श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 640 मेरा तेरा छोडीऐ भाई होईऐ सभ की धूरि ॥ घटि घटि ब्रहमु पसारिआ भाई पेखै सुणै हजूरि ॥ जितु दिनि विसरै पारब्रहमु भाई तितु दिनि मरीऐ झूरि ॥ करन करावन समरथो भाई सरब कला भरपूरि ॥४॥ पद्अर्थ: मेरा तेरा = मेर तेर, भेद भाव। होईऐ = बन जाना चाहिए। धूरि = राख। घटि घटि = हरेक घट में। हजूरि = अंग संग हो के। जितु = जिस में। दिनि = दिन में। जितु दिनि = जिस दिन में। तितु दिनि = उस दिन में। मरीऐ = मरते हैं। झूरि = पछता के। करन करावन समरथो = सब कुछ कर सकने वाला और (जीवों से) करवा सकने वाला। कला = शक्ति।4। अर्थ: हे भाई! भेद भाव त्याग देने चाहिए, सबके चरणों की धूल बन जाना चाहिए। हे भाई! परमात्मा हरेक शरीर में बस रहा है, वह सबके अंग-संग हो के (सबके कामों को) देखता है (सबकी बातें) सुनता है। हे भाई! जिस दिन परमात्मा भूल जाए, उस दिन दुखी हो के (हम) आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं। हे भाई! (ये याद रखो कि) परमात्मा सब कुछ कर सकने वाला है और (जीवों से) करवा सकने वाला है। परमात्मा में सारी ताकतें मौजूद हैं।4। प्रेम पदारथु नामु है भाई माइआ मोह बिनासु ॥ तिसु भावै ता मेलि लए भाई हिरदै नाम निवासु ॥ गुरमुखि कमलु प्रगासीऐ भाई रिदै होवै परगासु ॥ प्रगटु भइआ परतापु प्रभ भाई मउलिआ धरति अकासु ॥५॥ पद्अर्थ: पदारथु = कीमती धन। मोह बिनासु = मोह का नाश। तिसु भावै = उस (परमात्मा) को अच्छा लगे। हिरदै = हृदय में। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ने से। रिदै = दिल में। परगासु = प्रकाश। प्रगट भइआ = उघड़ आया, सामने आ गया। परतापु = ताकत। मउलिआ = खिला हुआ।5। अर्थ: हे भाई! (जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के) प्यार का कीमती धन मौजूद है, हरि-नाम मौजूद है (उसके अंदर से) माया के मोह का नाश हो जाता है। हे भाई! उस परमात्मा को (जब) अच्छा लगे तब वह (जिसको अपने चरणों में) मिला लेता है (उसके) हृदय में उस प्रभु के नाम का निवास हो जाता है। हे भाई! गुरु के सन्मुख होने से (हृदय का) कमल फूल खिल उठता है, दिल में (आत्मिक जीवन की सूझ का) प्रकाश हो जाता है। हे भाई! (गुरु की शरण पड़ने से मनुष्य के अंदर) परमात्मा की ताकत प्रकट हो जाती है (मनुष्य को समझ आ जाता है कि परमात्मा बेअंत शक्तियों का मालिक है, और प्रभु की ताकत से ही) धरती खिली हुई है, आकाश खिला हुआ है।5। गुरि पूरै संतोखिआ भाई अहिनिसि लागा भाउ ॥ रसना रामु रवै सदा भाई साचा सादु सुआउ ॥ करनी सुणि सुणि जीविआ भाई निहचलु पाइआ थाउ ॥ जिसु परतीति न आवई भाई सो जीअड़ा जलि जाउ ॥६॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। संतोखिआ = संतोष दिया। अहि = दिन। निसि = रात। भाउ = प्रेम। रसना = जीभ (से)। रवै = स्मरण करता है। साचा = सदा कायम रहने वाला। सुआउ = स्वार्थ, उद्देश्य, लक्ष्य। करनी = कर्णों से, कानों से। जीअड़ा = (दुर्भाग्य भरी) जीवात्मा। जलि जाउ = जल जाए, (विकारों में) जल जाती है।6। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को पूरे गुरु ने संतोख की दाति दे दी, (उसके अंदर) दिन रात (प्रभु चरणों का) प्यार बना रहता है, वह मनुष्य सदा (अपनी) जीभ से परमात्मा का नाम जपता रहता है। (नाम जपने का ये) स्वाद (ये) निशाना (उसके अंदर) सदा कायम रहता है। हे भाई! वह मनुष्य अपने कानों से (परमात्मा की महिमा) सुन-सुन के आत्मिक जीवन हासिल करता रहता है, (वह प्रभु-चरणों में) अटल स्थान की प्राप्ति बनाए रहता है। पर, हे भाई! जिस मनुष्य को (गुरु पर) ऐतबार नहीं होता उसकी (दुर्भाग्यपूर्ण) जीवात्मा (विकारों में) जल जाती है (और आत्मिक मौत सहेड़ लेती है)।6। बहु गुण मेरे साहिबै भाई हउ तिस कै बलि जाउ ॥ ओहु निरगुणीआरे पालदा भाई देइ निथावे थाउ ॥ रिजकु स्मबाहे सासि सासि भाई गूड़ा जा का नाउ ॥ जिसु गुरु साचा भेटीऐ भाई पूरा तिसु करमाउ ॥७॥ पद्अर्थ: साहिबै = साहिब में। हउ = मैं। तिस कै = उससे। बलि = सदके। जाउ = जाऊँ। देइ = देता है। संबाहे = पहुँचाता है। सासि सासि = हरेक सांस में। गूढ़ा = गाढ़ा प्रेम रंग देने वाला। भेटीऐ = मिल जाते हैं। करमाउ = किस्मत से।7। नोट: ‘तिस कै’ में ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘कै’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! मेरे मालिक प्रभु में बेअंत गुण हैं, मैं उससे सदके-कुर्बान जाता हूँ। हे भाई! वह मालिक गुणहीन को (भी) पालता है, वह निआसरे मनुष्य को सहारा देता है। वह मालिक हरेक सांस के साथ रिजक पहुँचाता है, उसका नाम (स्मरण करने वाले के मन पर प्रेम का) गाढ़ा रंग चढ़ा देता है। हे भाई! जिस मनुष्य को सच्चा गुरु मिल जाता है (उसको प्रभु मिल जाता है) उसकी किस्मत जाग जाती है।7। तिसु बिनु घड़ी न जीवीऐ भाई सरब कला भरपूरि ॥ सासि गिरासि न विसरै भाई पेखउ सदा हजूरि ॥ साधू संगि मिलाइआ भाई सरब रहिआ भरपूरि ॥ जिना प्रीति न लगीआ भाई से नित नित मरदे झूरि ॥८॥ पद्अर्थ: न जीवीऐ = जी नहीं सकते, आत्मिक जीवन नहीं मिल सकता। कला = ताकतें। सासि = (हरेक) सांस के साथ। गिरासि = ग्रास के साथ। सासि गिरासि = सांस लेते हुए और खाते हुए। पेखउ = मैं देखता हूँ। हजूरि = अंग संग। साधू संगि = गुरु की संगति में। मरदे = आत्मिक मौत सहेड़ते हैं। झूरि = चिंतातुर हो के।8। अर्थ: हे भाई! वह परमात्मा सारी ही ताकतों से भरपूर है, उस (की याद) के बिना एक घड़ी भी (मनुष्य का) आत्मिक जीवन कायम नहीं रह सकता। हे भाई! मैं तो उस परमात्मा को अपने अंग-संग बसता देखता हूँ, मुझे वह खाते हुए सांस लेते हुए कभी भी नहीं भूलता। हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा ने गुरु की संगति में मिला दिया, उसे वह परमात्मा हर जगह मौजूद दिखाई देने लग जाता है। पर, हे भाई! जिनके अंदर परमात्मा का प्यार पैदा नहीं होता, वह सदा चिंतातुर हो-हो के आत्मिक मौत मरता रहता है।8। अंचलि लाइ तराइआ भाई भउजलु दुखु संसारु ॥ करि किरपा नदरि निहालिआ भाई कीतोनु अंगु अपारु ॥ मनु तनु सीतलु होइआ भाई भोजनु नाम अधारु ॥ नानक तिसु सरणागती भाई जि किलबिख काटणहारु ॥९॥१॥ पद्अर्थ: अंचलि = पल्ले से। भउजलु = संसार समुंदर। करि = कर के। नदरि = मेहर की निगाह। निहालिआ = देखा। कीतोनु = उस ने किया। अंगु = पक्ष। अपारु = बेअंत। सीतल = ठंडा। अधारु = आसरा। किलबिख = पाप। काटणहारु = काट सकने वाला। जि = जो।9। अर्थ: हे भाई! (शरण में आए मनुष्य को) अपने पल्लू से लगा के परमात्मा खुद इस दुख-रूपी संसार-समुंदर से पार लंघा लेता है। प्रभु (उस पर) कृपा करके (उसको) मेहर की निगाह से देखता है, उसका बेअंत पक्ष करता है। हे भाई! मनुष्य का मन ठंडा हो जाता है, शरीर शांत हो जाता है, वह (अपने आत्मिक जीवन के लिए) नाम की खुराक़ (खाता है), नाम का सहारा लेता है। हे नानक! (कह:) हे भाई! उस परमात्मा की शरण पड़ो, जो सारे पाप काट सकता है।9।1। सोरठि महला ५ ॥ मात गरभ दुख सागरो पिआरे तह अपणा नामु जपाइआ ॥ बाहरि काढि बिखु पसरीआ पिआरे माइआ मोहु वधाइआ ॥ जिस नो कीतो करमु आपि पिआरे तिसु पूरा गुरू मिलाइआ ॥ सो आराधे सासि सासि पिआरे राम नाम लिव लाइआ ॥१॥ पद्अर्थ: मात गरभ = माता का पेट। सागरो = समुंदर। तह = वहाँ, उस पेट में। काढि = निकाल के। बिखु = जहर, आत्मिक जीवन को खत्म करने वाले मोह का जहर। पसरीआ = बिखेर दी। करमु = बख्शिश। तिसु = उस मनुष्य को। आराधे = स्मरण करता है। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। लिव = लगन, प्रीति।1। नोट: ‘जिस नो’ में से ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे प्यारे (भाई)! माँ का पेट दुखों का समुंदर है, वहाँ (प्रभु ने जीव से) अपने नाम का स्मरण करवाया (और, इसे दुखों से बचाए रखा)। माँ के पेट में से निकाल के (जन्म दे के, प्रभु ने जीव के लिए, आत्मिक जीवन को समाप्त कर देने वाली माया के मोह का) जहर बिखेर दिया (और, इस तरह जीव के हृदय में) माया का मोह बढ़ा दिया। हे भाई! जिस मनुष्य पर प्रभु स्वयं मेहर करता है, उसको पूरे गुरु से मिलवाता है। वह मनुष्य हरेक सांस के साथ परमात्मा का स्मरण करता है, और, परमात्मा के नाम की लगन (अपने अंदर) बनाए रखता है।1। मनि तनि तेरी टेक है पिआरे मनि तनि तेरी टेक ॥ तुधु बिनु अवरु न करनहारु पिआरे अंतरजामी एक ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। टेक = आसरा। अवरु = कोई और। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। रहाउ। अर्थ: हे प्यारे प्रभु! (मेरे) मन में (मेरे) हृदय में सदा तेरा ही आसरा है (तू ही माया के मोह से बचाने वाला है)। हे प्यारे प्रभु! तू ही सबके दिलों की जानने वाला है। तेरे बिना और कोई नहीं जो सब कुछ करने की सामर्थ्य वाला हो। रहाउ। कोटि जनम भ्रमि आइआ पिआरे अनिक जोनि दुखु पाइ ॥ साचा साहिबु विसरिआ पिआरे बहुती मिलै सजाइ ॥ जिन भेटै पूरा सतिगुरू पिआरे से लागे साचै नाइ ॥ तिना पिछै छुटीऐ पिआरे जो साची सरणाइ ॥२॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। भ्रमि = भटक के। पाइ = पा के, सह के। साचा = सदा कायम रहने वाला। जिन = जिन्हें। भेटै = मिलता है। नाइ = नाम में। साचै नाइ = सदा स्थिर रहने वाले प्रभु के नाम में। तिना पिछे = उन की शरण पड़ कर। छुटीऐ = (माया के मोह से) बच जाते हैं।2। अर्थ: हे भाई! अनेक जूनियों के दुख सह के करोड़ों जन्मों में भटक के (जीव मनुष्य के जन्म में) आता है, (पर, यहाँ इसे) सदा कायम रहने वाला मालिक भूल जाता है, और इसे बड़ी सजा मिलती है। हे भाई! जिस मनुष्यों को पूरा गुरु मिल जाता है, वे सदा-स्थिर प्रभु के नाम में तवज्जो जोड़ते हैं। हे भाई! जो मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु की शरण में पड़े रहते हैं, उनके पद्-चिन्हों पर चल के (माया के मोह के जहर से) बचा जाता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |