श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 643 सलोकु मः ३ ॥ हउमै जलते जलि मुए भ्रमि आए दूजै भाइ ॥ पूरै सतिगुरि राखि लीए आपणै पंनै पाइ ॥ पद्अर्थ: पंनै पाइ = लेखे में लिख के, अपने बना के। आए = गुरु के दर पर आए। अर्थ: (संसारी जीव) अहंकार में जलते हुए जल मरे थे और माया के मोह में भटक-भटक के जब गुरु के दर पर आए तो पूरे सतिगुरु ने अपने साथ लगा के बचा लिए। इहु जगु जलता नदरी आइआ गुर कै सबदि सुभाइ ॥ सबदि रते से सीतल भए नानक सचु कमाइ ॥१॥ अर्थ: उनको सतिगुरु के शब्द के द्वारा स्वभाविक ही ये संसार जलता दिखा, तो हे नानक! वे गुरु के शब्द में रंग के और नाम-जपने की कमाई करके ठंडे-ठार हो गए।1। मः ३ ॥ सफलिओ सतिगुरु सेविआ धंनु जनमु परवाणु ॥ जिना सतिगुरु जीवदिआ मुइआ न विसरै सेई पुरख सुजाण ॥ कुलु उधारे आपणा सो जनु होवै परवाणु ॥ पद्अर्थ: जीवदिआ मुइआ = जनम से मरने तक, सारी उम्र। अर्थ: उन मनुष्यों द्वारा की गई सतिगुरु की सेवा सफल है (भाव, सतिगुरु की सेवा उनके लिए सफल है) और उनका जनम भी सराहनीय व स्वीकार होने लायक होता है, वही मनुष्य समझदार (गिने जाते) हैं, जिनको सारी उम्र कभी भी प्रभु नहीं भूलता। (जो मनुष्य ऐसी कार करता है) वह खुद स्वीकार हो जाता है और अपनी कुल को भी पार लंघा लेता है। गुरमुखि मुए जीवदे परवाणु हहि मनमुख जनमि मराहि ॥ नानक मुए न आखीअहि जि गुर कै सबदि समाहि ॥२॥ अर्थ: सतिगुरु के सन्मुख मनुष्य स्वीकार हैं, पर, मन के अधीन रहने वाले मनुष्य पैदा होते मरते रहते हैं; हे नानक! जो मनुष्य सतिगुरु के शब्द में लीन हो जाते हैं, उनको मरे हुए नहीं कहा जाता।2। पउड़ी ॥ हरि पुरखु निरंजनु सेवि हरि नामु धिआईऐ ॥ सतसंगति साधू लगि हरि नामि समाईऐ ॥ पद्अर्थ: निरंजनु = अंजन रहित, माया से रहित। अर्थ: माया से रहित अकाल-पुरख की सेवा करके उसका नाम स्मरणा चाहिए; (पर) गुरु की संगति में ही जुड़ के हरि के नाम में लीन हो सकते हैं। हरि तेरी वडी कार मै मूरख लाईऐ ॥ हउ गोला लाला तुधु मै हुकमु फुरमाईऐ ॥ हउ गुरमुखि कार कमावा जि गुरि समझाईऐ ॥२॥ पद्अर्थ: मै = मुझे। गुरि = गुरु ने। अर्थ: हे हरि! मुझ मूर्ख को अपने बड़े काम (भाव, भक्ति) में जोड़ ले; मुझे हुक्म कर, मैं तेरे दासों का दास हूँ; (मेहर कर कि) सतिगुरु ने जो कार समझाई है वह मैं सतिगुरु के सन्मुख हो के करूँ।2। सलोकु मः ३ ॥ पूरबि लिखिआ कमावणा जि करतै आपि लिखिआसु ॥ मोह ठगउली पाईअनु विसरिआ गुणतासु ॥ पद्अर्थ: पाईअनु = उस (हरि) ने डाल दी है, दे दी है। गुणतासु = गुणों का खजाना प्रभु। अर्थ: (पिछले किए कर्मों के अनुसार) आरम्भ से जो (संस्कार रूप लेख) लिखे (भाव, उकरे) हुए हैं और जो कर्तार ने खुद लिख दिए हैं वे (अवश्य) कमाने पड़ते हैं; (उस लेख के अनुसार ही) मोह की ठग-बूटी (जिसे) मिल गई है उसे गुणों का खजाना हरि बिसर गया है। मतु जाणहु जगु जीवदा दूजै भाइ मुइआसु ॥ जिनी गुरमुखि नामु न चेतिओ से बहणि न मिलनी पासि ॥ अर्थ: (उस) संसार को जीवित ना समझो (जो) माया के मोह में मरा पड़ा है; जिन्होंने सतिगुरु के सन्मुख हो के नाम नहीं स्मरण किया, उन्हें प्रभु के पास बैठने को नहीं मिलता। दुखु लागा बहु अति घणा पुतु कलतु न साथि कोई जासि ॥ लोका विचि मुहु काला होआ अंदरि उभे सास ॥ मनमुखा नो को न विसही चुकि गइआ वेसासु ॥ अर्थ: वे मनमुख बहुत ही दुखी होते हैं, (क्योंकि जिनकी खातिर माया के मोह में मरे पड़े हैं, वह) पुत्र-स्त्री तो कोई साथ नहीं जाएगा; संसार के लोगों में भी उनका मुँह काला हुआ (भाव, शर्मिंदे हुए) और सिसकियां लेते हैं; मनमुखों का कोई विश्वास नहीं करता, उनका ऐतबार खत्म हो जाता है। नानक गुरमुखा नो सुखु अगला जिना अंतरि नाम निवासु ॥१॥ अर्थ: हे नानक! गुरमुखों को बहुत सुख होता है क्योंकि उनके हृदय में नाम का निवास होता है।1। मः ३ ॥ से सैण से सजणा जि गुरमुखि मिलहि सुभाइ ॥ सतिगुर का भाणा अनदिनु करहि से सचि रहे समाइ ॥ पद्अर्थ: सैण सजण = भले मनुष्य। अनदिनु = हर रोज। अर्थ: सतिगुरु के सन्मुख हुए जो मनुष्य (स्वै वार के प्रभु में स्वभाविक तौर पर) लीन हो जाते हैं वे भले लोग हैं और (हमारे) साथी हैं; जो सदा सतिगुरु की रज़ा को मानते हैं, वे सच्चे हरि में समाए रहते हैं। दूजै भाइ लगे सजण न आखीअहि जि अभिमानु करहि वेकार ॥ पद्अर्थ: वेकार = बुरे काम। अर्थ: उन्हें संत-जन नहीं कहा जाता जो माया के मोह में लगे हुए अहंकार और विकार करते हैं। मनमुख आप सुआरथी कारजु न सकहि सवारि ॥ नानक पूरबि लिखिआ कमावणा कोइ न मेटणहारु ॥२॥ पद्अर्थ: सुआरथी = ख़ुद गर्ज, स्वार्थी। अर्थ: मनमुख अपने मतलब के प्यारे (होने के कारण) किसी का काम नहीं सँवार सकते; (पर) हे नानक! (उनके सिर भी क्या दोष?) (पिछले कर्मों के अनुसार) पहले से ही उकरा हुआ (संस्कार-रूपी लेख) कमाना पड़ता है, कोई मिटाने के लायक नहीं।1। पउड़ी ॥ तुधु आपे जगतु उपाइ कै आपि खेलु रचाइआ ॥ त्रै गुण आपि सिरजिआ माइआ मोहु वधाइआ ॥ अर्थ: हे हरि! तूने खुद ही संसार रच के खुद ही खेल बनाई है; तूने खुद ही (माया के) तीन गुण बनाए हैं और खुद ही माया का मोह (जगत में) बढ़ा दिया है। विचि हउमै लेखा मंगीऐ फिरि आवै जाइआ ॥ जिना हरि आपि क्रिपा करे से गुरि समझाइआ ॥ अर्थ: (इस मोह से उपजे) अहंकार में (लगने से) (दरगाह में) लेखा मांगा जाता हैं और फिर बार-बार पैदा होना व मरना पड़ता है; जिस पर हरि खुद मेहर करता है उन्हें सतिगुरु ने (ये) समझ दे दी है। बलिहारी गुर आपणे सदा सदा घुमाइआ ॥३॥ अर्थ: (इसलिए) मैं अपने सतिगुरु से सदके हूँ और सदा वारी जाता हूँ।3। सलोकु मः ३ ॥ माइआ ममता मोहणी जिनि विणु दंता जगु खाइआ ॥ मनमुख खाधे गुरमुखि उबरे जिनी सचि नामि चितु लाइआ ॥ पद्अर्थ: जिनि = जिस (माया की पकड़) ने। (नोट: ‘माया’ और ‘ममता’ दोनों अलग-अलग नहीं लेने; शब्द ‘जिनि’ (जिस ने) ‘एकवचन’ है।) अर्थ: माया की पकड़ (भाव, ये ख्याल कि ये मेरी चीज है, ये मेरा धन है) मन को मोहने वाली है, इसने संसार को बिना दाँतों के ही खा लिया है (भाव, समूचा ही निगल लिया है), मनमुख (इस ‘ममता’ में) ग्रसे गए हैं, और जिस गुरमुखों ने सच्चे नाम में चिक्त जोड़ा है वे बच गए हैं। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |