श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 651 सलोकु मः ३ ॥ जनम जनम की इसु मन कउ मलु लागी काला होआ सिआहु ॥ खंनली धोती उजली न होवई जे सउ धोवणि पाहु ॥ पद्अर्थ: खनंली = तेली के कोल्हू में फेरने वाला कपड़ा। धोवणि पाहु = धोने का प्रयत्न करो। अर्थ: कई जन्मों की इस मन को मैल लगी हुई है इसलिए ये बहुत ही काला हुआ पड़ा है (सफेद नहीं हो सकता), जैसे तेली का कपड़ा धोने से सफेद नहीं होता चाहे सौ बार धोने का प्रयत्न करो। गुर परसादी जीवतु मरै उलटी होवै मति बदलाहु ॥ नानक मैलु न लगई ना फिरि जोनी पाहु ॥१॥ अर्थ: हे नानक! अगर गुरु की कृपा से मन जीवित ही मर जाए और मति (माया से) उलट जाए, तो भी मैल नहीं लगती और (मनुष्य) फिर जूनियों में भी नहीं पड़ता।1। मः ३ ॥ चहु जुगी कलि काली कांढी इक उतम पदवी इसु जुग माहि ॥ अर्थ: चारों युगों में कलियुग ही काला कहलाता है, पर इस युग में भी एक उत्तम पदवी (मिल सकती) है। गुरमुखि हरि कीरति फलु पाईऐ जिन कउ हरि लिखि पाहि ॥ नानक गुर परसादी अनदिनु भगति हरि उचरहि हरि भगती माहि समाहि ॥२॥ पद्अर्थ: कीरति = महिमा। लिखि = लिख के। अनदिनु = हर रोज। अर्थ: (वह पदवी ये है कि) जिनके हृदय में हरि (भक्ति रूपी लेख पिछली की कमाई के अनुसार) लिख देता है वह गुरमुख हरि की कीर्ति (रूपी) फल (इस युग में ही) प्राप्त करते हैं, और हे नानक! वे मनुष्य गुरु की कृपा से हर रोज हरि की भक्ति करते हैं और भक्ति में ही लीन हो जाते हैं।2। पउड़ी ॥ हरि हरि मेलि साध जन संगति मुखि बोली हरि हरि भली बाणि ॥ हरि गुण गावा हरि नित चवा गुरमती हरि रंगु सदा माणि ॥ हरि जपि जपि अउखध खाधिआ सभि रोग गवाते दुखा घाणि ॥ पद्अर्थ: मुखि = मुँह से। चवा = उचारूँ। अर्थ: हे हरि! मुझे साधु जनों की संगति मिला, मैं मुँह से तेरे नाम की सुंदर बोली बोलूँ। हरि गुण गाऊँ और नित्य हरि का नाम उचारूँ और गुरु से मति ले के सदा हरि-रंग में रहूँ। हरि का भजन करके और (भजन-रूप) दवा खाने से सारे दुख दूर हो जाते हैं। जिना सासि गिरासि न विसरै से हरि जन पूरे सही जाणि ॥ जो गुरमुखि हरि आराधदे तिन चूकी जम की जगत काणि ॥२२॥ अर्थ: उन हरि-जनों को सचमुच संपूर्ण समझो, जिन्हे सांस लेते हुए और खाते हुए (कभी भी) परमात्मा नहीं बिसरता; जो मनुष्य सतिगुरु के सन्मुख हो के हरि को स्मरण करते हैं, उनके लिए जम की और जगत की अधीनता खत्म हो जाती है।22। सलोकु मः ३ ॥ रे जन उथारै दबिओहु सुतिआ गई विहाइ ॥ सतिगुर का सबदु सुणि न जागिओ अंतरि न उपजिओ चाउ ॥ पद्अर्थ: उथारै = (सिंधी: उथाड़ो) कई बार सोते हुए हाथ छाती पर रखे जाने से जो दिल पर दबाव पड़ जाता है उसे सिंधी भाषा में उथाड़ो कहते हैं। अर्थ: (मोह रूपी) उथारे से दबे हुए हे भाई! (तेरी उम्र) सोते ही गुजर गई है; सतिगुरु का शब्द सुन के तुझे जागृति नहीं आई और ना ही हृदय में (नाम जपने का) चाव पैदा हुआ है। सरीरु जलउ गुण बाहरा जो गुर कार न कमाइ ॥ जगतु जलंदा डिठु मै हउमै दूजै भाइ ॥ नानक गुर सरणाई उबरे सचु मनि सबदि धिआइ ॥१॥ पद्अर्थ: जलउ = जल जाए। उबरे = (अहंकार में जलने से) बच गए। अर्थ: गुणों से वंचित शरीर जल जाए जो सतिगुरु के (बताए हुए) काम नहीं करता; (इस तरह का) संसार अहंकार में और माया के मोह में जलता देखा है। हे नानक! गुरु के शब्द के द्वारा हरि को मन में स्मरण करके (जीव) सतिगुरु की शरण पड़ कर (इस अहंकार में जलने से) बचते हैं।1। मः ३ ॥ सबदि रते हउमै गई सोभावंती नारि ॥ पिर कै भाणै सदा चलै ता बनिआ सीगारु ॥ अर्थ: जिसका अहंकार सतिगुरु के शब्द में रंगे जाने से दुर हो जाता है वह (जीव रूपी) नारी शोभावंती है; वह नारी अपने प्रभु-पति के हुक्म में सदा चलती है, इसलिए उसका श्रृंगार सफल समझो। सेज सुहावी सदा पिरु रावै हरि वरु पाइआ नारि ॥ ना हरि मरै न कदे दुखु लागै सदा सुहागणि नारि ॥ नानक हरि प्रभ मेलि लई गुर कै हेति पिआरि ॥२॥ अर्थ: जिस जीव-स्त्री ने प्रभु-पति पा लिया है, उसकी (हृदय रूप) सेज सुंदर है, क्योंकि उसे सदा पति मिला हुआ है, वह स्त्री सदा सुहाग वाली है क्योंकि उसका पति प्रभु कभी मरता नहीं, (इसलिए) वह कभी दुखी नहीं होती। हे नानक! गुरु के प्यार में उसकी तवज्जो होने के कारण प्रभु ने अपने साथ मिलाया है।2। पउड़ी ॥ जिना गुरु गोपिआ आपणा ते नर बुरिआरी ॥ हरि जीउ तिन का दरसनु ना करहु पापिसट हतिआरी ॥ ओहि घरि घरि फिरहि कुसुध मनि जिउ धरकट नारी ॥ पद्अर्थ: गोपिआ = निंदा की है। आपणा = प्यारा। हरि जीउ = बल्ले, रब मेहर करे। पापिसट = बहुत पापी। कुसुध = खोटे। धरकट = व्यभचारन। अर्थ: जो मनुष्य प्यारे सतिगुरु की निंदा करते हैं, वे बहुत बुरे हैं, रब मेहर ही करे! हे भाई! उनके दर्शन ना करो, वे बड़े पापी और हत्यारे हैं, मन से खोटे वे लोग व्यभचारी स्त्री की तरह घर-घर फिरते हैं। वडभागी संगति मिले गुरमुखि सवारी ॥ हरि मेलहु सतिगुर दइआ करि गुर कउ बलिहारी ॥२३॥ अर्थ: भाग्यशाली मनुष्य सतिगुरु द्वारा निवाजी हुई गुरमुखों की संगति में मिलते हैं। हे हरि! मैं सदके हूँ सतिगुरु से, मेहर कर और सतिगुरु को मिला।23। सलोकु मः ३ ॥ गुर सेवा ते सुखु ऊपजै फिरि दुखु न लगै आइ ॥ जमणु मरणा मिटि गइआ कालै का किछु न बसाइ ॥ हरि सेती मनु रवि रहिआ सचे रहिआ समाइ ॥ अर्थ: सतिगुरु की सेवा से मनुष्य को सुख प्राप्त होता है, फिर कभी कष्ट नहीं होता, उसका जनम-मरण समाप्त हो जाता है और जमकाल का कुछ जोर (वश) नहीं चलता; हरि से उसका मन मिला रहता है और वह सच्चे में समाया रहता है। नानक हउ बलिहारी तिंन कउ जो चलनि सतिगुर भाइ ॥१॥ अर्थ: हे नानक! मैं उनसे सदके जाता हूँ, जो सतिगुरु के प्यार में चलते हैं।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |