श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पउड़ी ॥ हउ बलिहारी तिंन कंउ जो गुरमुखि सिखा ॥ जो हरि नामु धिआइदे तिन दरसनु पिखा ॥ सुणि कीरतनु हरि गुण रवा हरि जसु मनि लिखा ॥ हरि नामु सलाही रंग सिउ सभि किलविख क्रिखा ॥ धनु धंनु सुहावा सो सरीरु थानु है जिथै मेरा गुरु धरे विखा ॥१९॥

पद्अर्थ: रवा = उचारूँ। किलविख = पाप। क्रिखा = नाश कर दिया। विखा = कदम, पैर।

अर्थ: जो सिख सतिगुरु के सन्मुख हैं, मैं उनसे सदके हूँ। जो हरि-नाम स्मरण करते हैं (जी चाहता है) मैं उनके दर्शन करूँ, (उनसे) कीर्तन सुन के हरि के गुण गाऊँ और हरि-यश मन में उकर लूँ, प्रेम से हरि नाम की कीर्ति करूँ और (अपने) सारे पाप काट दूँ। वह शरीर-स्थल धन्य है, सुंदर है जहाँ प्यारा सतिगुरु पैर रखता है (भाव, आ के बसता है)।19।

सलोकु मः ३ ॥ गुर बिनु गिआनु न होवई ना सुखु वसै मनि आइ ॥ नानक नाम विहूणे मनमुखी जासनि जनमु गवाइ ॥१॥

पद्अर्थ: गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ।

अर्थ: सतिगुरु के बिना ना आत्मिक जीवन की समझ पड़ती है और ना ही सुख मन में बसता है; (गुरु के बिना) हे नानक! नाम से वंचित (रह के) मनमुख मानव-जन्म को व्यर्थ गवा जाएंगे।1।

मः ३ ॥ सिध साधिक नावै नो सभि खोजदे थकि रहे लिव लाइ ॥ बिनु सतिगुर किनै न पाइओ गुरमुखि मिलै मिलाइ ॥

पद्अर्थ: सिध = साधना में सिद्ध योगी। साधिक = अभ्यासी।

अर्थ: सभी सिद्ध और साधक नाम को ही खोजते तवज्जो जोड़-जोड़ के थक गए है; सतिगुरु के बिना किसी को नहीं मिला। सतिगुरु के सन्मुख होने से ही मनुष्य (प्रभु को) मिल सकता है।

बिनु नावै पैनणु खाणु सभु बादि है धिगु सिधी धिगु करमाति ॥ सा सिधि सा करमाति है अचिंतु करे जिसु दाति ॥ नानक गुरमुखि हरि नामु मनि वसै एहा सिधि एहा करमाति ॥२॥

पद्अर्थ: बादि = व्यर्थ। अचिंतु = चिन्ता रहित परमात्मा। गुरमुखि = गुरु की ओर मुँह करके, गुरु की शरण पड़ के।

अर्थ: नाम के बिना खाना और पहनना सब व्यर्थ है, (अगर नाम नहीं तो) वह सिद्धि और करामात धिक्कार है; यही (उसकी) सिद्धि है और यही करामात है कि चिन्ता से रहित हरि उसको (नाम की) दाति बख्शे; हे नानक! ‘गुरु के सन्मुख हो के हरि का नाम मन में बसता है’ - यही सिद्धी और करामात होती है।2।

पउड़ी ॥ हम ढाढी हरि प्रभ खसम के नित गावह हरि गुण छंता ॥ हरि कीरतनु करह हरि जसु सुणह तिसु कवला कंता ॥

पद्अर्थ: कवला = माया, लक्ष्मी। कंत = पति। कवलाकंत = माया का पति।

अर्थ: हम प्रभु-पति के ढाढी सदा प्रभु के गुणों के गीत गाते हैं; उस कमलापति प्रभु का ही कीर्तन करते हैं और यश सुनते हैं।

हरि दाता सभु जगतु भिखारीआ मंगत जन जंता ॥ हरि देवहु दानु दइआल होइ विचि पाथर क्रिम जंता ॥

अर्थ: प्रभु दाता है, सारा संसार भिखारी है, जीव-जंतु भिखारी हैं। पत्थरों के बीच में रहते कीड़ों पर दयाल हो के, हे हरि! तू दान देता है।

जन नानक नामु धिआइआ गुरमुखि धनवंता ॥२०॥

अर्थ: हे दास नानक! जिन्होंने सतिगुरु के सन्मुख हो के नाम स्मरण किया है, वह (असल) धनवान होते हैं।20।

सलोकु मः ३ ॥ पड़णा गुड़णा संसार की कार है अंदरि त्रिसना विकारु ॥ हउमै विचि सभि पड़ि थके दूजै भाइ खुआरु ॥

अर्थ: पढ़ना और विचारना संसार के काम (ही हो गए) है (भाव, और व्यावहारों की तरह ये भी एक व्यवहार ही बन गया है, पर) हृदय में तृष्णा और विकार (टिके ही रहते) हैं; अहंकार में सारे (पंडित) पढ़ पढ़ के थक गए है, माया के मोह में दुखी ही होते हैं।

सो पड़िआ सो पंडितु बीना गुर सबदि करे वीचारु ॥ अंदरु खोजै ततु लहै पाए मोख दुआरु ॥ गुण निधानु हरि पाइआ सहजि करे वीचारु ॥ धंनु वापारी नानका जिसु गुरमुखि नामु अधारु ॥१॥

पद्अर्थ: बीना = समझदार। अंदरु = मन (शब्द ‘अंदरु’ और ‘अंदरि’ में र्फक याद रखें)। ततु = अस्लियत। मोख दुआरु = मुक्ति का दरवाजा। अधारु = आसरा। मोख = मोक्ष, (अहंकार, तृष्णा आदि विकारों से) मुक्ति। सहजि = आत्मिक अडोलता में। वीचारु = परमात्मा के गुणों की विचार। गुरमुखि = गुरु के सन्मुख मनुष्य।

अर्थ: वह मनुष्य पढ़ा हुआ और समझदार पंण्डित है (भाव, उस मनुष्य को पण्डित समझो), जो अपने मन को खोजता है (अंदर से) हरि को पा लेता है और (तृष्णा से) बचने का रास्ता ढूँढ लेता है, जो गुणों के खजाने हरि को प्राप्त करता है और आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा के गुणों में तवज्जो जोड़े रखता है। हे नानक! इस तरह सतिगुरु के सन्मुख हुए जिस मनुष्य का आसरा ‘नाम’ है, वह नाम का व्यापारी मुबारिक है।1।

मः ३ ॥ विणु मनु मारे कोइ न सिझई वेखहु को लिव लाइ ॥ भेखधारी तीरथी भवि थके ना एहु मनु मारिआ जाइ ॥

अर्थ: कोई भी मनुष्य तवज्जो जोड़ के देख ले, मन को काबू किए बिना कोई सफल नहीं हुआ (भाव, किसी की मेहनत सफल नहीं हुई); भेस करने वाले (साधु भी) तीर्थों की यात्राएं करते थक गए हैं, (इस तरह भी) ये मन मारा नहीं जाता।

गुरमुखि एहु मनु जीवतु मरै सचि रहै लिव लाइ ॥ नानक इसु मन की मलु इउ उतरै हउमै सबदि जलाइ ॥२॥

अर्थ: सतिगुरु जी के सन्मुख होने से मनुष्य सच्चे हरि में तवज्जो जोड़े रखता है (इस लिए) उसका मन जीवित ही मरा हुआ है (भाव माया के व्यवहार करते हुए भी माया से उदास है)। हे नानक! इस मन की मैल इस तरह उतरती है कि (मन का) अहंकार (सतिगुरु के) शब्द में जलाया जाए।2।

पउड़ी ॥ हरि हरि संत मिलहु मेरे भाई हरि नामु द्रिड़ावहु इक किनका ॥ हरि हरि सीगारु बनावहु हरि जन हरि कापड़ु पहिरहु खिम का ॥ ऐसा सीगारु मेरे प्रभ भावै हरि लागै पिआरा प्रिम का ॥ हरि हरि नामु बोलहु दिनु राती सभि किलबिख काटै इक पलका ॥ हरि हरि दइआलु होवै जिसु उपरि सो गुरमुखि हरि जपि जिणका ॥२१॥

पद्अर्थ: किनका = किनका मात्र, थोड़ा सा। कापड़ु = कपड़ा, पोशक। खिम = खिमा। प्रिम का = प्रेम का (श्रृंगार)। किलबिख = पाप। जिणका = जीत जाता है।

अर्थ: हे मेरे भाई संत जनो! एक किनका मात्र (मुझे भी) हरि का नाम जपाओ। हे हरि जनो! हरि के नाम का श्रृंगार बनाओ, और क्षमा की पोशक पहनो। ऐसा श्रृंगार प्यारे हरि को अच्छा लगता है, हरि के प्रेम का श्रृंगार प्यारा लगता है। दिन-रात हरि का नाम स्मरण करो, एक पलक में सारे पाप कट जाएंगे। जिस गुरमुख पर हरि दयाल होता है वह हरि का स्मरण करके (संसार से) जीत के जाता है।21।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh