श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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मन कामना तीरथ जाइ बसिओ सिरि करवत धराए ॥ मन की मैलु न उतरै इह बिधि जे लख जतन कराए ॥३॥

पद्अर्थ: कामना = इच्छा, फुरना। सिरि = सिर पर। करवत = आरा, शिव जी वाला आरा जो बानारस के शिव मंदिर में है। शिव लोक पहुँचने की चाहत वाले कई भटके हुए लोग अपने आप को इस आरे से चिरवा लेते हैं। इह बिधि = इस तरीके से।3।

अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य अपनी मनोकामना के अनुसार तीर्थों पे जा बसा है, (मुक्ति का चाहवान अपने) सिर पर (शिव जी वाला) आरा रखवाता है (और, अपने आप को चिरवा लेता है)। पर अगर कोई मनुष्य (ऐसे) लाखों ही प्रयत्न करे, इस तरह भी मन की (विकारों की) मैल नहीं उतरती।3।

कनिक कामिनी हैवर गैवर बहु बिधि दानु दातारा ॥ अंन बसत्र भूमि बहु अरपे नह मिलीऐ हरि दुआरा ॥४॥

पद्अर्थ: कनिक = सोना। कामिनी = स्त्री। हैवर = (हयवर) बढ़िया घोड़े। गैवर = (गजवर) बढ़िया हाथी। दातारा = देने वाला। अरपे = दान करता। हरि दुआरा = हरि के दर पे।4।

अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य सोना, स्त्री, बढ़िया घोड़े, बढ़िया हाथी (और ऐसे ही) कई किसमों के दान करने वाला है। कोई मनुष्य अन्न दान करता है, कपड़े दान करता है, जमीन दान करता है। (इस तरह भी) परमात्मा के दर पर पहुँचा नहीं जा सकता।4।

पूजा अरचा बंदन डंडउत खटु करमा रतु रहता ॥ हउ हउ करत बंधन महि परिआ नह मिलीऐ इह जुगता ॥५॥

पद्अर्थ: अरचा = मूर्ति पूजा। बंधन = नमस्कार। डंडउत = डंडे की तरह सीधे लंबे लेट के नमस्कार करनी। खटु = छह। खटु करमा = ब्राहमण के लिए छह जरूरी धार्मिक कर्म: विद्या पढ़नी और पढ़ानी, यज्ञ करना और करवाना, दान लेना और देना। रतु रहता = मगन रहता है। हउ हउ = मैं मैं। इह जुगता = इस तरीके से।5।

अर्थ: हे भाई! कोई मनुष्य देव-पूजा में, देवताओं को नमस्कार दंडवत करने में, खट् कर्म करने में मस्त रहता है। पर वह भी (इन निहित हुए धार्मिक कर्मों को करने के कारण अपने आप को धार्मिक समझ के) अहंकार करता-करता (माया के मोह के) बंधनो में जकड़ा रहता है। इस ढंग से भी परमात्मा को नहीं मिला जा सकता।5।

जोग सिध आसण चउरासीह ए भी करि करि रहिआ ॥ वडी आरजा फिरि फिरि जनमै हरि सिउ संगु न गहिआ ॥६॥

पद्अर्थ: सिध = योगासनों में सिद्ध हुए योगी। रहिआ = थक गया। आरजा = उम्र। संगु = साथ। गहिआ = मिला।6।

अर्थ: जोग-मत में सिद्धों के प्रसिद्ध चौरासी आसन हैं। ये आसन कर करके भी मनुष्य थक जाता है। उम्र तो लंबी कर लेता है, पर इस तरह परमात्मा से मिलाप का संजोग नहीं बनता, बार बार जनम मरन के चक्कर में पड़ा रहता है।6।

राज लीला राजन की रचना करिआ हुकमु अफारा ॥ सेज सोहनी चंदनु चोआ नरक घोर का दुआरा ॥७॥

पद्अर्थ: लीला = रंग तमाशे। रचना = ठाठ बाठ। अफारा = जिसे कोई मोड़ न सके। चोआ = इत्र। घोर = भयानक।7।

अर्थ: हे भाई! कई ऐसे हैं जो राज हकूमत के रंग तमाशे भोगते हैं, राजाओं वाले ठाठ-बाठ बनाते हैं, लोगों पर हुक्म चलाते हैं, कोई उनका हुक्म मोड़ नहीं सकता। सुंदर स्त्री की सेज भोगते हैं, (अपने शरीर पर) चंदन व इत्र लगाते हैं। पर ये सब कुछ तो भयानक नर्क की ओर ले जाने वाले हैं।7।

हरि कीरति साधसंगति है सिरि करमन कै करमा ॥ कहु नानक तिसु भइओ परापति जिसु पुरब लिखे का लहना ॥८॥

पद्अर्थ: कीरति = महिमा। करमन कै सिरि = सब (धार्मिक) कामों के सिर पर, सब कर्मों से श्रेष्ठ। पुरब लिखे का = पहले जन्म में किए कर्म के अनुसार।8।

अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में बैठ के परमात्मा की महिमा करनी- ये कर्म और सारे कर्मों से श्रेष्ठ है। पर, हे नानक! कह: ये अवसर उस मनुष्य को ही मिलता है जिसके माथे पर पूर्बले किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार लेख लिखा होता है।8।

तेरो सेवकु इह रंगि माता ॥ भइओ क्रिपालु दीन दुख भंजनु हरि हरि कीरतनि इहु मनु राता ॥ रहाउ दूजा ॥१॥३॥

पद्अर्थ: रंगि = रंग में। माता = मस्त। कीरतनि = कीर्तन मे। राता = रंगा हुआ। रहाउ दूजा।

अर्थ: हे भाई! तेरा सेवक तेरी महिमा के रंग में मस्त रहता है। हे भाई! दीनों के दुख दूर करने वाला परमात्मा जिस मनुष्य पर दयावान होता है, उसका ये मन परमात्मा की महिमा के रंग में रंगा रहता है। रहाउ दूजा।1।3।


रागु सोरठि वार महले ४ की

वार का भाव:

पौड़ी वार भाव:

परमात्मा ने इस जगत की खेल खुद बनाई है, और हर जगह उसकी अपनी ही लहर रुमक रही है; पर, ये समझ गुरु के द्वारा ही आती है और गुरु के द्वारा मार्ग पर चल के ही प्रभु की ये महिमा कही जा सकती है।

यद्यपि माया-रहित प्रभु की ही जीवन लहर हर जगह है, पर जीव माया के कारण मूर्खपने में लगा रहता है; जिस पर प्रभु की मेहर की नजर होती है वह गुरु के बताए हुए राह पर चल के प्रभु की महिमा की कार करता है।

इस जगत रचना में त्रिगुणी माया भी ईश्वर ने स्वयं ही बनाई है, इसके मोह में फस के अहंकार के कारण जीव जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाता है; पर, जिस पे प्रभु की मेहर हो उसको सतिगुरु ये भुलेखा समझा देता है।

परमात्मा का कोई ऐसा खास रूप नहीं, कोई रेखा नहीं जिसकी जीव को समझ पड़ सके, इसलिए जीव अपने आप उसकी महिमा कर ही नहीं सकता; पूरे गुरु के बताए हुए राह पर चल के ही प्रभु के दीदार हो सकते हैं।

इस जगत को बनाने वाला परमात्मा हलांकि हरेक के अंदर आप मौजूद है, पर जीव माया के धंधों में लग के उसको भुलाए रखते हैं और गलत राह पर पड़े रहते हैं; जिस मनुष्य पर वह मेहर करता है वह माया के मोह में से निकल के गुरु चरणों से प्यार डालता है और भक्ति करता है।

जिस माया की मौजों में उलझ के मनुष्य प्रभु को बिसारता है और पाप कमाता है उसका साथ कुसंभ के रंग की तरह थोड़े ही दिन रहता है। जगत से चलने के वक्त किए विकारों के कारण घबराता है और पछताता है।

पर, जो मनुष्य प्रभु का स्मरण करता है, वह विकारों से बचा रहता है, उसको मौत से कभी घबराहट नहीं होती, वह प्रभु की हजूरी में इज्जत कमा के जाता है। कोई डर, कोई भटकना उसे नहीं रहती। पर, इस राह पर वही चलता है जो प्रभु की मेहर से गुरु के दर पर आता है।

जो भाग्यशाली लोग गुरु की शरण आते हैं, वे मिल के सतसंग में प्रभु की महिमा करते हैं और सुनते हैं, विकारों में पड़ने की जगह उनका मन प्रभु के नाम में पतीजा रहता है। ऐसे सत्संगियों के दर्शन मुबारक हैं, वे और लोगों को भी परमात्मा की ओर जोड़ते हैं।

जो मनुष्य परमात्मा के नाम में मस्त रहते हैं, उन्हें नाम जपने की इनायत से प्रभु हर जगह बसता प्रतीत होता है, इस वास्ते उन्हें कोई डर नहीं व्याप्तता। पर, ये दाति प्रभु की अपनी मेहर से गुरु के सन्मुख होने से ही मिलती है।

माया का प्यार और नाम की लगन- दोनों का मेल नहीं हो सकता। जिस मनुष्य का मन दुनियावी मौज-मेलों में भेदा हुआ है, उसकी तवज्जो उधर ही रहती है। पर जिस पर मेहर हो, वह गुरु की शरण पड़ कर ‘नाम’ से प्यार करता है और माया का मोह उसे आकर्षित नहीं कर सकता।

ये मानव शरीर, मानो, चोली है जो परमात्मा ने अपने पहनने के लिए बनाई है, ये चोली उसे तभी अच्छी लग सकती है अगर इसे भक्ति के रंग से सँवारा जाए, जैसे औरतें कढ़ाई करके फुलकारी को संभाल के बर्तती हैं। पर, ये भक्ति गुरु की शरण पड़ने से ही हो सकती है।

परमात्मा को मिलने का रास्ता गुरमुखों का संग करने से ही मिलता है, ज्यों-ज्यों उनके साथ मिल के गुण ग्रहण करते जाएं और नाम स्मरण करें त्यों-त्यों जीवन सुखी होता है। गुरु के बताए राह की समझ सत्संगियों से ही पड़ती है।

महिमा करने वाला मनुष्य लोक परलोक दोनों ही जगह शोभा कमाता है; जिसे नाम-अमृत का रस आया है उसकी तृष्णा मिट जाती है; पर इस राह पर वही चलता है जिस पर मेहर हो और जो गुरु की शरण पड़े।

जो मनुष्य गुरु के सन्मुख हो के नाम जपता है, वह परमात्मा के रचे सब लोगों से उसी तरह प्यार करने लग जाता है जैसे वह अपने मित्रों-पुत्रों व भाईयों से करता है; ये नया आत्मिक जीवन उसे मिलता है।

दुनिया के धन-पदार्थ, महल-माढ़ियां, घोड़े आदि- इनमें से किसी से भी आखिर तक साथ नहीं निभता, अंत समय साथ टूटते हुए मन बहुत दुखी होता है। एक हरि का नाम ही है जो आखिरी वक्त साथी बनता है और सुखदाई होता है; ये नाम सतिगुरु के सन्मुख होने से ही मिलता है।

धन-पदार्थ, महल-माढ़ियां, घोड़े आदि व और कार्य-व्यवहार वर्जित नहीं हैं, बल्कि इनके द्वारा भले लोगों की सेवा करो और प्रभु का नाम भी स्मरण करो। जो मनुष्य सतिगुरु के द्वारा ऐसी रहने की शैली सीखता है वह भाग्यशाली है।

असल शोभा-उपमा वे लोग कमाते हैं जो पूरे गुरु के द्वारा स्वै भाव मिटा के परमात्मा के नाम में इतना लीन हो जाते हैं कि उन्हें हर जगह परमात्मा ही दिखता है।

वे मनुष्य भाग्यशाली हैं जो गुरु की शरण पड़ कर अपनी मर्जी की जगह गुरु की मर्जी पर चलते हैं; यही एक तरीका है जिससे नाम स्मरण किया जा सकता है, महिमा हो जाती है और मन बस में आ सकता है।

जिस मनुष्यों के हृदय में गुरु का निवास है वे मुबारक हैं; उनके दर्शन करके और लोग भी प्रभु के नाम में जुड़ते हैं और अपने अंदर से पाप काट लेते हैं।

उन लोगों को असल धनवान समझो, जो गुरु के सन्मुख हो के उस प्रभु का स्मरण करते हैं जो पत्थरों के अंदर बसते कीड़ों से ले के मनुष्यों तक सारे जीव-जंतुओं को रोजी देने वाला है।

जिस मनुष्य पर मालिक की मेहर की नजर हो वे गुरु के सन्मुख हो के मानव जन्म की बाजी जीत जाता है क्योंकि वह भक्ति क्षमा और प्रेम का श्रृंगार बनाता है जो प्रभु को प्यारा लगता है।

असल संपूर्ण इन्सान वो हैं जो गुरु के सन्मुख हो के सांस-सांस में नाम स्मरण करते हैं; नाम-रूपी दवा बरतने से उनके सारे आत्मिक रोग व दुख दूर हो जाते हैं; ना उन्हें जगत की मुथाजगी रहती है ना ही जमों की।

जो मनुष्य सतिगुरु की निंदा करता है उसकी तवज्जो विकारों की ओर ही रहती है, उसकी निंदा करने की आदत इतनी बढ़ जाती है कि घर-घर किसी ना किसी की निंदा करता-फिरता है; पर भाग्यशाली है वह बंदा जो सतिगुरु के सँवारे हुए गुरसिखों की संगति में आता है।

सतिगुरु के बताए हुए राह पर चलने वाले गुरमुखों का दर्शन करने से परमात्मा का स्मरण करने का मन में चाव पैदा होता है, क्योंकि वह गुरमुख गुरु की शरण आ के दिन-रात प्रभु के स्मरण में उम्र गुजारते हैं; गुरु की कृपा से वे प्रभु के चरणों में सदा जुड़े रहते हैं।

जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति करते हैं उनकी संगति करने से पाप-विकार दूर हो जाते हैं और उस प्रभु के हर वक्त स्मरण का उत्साह पैदा होता है जो सब जीवों को रिज़क दे रहा है और जिसके दर से सब जीव माँगते हैं।

जो मनुष्य भक्ति करने वाले लोगों की चरण-धूल माथे पर लगाते हैं वे भी प्रभु का स्मरण करने लग जाते हैं, हरि-नाम को जिंदगी का आसरा बना लेते हैं जैसे रोटी शरीर का आसरा है, हरि-नाम तीर्थ व स्नान करके पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं, और प्रभु दर पर स्वीकार हो जाते हैं।

साधु-संगत, जैसे, एक नगर है जो गुरु ने बसाया है; इस नगर में सत्संगी, जैसे, रखवाले हैं। जो मनुष्य इस नगर में आ के बसता है, सत्संगी रक्षकों की इनायत से माया की तृष्णा व अन्य अवगुण कोई भी उस मनुष्य के पास नहीं आते।

सारे जगत को पैदा करके परमात्मा सब जीवों की पालना भी खुद ही करता है; पर, खुशी भरा जीवन केवल उन लोगों का ही होता है जो प्रभु की भक्ति करते हैं, क्योंकि प्रभु स्मरण करने वालों पर प्रसन्न होता है, उनके मन में से प्रभु खुद माया का मोह जला के राख कर देता है।

सारे जगत में परमात्मा का ही हुक्म वरत रहा है; उसकी रजा यूँ है कि जो मनुष्य सतिगुरु की मर्जी में चलता है उसे प्रभु दर से बड़ाई मिलती है, वह प्रभु को प्राप्त हो जाता है। सो, सतिगुरु की शरण पड़ना ही जीवन का सही रास्ता है।

समूचा भाव:

(1 से 6 तक) इस सारी जगत खेल में ईश्वर की अपनी ही जीवन-लहर रुमक रही है, त्रिगुणी माया भी उसने खुद ही बनाई है, पर जीव को इस बात की परतीति गुरु की शरण के बिना नहीं आ सकती, क्योंकि एक तो जीव माया के मोह में फस के मूर्खता में लग जाता है, दूसरा परमातमा की ऐसी कोई खास रूप-रेखा नहीं है जिसकी जीव को समझ पड़ सके, और जिस माया के मोह में फस के विकारों में उलझता है, उसका साथ भी नहीं निभता।

(7 से 14 तक) गुरु के सन्मुख हो के प्रभु का नाम स्मरण करने से मनुष्य का मन एक तो विकारों में पड़ने की जगह ‘नाम’ में पतीजा रहता है, माया का मोह उसे कोई कशिश नहीं डाल सकता; दूसरा, स्मरण से प्रभु की सर्व-व्यापकता की अनुभूति से किसी तरह का कोई डर उसे नहीं व्यापता। ऐसा भाग्यशाली जीव परमात्मा को प्यारा लगने लगता है (और उसका) जीवन सुखी हो जाता है, नाम-अमृत का रस आने से तृष्णा मिट जाती है, और प्रभु के रचे हुए बंदों से ऐसे प्यार करने लग पड़ता है जैसे अपने मित्रों-पुत्रों व भाईयों से करना होता है।

(15 से 23 तक) धन-पदार्थ आदि एकत्र करना जिंदगी का असल उद्देश्य नहीं, इनका साथ आखिर तक नहीं निभता; पर ये वर्जित भी नहीं, इनके द्वारा से दुनिया की सेवा करें; इनका गुमान करने की जगह स्वै भाव मिटा के अपने सतिगुरु की रजा में मनुष्य चले और प्रभु का नाम स्मरण करके अंदर से विकार दूर करे - ऐसा मनुष्य असल धनवान है, ऐसा मनुष्य ही इस जगत-चौपड़ से बाज़ी जीत के जाता है, यही है संपूर्ण इन्सान, क्योंकि नाम स्मरण करने से सारे आत्मिक रोग-दुख दूर हो जाते हैं। पर, धन-पदार्थ आदि की टेक के कारण मनुष्य को सतिगुरु के चरणों में लगने से घृणा होती है, उसका लोगों से भी रिश्ता प्रेम भरा नहीं होता, उसकी तवज्जो पर विकार ही हावी रहते हैं।

(24 से 27 तक) सतिगुरु के बताए राह पर चल कर प्रभु का नाम स्मरण करने वाले मनुष्यों की संगति करने वालों के मन में भी स्मरण का इतना चाव और उत्साह पैदा हो जाता है कि विकारों की ओर उनका मन भटकने से हट जाता है। वे हरि-नाम को जिंदगी का आसरा बना लेते हैं, जैसे रोटी शरीर का आसरा है। बंदगी वालों की संगति एक ऐसा नगर समझें जहाँ बसने से किसी विकार-रूपी चोर डाकू का डर नहीं रहता।

(28 व 29) कर्तार ने जगत-रचना में नियम ही ये रखा है कि मनुष्य सतिगुरु की रजा में चल के भक्ति करे, उसी मनुष्य का जीवन सुख-भरा हो सकता है; सतिगुरु की शरण पड़ना ही जीवन का सही रास्ता है।

मुख्य भाव:

कर्तार की रची हुई त्रिगुणी माया जीवों पर प्रभाव डाल के इन्हें कुमार्ग पर डाल देती है; पर जो मनुष्य गुरु के बताए हुए राह पर चल के प्रभु की भक्ति करते हैं, उन्हें विकार छू नहीं सकते। सतिगुरु की शरण पड़ना ही जीवन का सही रास्ता है।

‘वार’ की संरचना:

गुरु राम दास जी की उच्चारित इस ‘वार’ में 29 पौड़ियां हैं और 58 शलोक हैं। हरेक पौड़ी के साथ दो-दो शलोक। शलोकों का वेरवा:

सलोक महला ३----------------48
सलोक महला ४----------------07
सलोक महला ३----------------01
सलोक महला ३----------------02
कुल------------------------------58

ये ‘वार’ गुरु रामदास जी की है, पर 58 शलोकों में से उनके अपने सिर्फ 7 ही हैं। अगर शलोकों समेत ‘वार’ उचारी हुई होती, तो शलोक तकरीबन सारे ही गुरु अमरदास जी के होने के कारण, इसका शीर्षक ‘सोरठि की वार महले ४ की’ ना फबता, क्योंकि गुरु रामदास जी की 29 पौड़ियों के मुकाबले गुरु अमरदास जी के 48 शलोक आ गए हैं, दोनों गुरु-व्यक्तियों की वाणी में से गिनती के लिहाज से गुरु अमरदास जी की वाणी ज्यादा हो गई। दरअसल, सच्चाई ये है कि सिर्फ पउड़ियों के ही संग्रह का नाम ‘वार’ है।\

रागु सोरठि वार महले ४ की
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सलोकु मः १ ॥ सोरठि सदा सुहावणी जे सचा मनि होइ ॥ दंदी मैलु न कतु मनि जीभै सचा सोइ ॥ ससुरै पेईऐ भै वसी सतिगुरु सेवि निसंग ॥ परहरि कपड़ु जे पिर मिलै खुसी रावै पिरु संगि ॥ सदा सीगारी नाउ मनि कदे न मैलु पतंगु ॥ देवर जेठ मुए दुखि ससू का डरु किसु ॥ जे पिर भावै नानका करम मणी सभु सचु ॥१॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। दंदी मैलु = दातों में मैल, दंतकथा, निंदा। कतु = चीर, दूरी, वैर विरोध। ससुरै = ससुराल वाले घर, परलोक में। पेईऐ = पेके घर, इस लोक में। निसंग = बेझिझक। परहरि = छोड़ के। कपड़ु = दिखावा। पिर मिलै = पति को मिले। पिरु रावै = पति भोगता है, खुशी संग, प्रसन्नता से। पतंगु = रक्ती भा भी। ससू = माइआ। देवर जेठ = (सास) माया के पुत्र, कामादिक विकार। पिर भावै = पति को अच्छी लगे। करम मणी = भाग्यों की मणि।

अर्थ: सोरठि रागिनी हमेशा मधुर लगे अगर (इसके द्वारा प्रभु के गुण गाने से) सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु मन में बस जाए, निंदा करने वाली आदत ना रहे, मन में किसी से वैर-विरोध ना हो, और जीभ पर सदा सच्चा मालिक हो। (इस तरह जीव-स्त्री) लोक-परलोक में (परमात्मा के) डर में जीवन गुजारती है और गुरु की सेवा करके बेझिझक हो जाती है (भाव, कोई सहम दबा नहीं पाता)। दिखावा छोड़ के अगर पति-प्रभु को मिल जाए तो पति भी प्रसन्न हो के इसको अपने साथ मिलाता है; जिस जीव-स्त्री के मन में प्रभु का नाम टिक जाए वह (इस नाम-श्रृंगार से) सदा सजी रहती है और कभी (विकारों की उसे) रक्ती भर मैल नहीं लगती। उस जीव-स्त्री के कामादिक विकार समाप्त हो जाते हैं, माया का भी कोई दबाव उस पर नहीं रह जाता।

हे नानक! (प्रभु पति को मन में बसा के) अगर जीव-स्त्री पति-प्रभु को अच्छी लगे तो उसके माथे के भाग्यों की टीका (समझें) उसे हर जगह सच्चा प्रभु ही (दिखता है)।1।

मः ४ ॥ सोरठि तामि सुहावणी जा हरि नामु ढंढोले ॥ गुर पुरखु मनावै आपणा गुरमती हरि हरि बोले ॥ हरि प्रेमि कसाई दिनसु राति हरि रती हरि रंगि चोले ॥

पद्अर्थ: तामि = तब। प्रेमि = प्रेम से। कसाई = कसी हुई, खिंची हुई। चोला = शरीर।

अर्थ: सोरठि रागिनी तभी सुंदर है, जब (इसके द्वारा जीव-स्त्री) हरि के नाम की खोज करे, अपने बड़े पति हरि को प्रसन्न करे और सतिगुरु की शिक्षा ले के प्रभु का स्मरण करे; दिन रात हरि के प्रेम में खिंची हुई अपने (शरीर रूपी) चोले को हरि के रंग में रंगे रखे।

हरि जैसा पुरखु न लभई सभु देखिआ जगतु मै टोले ॥

अर्थ: मैंने सारा संसार तलाश के देख लिया है परमात्मा जैसा कोई पुरुष नहीं मिला।

गुरि सतिगुरि नामु द्रिड़ाइआ मनु अनत न काहू डोले ॥ जनु नानकु हरि का दासु है गुर सतिगुर के गोल गोले ॥२॥

पद्अर्थ: अनत = किसी और तरफ़ से। गोल गोले = गोलों का गोला, दासों का दास।

अर्थ: गुरु सतिगुरु ने हरि का नाम (मेरे हृदय में) दृढ़ किया है, (इसलिए अब) मेरा मन कहीं डोलता नहीं, दास नानक प्रभु का दास है और गुरु सतिगुरु के दासों का दास है।

पउड़ी ॥ तू आपे सिसटि करता सिरजणहारिआ ॥ तुधु आपे खेलु रचाइ तुधु आपि सवारिआ ॥ दाता करता आपि आपि भोगणहारिआ ॥ सभु तेरा सबदु वरतै उपावणहारिआ ॥ हउ गुरमुखि सदा सलाही गुर कउ वारिआ ॥१॥

पद्अर्थ: सबदु = हुक्म, जीवन लहर। गुरमुखि = गुरु के द्वारा।

अर्थ: हे विधाता! तू खुद ही संसार को रचने वाला है; (संसार रूप) खेल बना के तूने खुद ही इसे सुंदर बनाया है; संसार रचने वाला तू खुद ही है। इसे दातें बख्शने वाला भी तू स्वयं ही है, उन दातों को भोगने वाला भी तू खुद ही है; हे पैदा करने वाले! सब जगह तेरी जीवन लहर बरत रही है। (पर) मैं अपने सतिगुरु से सदके हूँ जिसके सन्मुख हो के तेरी महिमा सदा कर सकता हूँ।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh