श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 641 मिठा करि कै खाइआ पिआरे तिनि तनि कीता रोगु ॥ कउड़ा होइ पतिसटिआ पिआरे तिस ते उपजिआ सोगु ॥ भोग भुंचाइ भुलाइअनु पिआरे उतरै नही विजोगु ॥ जो गुर मेलि उधारिआ पिआरे तिन धुरे पइआ संजोगु ॥३॥ पद्अर्थ: तिनि = उस (मीठे) ने। तनि = शरीर में। कउड़ा = दुखदाई। पतिसटिआ = प्रस्थापित हुआ, टिक गया (प्रस्था = to stand firmly)। सोगु = ग़म, चिन्ता। भोग = दुनिया के स्वादिष्ट पदार्थ। भुंचाइ = खिला के। भुलाइअनु = उस (प्रभु) ने भुलवा दिए, गलत राह पर डाल दिया। विजोगु = विछोड़ा। गुर मेलि = गुरु को मिला के। उधारिआ = विकारों से बचा लिया। तिन संजोगु = उनका (प्रभु से) मिलाप। धुरे = धुर से ही, प्रभु की हजूरी से ही। पइआ = लिखा पड़ा था।3। नोट: ‘तिस ते’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘ते’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! मनुष्य ने (सारी उम्र दुनिया के पदार्थों को) मीठा समझ के खाया, उस मीठे ने (उसके) शरीर में रोग पैदा कर दिए। वह रोग दुखदाई हो के शरीर में पक्का टिक जाता है उस (रोग) से चिन्ता-ग़म पैदा होती है। दुनियावी पदार्थ खिला-खिला के उस परमात्मा ने (खुद ही जीव को) गलत रास्ते पर डाल रखा है। (परमात्मा से जीव का) विछोड़ा खत्म होने को नहीं आता। जिस जीवों को गुरु से मिला के प्रभु ने (पदार्थों के भोगों से) बचा लिया, धुर से लिखे अनुसार उनका (परमात्मा से) मिलाप हो गया।3। माइआ लालचि अटिआ पिआरे चिति न आवहि मूलि ॥ जिन तू विसरहि पारब्रहम सुआमी से तन होए धूड़ि ॥ बिललाट करहि बहुतेरिआ पिआरे उतरै नाही सूलु ॥ जो गुर मेलि सवारिआ पिआरे तिन का रहिआ मूलु ॥४॥ पद्अर्थ: लालचि = लालच में। अटिआ = लिबड़ा हुआ। चिति = चिक्त में। मूलि = बिल्कुल ही। पारब्रहम = हे परमात्मा! से तन = (बहुवचन) वह शरीर। धूड़ि = मिट्टी, ख़ाक। बिललाट = विरलाप। करहि = करते हैं। सूलु = पीड़ा। तिन का मूलु = उनका आत्मिक जीवन की संपत्ति। रहिआ = बचा रहता है।4। अर्थ: हे प्यारे प्रभु! जो मनुष्य (सदा) माया के लालच में फसे रहते हैं, उनके चिक्त में तू बिल्कुल ही नहीं बसता। हे मालिक प्रभु! जिनको तेरी याद भूल जाती है वह शरीर (आत्मिक जीवन की पूंजी बनाए बग़ैर ही) मिट्टी हो जाते हैं। (माया के मोह के कारण दुखी हो हो के) वे बहुत बिलकते हैं, पर उनके अंदर का वह दुख दूर नहीं होता। हे भाई! गुरु से मिल के जिनका जीवन परमात्मा सुंदर बना देता है, उनके आत्मिक जीवन की पूंजी बची रहती है।4। साकत संगु न कीजई पिआरे जे का पारि वसाइ ॥ जिसु मिलिऐ हरि विसरै पिआरे सुो मुहि कालै उठि जाइ ॥ मनमुखि ढोई नह मिलै पिआरे दरगह मिलै सजाइ ॥ जो गुर मेलि सवारिआ पिआरे तिना पूरी पाइ ॥५॥ पद्अर्थ: साकत संगु = परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य का साथ। कीजई = करना चाहिए। जे का = जितना। पारि वसाइ = बस चल सके। जिसु मिलिऐ = जिस (साकत) को मिलने से। सुो = (असल शब्द ‘सो’ है यहाँ ‘सु’ पढ़ना है)। मुहि कालै = काले मुँह से, बदनामी कमा के। उठि = उठ के। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। ढोई = जगह, आसरा। गुर मेलि = गुरु को मिला के। पूरी पाइ = सफलता प्रज्ञपत होती है।5। अर्थ: हे भाई! जहाँ तक बस चले, परमात्मा से टूटे हुए मनुष्य का संग नहीं करना चाहिए, क्योंकि उस मनुष्य को मिलने से परमात्मा बिसर जाता है। (जो मनुष्य साकत का संग करता है) वह बदनामी कमा के दुनिया से चला जाता है। हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य को परमात्मा की दरगाह में जगह नहीं मिलती, (उसे बल्कि वहाँ) सजा मिलती है। पर, हे भाई! गुरु से मिला के जिस मनुष्यों का जीवन परमात्मा ने सुंदर बना दिया है, उनको सफलता प्राप्त होती है।5। संजम सहस सिआणपा पिआरे इक न चली नालि ॥ जो बेमुख गोबिंद ते पिआरे तिन कुलि लागै गालि ॥ होदी वसतु न जातीआ पिआरे कूड़ु न चली नालि ॥ सतिगुरु जिना मिलाइओनु पिआरे साचा नामु समालि ॥६॥ पद्अर्थ: संजम = जुगति। सहस = हजारों। नालि न चली = मदद नहीं करती। ते = से। कुलि = कुल में, खानदान में। गालि = कलंक। कूड़ु = झूठ। मिलाइओनु = उस (परमात्मा) ने मिला दिया। साचा = सदा स्थिर। समालि = समाले, संभालते हैं, हृदय में बसाते हैं।6। अर्थ: हे भाई! (व्रत नियम आदि) हजारों संयम और हजारों समझदारियां (अगर मनुष्य करता रहे, तो इनमें से) एक भी (परलोक में) मदद नहीं करते। जो लोग परमात्मा से मुँह फेरे रहते हैं, उनके (तो) खानदान को (भी) कलंक का टीका लग जाता है। (साकत मनुष्य हृदय में) बसते (कीमती हरि-नाम) पदार्थ से सांझ नहीं डालता (दुनिया के नाशवान पदार्थों से ही मोह डाले रखता है, पर कोई भी) नाशवान पदार्थ (परलोक में) साथ नहीं जाता। हे भाई! जिस मनुष्यों को उस परमात्मा ने गुरु मिला दिया है वह मनुष्य सदा कायम रहने वाला हरि नाम (अपने दिल में) बसाए रखते हें।6। सतु संतोखु गिआनु धिआनु पिआरे जिस नो नदरि करे ॥ अनदिनु कीरतनु गुण रवै पिआरे अम्रिति पूर भरे ॥ दुख सागरु तिन लंघिआ पिआरे भवजलु पारि परे ॥ जिसु भावै तिसु मेलि लैहि पिआरे सेई सदा खरे ॥७॥ पद्अर्थ: सतु = दान, सेवा। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ। धिआनु = प्रभु चरणों में तवज्जो को जोड़े रखना। जिस नो = जिस पर। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। रवै = याद करता है। अंम्रिति = अमृत से, आत्मिक जीवन देने वाले नाम जल से। पूर भरे = भरपूर। सागरु = समंद्र। भवजलु = संसार समुंदर। परे = पहुँच गए। जिसु भावै = जो तुझे अच्छा लगता है। मेलि लैहि = तू मिला लेता है। खरे = अच्छे, अच्छे जीवन वाले।7। नोट: ‘जिस नो’ में ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘नो’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर की निगाह करता है, उसके अंदर सेवा-संतोख, ज्ञान-ध्यान (आदि गुण पैदा हो जाते हैं)। वह मनुष्य हर वक्त परमात्मा की महिमा करता रहता है, परमात्मा के गुण याद करता रहता है, (उसका हृदय) आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से नाको-नाक भरा रहता है। (हे भाई! जिस मनुष्यों पर प्रभु की मेहर की निगाह होती है) वे मनुष्य दुखों के समुंदर से पार लांघ जाते हैं वे संसार-समुंदर को पार हो जाते हैं।7। सम्रथ पुरखु दइआल देउ पिआरे भगता तिस का ताणु ॥ तिसु सरणाई ढहि पए पिआरे जि अंतरजामी जाणु ॥ हलतु पलतु सवारिआ पिआरे मसतकि सचु नीसाणु ॥ सो प्रभु कदे न वीसरै पिआरे नानक सद कुरबाणु ॥८॥२॥ पद्अर्थ: संम्रथ = समर्थ, सारी ताकतों का मालिक। पुरखु = सर्व व्यापक। देउ = प्रकाश रूप। ताणु = आसरा। जि = जो। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। जाणु = सुजान, समझदार। हलतु = ये लोक। पलतु = परलोक। मसतकि = माथे पर। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। नीसानु = निशान, मोहर। सद = सदा।8। नोट: ‘तिस का’ में ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! परमात्मा सारी ताकतों का मालिक है, सर्व-व्यापक है, दया का घर है, प्रकाश-स्वरूप है। भक्तों को (हमेशा) उसका आसरा रहता है। हे भाई! भक्त उस परमात्मा की शरण में पड़े रहते हैं, जो सबके दिलों की जानने वाला है, और समझदार है। हे भाई! जिस मनुष्य के माथे पर (प्रभु) सदा कायम रहने वाली मोहर लगा देता है, उसका ये लोक और परलोक सँवर जाता है। हे नानक! कह: हे भाई! (मेरी तो सदा यही तमन्ना है) कि वह परमात्मा मुझे कभी ना भूले। मैं (उससे) सदा सदके जाता हूँ।8।2। सोरठि महला ५ घरु २ असटपदीआ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पाठु पड़िओ अरु बेदु बीचारिओ निवलि भुअंगम साधे ॥ पंच जना सिउ संगु न छुटकिओ अधिक अह्मबुधि बाधे ॥१॥ पद्अर्थ: पढ़िओ = पढ़ा (कईयों ने)। अरु = और। निवलि = खड़े हो के, घुटनों पे हाथ रख के, सांस बाहर की ओर खींच के, आंतों को घुमाना = इससे पेट की आंतें साफ रहती हैं, कब्ज़ नहीं रहती। निउली कर्म सुबह ख़ाली पेट किया जाता है। भुअंगम = भुयंगम्, पीठ की रीढ़ की हड्डी के साथ-साथ कुण्डलनी नाड़ी जिसकी शकल सर्पणी जैसी है। इस रास्ते से सांस चढ़ाते हैं। साधे = साध लिए (कईयों ने)। सिउ = से। संगु = साथ। छुटकिओ = छूट सका, खत्म हो सका। अधिक = बहुत ज्यादा। अहंबुधि = अहंकार भरी बुद्धि। बाधे = बंध गए।1। अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य वेद (आदि धर्म-पुस्तकों को) पढ़ता है और विचारता है। कोई मनुष्य निवली कर्म करता है, कोई कुण्डलनी नाड़ी के रास्ते प्राण चढ़ाता है। (पर इन साधनों से कामादिक) पाँचों से साथ खतम नहीं हो सकता। (बल्कि) ज्यादा अहंकार में (मनुष्य) बंध जाता है।1। पिआरे इन बिधि मिलणु न जाई मै कीए करम अनेका ॥ हारि परिओ सुआमी कै दुआरै दीजै बुधि बिबेका ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: पिआरे = हे सज्जन! इन बिधि = इन तरीकों से। मै = मेरे देखते हुए। हारि = हार के, इन कर्मों से जब कुछ ना बना तो इनका आसरा त्याग के। परिओ = पड़ा हूँ। कै दुआरै = के दर पे। बिबेका = परख। रहाउ। अर्थ: हे भाई1 मेरे देखते हुए ही लोग अनेक ही (निहित हुए धार्मिक) कर्म करते हैं, पर इन तरीकों से परमात्मा के चरणों में जुड़ा नहीं जा सकता। हे भाई! मैं तो इन कर्मों का आसरा छोड़ के मालिक प्रभु के दर पर आ गिरा हूँ (और प्रार्थना करता रहता हूँ - हे प्रभु! मुझे भलाई बुराई की) परख कर सकने वाली अक्ल दे। रहाउ। मोनि भइओ करपाती रहिओ नगन फिरिओ बन माही ॥ तट तीरथ सभ धरती भ्रमिओ दुबिधा छुटकै नाही ॥२॥ पद्अर्थ: मोनि भइओ = कोई चुप्पी साधे बैठा है। करपाती = (कर = हाथ। पात्र = बर्तन) हाथों को ही बर्तन बना के रखने वाला। माही = में। तट = दरिया का किनारा। सभ = सारी। भ्रमिओ = भटकता फिरा। दुबिधा = दु चिक्ता पन, मेर तेर, डाँवा डोल मानसिक दशा। छुटकै नाही = समाप्त नहीं होती।2। अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य चुप साधे बैठा है, कोई कर पाती बन गया है (बर्तनों की जगह अपना हाथ ही बरतता है), कोई जंगलों में नंगा घूमता फिरता है। कोई मनुष्य सारे तीर्थों का रटन कर रहा है, कोई सारी धरती का भ्रमण कर रहा है, (पर इस तरह भी) मन की डांवा-डोल स्थिति समाप्त नहीं होती।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |