श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 644 बिनु नावै जगु कमला फिरै गुरमुखि नदरी आइआ ॥ धंधा करतिआ निहफलु जनमु गवाइआ सुखदाता मनि न वसाइआ ॥ अर्थ: सतिगुरु के सन्मुख हो के ये दिखाई दे जाता है कि संसार नाम के बिना पागल हुआ भटकता है, माया के पीछे भागता मनुष्य जन्म को निष्फल गवा लेता है और सुखदाता नाम मन में नहीं बसाता। नानक नामु तिना कउ मिलिआ जिन कउ धुरि लिखि पाइआ ॥१॥ अर्थ: (पर) हे नानक! नाम उन मनुष्यों को ही मिलता है जिनके दिल में आरम्भ से ही (किए कर्मों के अनुसार) (सांस्कारिक रूप लेख) प्रभु ने उकर के रख दिए हैं।1। मः ३ ॥ घर ही महि अम्रितु भरपूरु है मनमुखा सादु न पाइआ ॥ जिउ कसतूरी मिरगु न जाणै भ्रमदा भरमि भुलाइआ ॥ अम्रितु तजि बिखु संग्रहै करतै आपि खुआइआ ॥ अर्थ: (नाम-रूप) अमृत (हरेक जीव के हृदय रूप) घर में ही भरा हुआ है, (पर) मनमुखों को (उसका) स्वाद नहीं आता। जैसे हिरन (अपनी नाभि में पड़ी हुई) कस्तूरी को नहीं समझता ओर भ्रम में भूला हुआ भटकता है, वैसे ही मनुष्य नाम-अमृत को छोड़ के विष को इकट्ठा करता है, (पर उसके भी क्या वश?) कर्तार ने (उसके पिछले किए अनुसार) उसे खुद भटकाया हुआ है। गुरमुखि विरले सोझी पई तिना अंदरि ब्रहमु दिखाइआ ॥ तनु मनु सीतलु होइआ रसना हरि सादु आइआ ॥ अर्थ: विरले गुरमुखों को समझ आ जाती है, उन्हें हृदय में ही (परमात्मा दिखाई दे जाता है) उनका मन और शरीर शीतल हो जाते हैं और जीभ से (जप के) उनको नाम का स्वाद आ जाता है। सबदे ही नाउ ऊपजै सबदे मेलि मिलाइआ ॥ बिनु सबदै सभु जगु बउराना बिरथा जनमु गवाइआ ॥ अर्थ: सतिगुरु के शब्द से ही नाम (का अंगूर हृदय में) उगता है और शब्द से ही हरि से मेल होता है; शब्द के बिना सारा संसार पागल हुआ पड़ा है और मानव जन्म व्यर्थ गवाता है। अम्रितु एको सबदु है नानक गुरमुखि पाइआ ॥२॥ अर्थ: हे नानक! गुरु का एक शब्द ही आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल है जो सतिगुरु के सन्मुख मनुष्य को मिलता है।2। पउड़ी ॥ सो हरि पुरखु अगमु है कहु कितु बिधि पाईऐ ॥ तिसु रूपु न रेख अद्रिसटु कहु जन किउ धिआईऐ ॥ निरंकारु निरंजनु हरि अगमु किआ कहि गुण गाईऐ ॥ अर्थ: हे भाई! बता, वह हरि, जो अगंम पुरख है, कैसे मिल सकता है? उसका कोई रूप नहीं कोई रेख नहीं, दिखता भी नहीं, उसको कैसे स्मरण करें? आकार के बिना है, माया से रहित है, पहुँच से परे हैं, सो, क्या कह के उसकी महिमा करें? जिसु आपि बुझाए आपि सु हरि मारगि पाईऐ ॥ गुरि पूरै वेखालिआ गुर सेवा पाईऐ ॥४॥ पद्अर्थ: मारगि = रास्ते पर। गुर सेवा = गुरु की बताई हुई कार। अर्थ: जिस मनुष्य को खुद प्रभु समझ देता है वह प्रभु की राह पर चलता है; पूरे गुरु ने ही उसका दीदार करवाया है, गुरु की बताई हुई कार करने से ही वह मिलता है।4। सलोकु मः ३ ॥ जिउ तनु कोलू पीड़ीऐ रतु न भोरी डेहि ॥ जीउ वंञै चउ खंनीऐ सचे संदड़ै नेहि ॥ नानक मेलु न चुकई राती अतै डेह ॥१॥ पद्अर्थ: भोरी = रक्ती भर भी। डेहि = दे। जीउ = प्राण। चउखंनीऐ = चार खंड। चउखांनीऐ वंञै = चार टुकड़े हो जाए। नेहि = प्यार की खातिर। संदड़ै = दे। डेह = दिन। अतै = और। अर्थ: हे नानक! अगर मेरा शरीर रक्ती भर भी लहू ना दे चाहे तिलों की तरह ये कोहलू में पीढ़ा जाए, (भाव, जो अनेक कड़े कष्ट आने पर भी मेरे अंदर शरीर के बचे रहने की लालसा रक्ती भर भी ना हो) अगर मेरी जीवात्मा सच्चे प्रभु के प्यार में वारी सदके जा रही हो, तो ही प्रभु से मिलाप ना दिन ना रात कभी नहीं टूटता।1। मः ३ ॥ सजणु मैडा रंगुला रंगु लाए मनु लेइ ॥ जिउ माजीठै कपड़े रंगे भी पाहेहि ॥ नानक रंगु न उतरै बिआ न लगै केह ॥२॥ अर्थ: मेरा सज्जन रंगीला है, मन ले कर (प्रेम का) रंग लगा देता है। जैसे कपड़े भी पाह दे के मजीठ में रंगे जाते हैं (वैसे स्वै दे के ही प्रेम-रंग मिलता है); हे नानक! (इस तरह का) रंग फिर नहीं उतरता और ना ही कोई और चढ़ सकता है (भाव, कोई और चीज प्यारी नहीं लग सकती)।2। पउड़ी ॥ हरि आपि वरतै आपि हरि आपि बुलाइदा ॥ हरि आपे स्रिसटि सवारि सिरि धंधै लाइदा ॥ पद्अर्थ: वरतै = मौजूद है। सिरि = हरेक सिर पर, हरेक जीव को। अर्थ: हरि खुद ही सब में व्याप रहा है और खुद ही सबको बुलाता है (भाव, खुद ही हरेक में बोलता है); संसार को खुद ही रच के हरेक जीव को माया के चक्कर में डाल देता है। इकना भगती लाइ इकि आपि खुआइदा ॥ इकना मारगि पाइ इकि उझड़ि पाइदा ॥ अर्थ: एक को अपनी भक्ति में लगाता है और कई जीवों को खुद भरमों में डाल देता है; एक को सीधे राह चलाता है और एक को गलत रास्ते पर डाल देता है। जनु नानकु नामु धिआए गुरमुखि गुण गाइदा ॥५॥ अर्थ: दास नानक भी (उसकी भक्ति की खातिर) नाम स्मरण करता है और सतिगुरु के सन्मुख हो के (उसकी) महिमा करता है।5। सलोकु मः ३ ॥ सतिगुर की सेवा सफलु है जे को करे चितु लाइ ॥ मनि चिंदिआ फलु पावणा हउमै विचहु जाइ ॥ बंधन तोड़ै मुकति होइ सचे रहै समाइ ॥ अर्थ: जो कोई मनुष्य चिक्त लगा के सेवा करे, तो सतिगुरु की (बताई) सेवा जरूर फल लाती है; मन-इच्छित फल मिलता है, अहंकार मन में से दूर होता है; (गुरु की बताई हुई कार माया के) बंधनो को तोड़ती है (बंधनो से) खलासी हो जाती है और सच्चे हरि में मनुष्य समाया रहता है। इसु जग महि नामु अलभु है गुरमुखि वसै मनि आइ ॥ नानक जो गुरु सेवहि आपणा हउ तिन बलिहारै जाउ ॥१॥ अर्थ: इस संसार में हरि का नाम दुर्लभ है, सतिगुरु के सन्मुख मनुष्य के मन में आ के बसता है; हे नानक! (कह:) मैं सदके हूँ उनसे जो अपने सतिगुरु की बताई हुई कार करते हैं।1। मः ३ ॥ मनमुख मंनु अजितु है दूजै लगै जाइ ॥ तिस नो सुखु सुपनै नही दुखे दुखि विहाइ ॥ अर्थ: मनमुख का मन उसके काबू से बाहर है, क्योंकि वह माया में जा लगा है; (नतीजा ये कि) उसे सपने में भी सुख नहीं मिलता, (उसकी उम्र) सदा दुख में ही गुजरती है। घरि घरि पड़ि पड़ि पंडित थके सिध समाधि लगाइ ॥ इहु मनु वसि न आवई थके करम कमाइ ॥ पद्अर्थ: घरि घरि = घर घर में। घरि घरि पंडित = घर घर में पंडित, (भाव,) अनेक पंडित। अर्थ: अनेक पंडित लोग पढ़-पढ़ के और सिद्ध समाधियां लगा-लगा के थक गए है, कई कर्म करके थक गए हैं; (पढ़ने से और समाधियों से) ये मन काबू नहीं आता। भेखधारी भेख करि थके अठिसठि तीरथ नाइ ॥ मन की सार न जाणनी हउमै भरमि भुलाइ ॥ अर्थ: भेख करने वाले मनुष्य (भाव, साधु लोग) कई भेस करके और अढ़सठ तीर्थों पर नहा के थक गए हैं; अहंकार व भ्रम में भूले हुओं को मन की सार नहीं आई। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |