता है। वह तेरे अंदर भी एक रस बस रहा है, जैसे शीशे (में अक्स बसता हैं उसका सदा स्मरण करना चाहिए)।3।5।

सोरठि महला ९ ॥ माई मै किहि बिधि लखउ गुसाई ॥ महा मोह अगिआनि तिमरि मो मनु रहिओ उरझाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माई = हे माँ! किहि बिधि = किस तरह? लखउ = मैं पहचानूँ। अगिआनी = अज्ञान में। तिमरि = अंधेरे में। मो मनु = मेरा मन।1।

अर्थ: हे माँ! धरती के प्रभु-पति को मैं किस तरह पहचानूँ? मेरा मन (तो) बड़े मोह भरी अग्यानता में, मोह के अँधेरे में (सदा) फसा रहता है।1। रहाउ।

सगल जनम भरम ही भरम खोइओ नह असथिरु मति पाई ॥ बिखिआसकत रहिओ निस बासुर नह छूटी अधमाई ॥१॥

पद्अर्थ: भरम ही = भ्रम ही, भटकन ही। खोइओ = गवा लिया है। असथिरु = अडोल रहने वाली। बिखिआसकत = (बिखिया+आस्तक) माया में लंपट। निस = रात। बासुर = दिन। अधमाई = नीचता।1।

नोट: ‘भरम ही’ के बारे में। यहां शब्द ‘भ्रमि’ की ‘ि’ मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हटा दी गई है।

अर्थ: हे माँ! धरती के पति प्रभु को मैं किस तरह पहचानूँ? मेरा मन (तो) बड़े मोह की अज्ञानता में, मोह के अंधेरे में (सदा) फसा रहा (अभी तक ऐसी) मति नहीं हासिल की (जो मुझे) अडोल रख सके। दिन-रात मैं माया में ही लिपटा रहता हूँ। मेरी ये नीचता खत्म होने को नहीं आती।1।

साधसंगु कबहू नही कीना नह कीरति प्रभ गाई ॥ जन नानक मै नाहि कोऊ गुनु राखि लेहु सरनाई ॥२॥६॥

पद्अर्थ: संगु = साथ, मेल मिलाप, संगति। कीरति = महिमा। प्रभ = प्रभु की।2।

अर्थ: हे माँ! मैंने कभी गुरमुखों की संगति नहीं की, मैंने कभी परमात्मा के महिमा का गीत नहीं गाया। हे दास नानक! (कह: हे प्रभु!) मेरे अंदर कोई गुण नहीं है। मुझे अपनी शरण में रख।2।6।

सोरठि महला ९ ॥ माई मनु मेरो बसि नाहि ॥ निस बासुर बिखिअन कउ धावत किहि बिधि रोकउ ताहि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: माई = हे माँ! मेरो = मेरा। बसि = वश में। निस = रात। बासुर = दिन। बिखिअन कउ = विषियों की खातिर। धावत = दौड़ता है। किहि बिधि = किस तरीके से? रोकउ = रोकूँ। ताहि = उसको।1। रहाउ।

अर्थ: हे माँ! मेरा मन मेरे काबू में नहीं। रात-दिन पदार्थों की खातिर दौड़ता फिरता है। मैं इसे कैसे रोकूँ?।1। रहाउ।

बेद पुरान सिम्रिति के मत सुनि निमख न हीए बसावै ॥ पर धन पर दारा सिउ रचिओ बिरथा जनमु सिरावै ॥१॥

पद्अर्थ: के = का। मत = उपदेश, ख्याल। निमख = आँख झपकने जितना समय। हीए = हृदय में। दारा = स्त्री। सिउ = साथ। सिरावै = गुजारता है।1।

अर्थ: ये जीव वेदों-पुराणों-स्मृतियों का उपदेश सुन के (भी) रक्ती भर समय के लिए भी (उस उपदेश को अपने) हृदय में नहीं बसाता। पराए धन, पराई स्त्री के मोह में मस्त रहता है, (इस तरह अपना) जनम व्यर्थ गुजारता है।1।

मदि माइआ कै भइओ बावरो सूझत नह कछु गिआना ॥ घट ही भीतरि बसत निरंजनु ता को मरमु न जाना ॥२॥

पद्अर्थ: मदि = नशे में। बावरो = कमला, झल्ला। गिआना = आत्मिक जीवन की समझ। भीतरि = में। मरमु = भेद। को = का।2।

अर्थ: जीव माया के नशे में पागल हो रहा है, आत्मिक जीवन के बारे में इसे कोई सूझ नहीं आती। माया से निर्लिप प्रभु इसके दिल में ही बसता है पर ये भेद ये जीव नहीं समझता।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh