श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 652 मः ३ ॥ बिनु सबदै सुधु न होवई जे अनेक करै सीगार ॥ पिर की सार न जाणई दूजै भाइ पिआरु ॥ सा कुसुध सा कुलखणी नानक नारी विचि कुनारि ॥२॥ पद्अर्थ: सार = कद्र। दूजै भाइ = माया के प्यार में। अर्थ: सतिगुरु के शब्द के बिना (जीव-स्त्री) चाहे बेअंत श्रृंगार करे शुद्ध नहीं हो सकती, (क्योंकि) वह पति की कद्र नहीं जानती और उसकी माया में तवज्जो होती है। हे नानक! ऐसी जीव-स्त्री मन की खोटी और बुरे लक्षणों वाली होती है और नारियों में वह बुरी नारि (कहलाती) है।2। पउड़ी ॥ हरि हरि अपणी दइआ करि हरि बोली बैणी ॥ हरि नामु धिआई हरि उचरा हरि लाहा लैणी ॥ अर्थ: हे हरि! अपनी मेहर कर, मैं तेरी वाणी (भाव, तेरा यश) उचारूँ, हरि का नाम स्मरण करूँ, हरि का नाम उच्चारण करूँ और यही लाभ कमाऊँ। जो जपदे हरि हरि दिनसु राति तिन हउ कुरबैणी ॥ जिना सतिगुरु मेरा पिआरा अराधिआ तिन जन देखा नैणी ॥ अर्थ: मैं उनसे कुर्बान जाता हूँ, जो दिन रात हरि का नाम जपते हैं, उनको मैं अपनी आँखों से देखूँ जो प्यारे सतिगुरु की सेवा करते हैं। हउ वारिआ अपणे गुरू कउ जिनि मेरा हरि सजणु मेलिआ सैणी ॥२४॥ पद्अर्थ: सैणी = रिश्तेदार। अर्थ: मैं अपने सतिगुरु से सदके हूँ, जिसने मुझे प्यारा सज्जन प्रभु साथी मिला दिया है।24। सलोकु मः ४ ॥ हरि दासन सिउ प्रीति है हरि दासन को मितु ॥ हरि दासन कै वसि है जिउ जंती कै वसि जंतु ॥ पद्अर्थ: जंतु = यंत्र, बाजा। जंती = बजाने वाला। अर्थ: प्रभु की अपने सेवकों के साथ प्रीति होती है, प्रभु अपने सेवकों का मित्र है, जैसे बाजा बजाने वाले (वैजंत्री) के वश में होता है (जैसे चाहे बजाए) वैसे ही प्रभु अपने सेवकों के अधीन होता है। हरि के दास हरि धिआइदे करि प्रीतम सिउ नेहु ॥ किरपा करि कै सुनहु प्रभ सभ जग महि वरसै मेहु ॥ अर्थ: प्रभु के सेवक अपने प्रीतम प्रभु से प्रेम जोड़ के प्रभु को स्मरण करते हैं, (और विनती करते हैं कि) हे प्रभु मेहर करके सुन, सारे संसार में (नाम की) बरखा हो (इस प्यार के कारण ही प्रभु अपने सेवकों को प्यार करता है)। जो हरि दासन की उसतति है सा हरि की वडिआई ॥ हरि आपणी वडिआई भावदी जन का जैकारु कराई ॥ पद्अर्थ: उसतति = उपमा, बड़ाई। जैकारु = शोभा। अर्थ: हरि के सेवकों की शोभा हरि की ही महिमा (स्तुति) है; हरि को अपनी ये बड़ाई (जो उसके सेवकों की होती है) अच्छी लगती है। (सो) वह अपने सेवक की जै-जैकार करवा देता है। सो हरि जनु नामु धिआइदा हरि हरि जनु इक समानि ॥ जनु नानकु हरि का दासु है हरि पैज रखहु भगवान ॥१॥ पद्अर्थ: इक समानि = एक जैसे। पैज = इज्जत। अर्थ: हरि का दास वह है जो हरि का नाम स्मरण करता है, हरि और हरि का सेवक एक-रूप हैं। हे हरि! हे भगवान! दास नानक तेरा सेवक है, (इस सेवक की भी) इज्जत रख (अपने नाम की दाति दे)।1। मः ४ ॥ नानक प्रीति लाई तिनि साचै तिसु बिनु रहणु न जाई ॥ सतिगुरु मिलै त पूरा पाईऐ हरि रसि रसन रसाई ॥२॥ पद्अर्थ: रसि = रस में, स्वाद में। रसन = जीभ। अर्थ: उस सच्चे हरि ने नानक के (हृदय में) प्रेम पैदा किया है, (अब) उस के बिना जीया नहीं जाता; (कैसे मिले?) सतिगुरु मिल जाए तो पूरा हरि प्राप्त हो जाता है और जीभ हरि के नाम के स्वाद में रस जाती है।2। पउड़ी ॥ रैणि दिनसु परभाति तूहै ही गावणा ॥ जीअ जंत सरबत नाउ तेरा धिआवणा ॥ तू दाता दातारु तेरा दिता खावणा ॥ भगत जना कै संगि पाप गवावणा ॥ जन नानक सद बलिहारै बलि बलि जावणा ॥२५॥ अर्थ: हे हरि! रात दिन, अमृत के वक्त (सुबह) (भाव हर वक्त) तू ही गाने के योग्य है, सारे जीव-जंतु तेरा नाम स्मरण करते हैं, तू दातें देने वाला दातार है तेरा ही दिया हुआ खाते हैं, और भक्तों की संगति में अपने पाप दूर करते हैं। हे दास नानक! (उन भक्तजनों से) सदा सदके हो, कुर्बान हो।25। सलोकु मः ४ ॥ अंतरि अगिआनु भई मति मधिम सतिगुर की परतीति नाही ॥ अंदरि कपटु सभु कपटो करि जाणै कपटे खपहि खपाही ॥ सतिगुर का भाणा चिति न आवै आपणै सुआइ फिराही ॥ किरपा करे जे आपणी ता नानक सबदि समाही ॥१॥ पद्अर्थ: मधिम = हल्का, मध्यम, बुरी। कपटु = धोखा। सुआइ = स्वार्थ के लिए। अर्थ: (मनमुख के) हृदय में अज्ञान है, (उसकी) अक्ल होछी होती है और सतिगुरु पर उसे सिदक नहीं होता; मन में धोखा (होने के कारण संसार में भी) वह सारा धोखा ही धोखा बरतता समझता है। (मनमुख बंदे खुद) दुखी होते हैं (तथा और लोगों को) दुखी करते रहते हैं; सतिगुरु का हुक्म उनके चिक्त में नहीं आता (भाव, भाणा नहीं मानते) और अपनी गरज़ के पीछे भटकते फिरते हैं; हे नानक! अगर हरि अपनी मेहर करे, तो ही वह गुरु के शब्द में लीन होते हैं।1। मः ४ ॥ मनमुख माइआ मोहि विआपे दूजै भाइ मनूआ थिरु नाहि ॥ अनदिनु जलत रहहि दिनु राती हउमै खपहि खपाहि ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा तिन कै निकटि न कोई जाहि ॥ ओइ आपि दुखी सुखु कबहू न पावहि जनमि मरहि मरि जाहि ॥ नानक बखसि लए प्रभु साचा जि गुर चरनी चितु लाहि ॥२॥ पद्अर्थ: विआपे = ग्रसे हुए। गुबारा = अंधेरा। निकटि = नजदीक। अर्थ: माया के मोह में ग्रसित मनमुखों का मन माया के प्यार में एक जगह नहीं टिकता; हर वक्त दिन रात (माया में) जलते रहते हैं, अहंकार में आप दुखी होते हैं, और लोगों को दुखी करते हैं, उनके अंदर लोभ-रूपी बड़ा अंधेरा होता है, कोई मनुष्य उनके नजदीक नहीं फटकता, वह अपने आप ही दुखी रहते हैं, कभी सुखी नहीं होते, सदा पैदा होने मरने के चक्कर में पड़े रहते हैं। हे नानक! अगर वे गुरु के चरणों में चिक्त जोड़ें, तो सच्चा हरि उनको बख्श ले।2। पउड़ी ॥ संत भगत परवाणु जो प्रभि भाइआ ॥ अर्थ: जो मनुष्य प्रभु को प्यारे हैं, वे संत जन हैं, भक्त हैं, वही स्वीकार हैं। सेई बिचखण जंत जिनी हरि धिआइआ ॥ अम्रितु नामु निधानु भोजनु खाइआ ॥ संत जना की धूरि मसतकि लाइआ ॥ नानक भए पुनीत हरि तीरथि नाइआ ॥२६॥ पद्अर्थ: बिचखण = विलक्ष्ण, विशिष्ट, समझदार। धिआइआ = स्मरण किया है। भोजन खाया = भाव, आत्मा का आसरा बनाया है (जैसे भोजन शरीर का आसरा है)। मसतकि = माथे पर। भए पुनीत = पवित्र हो गए है। नाइआ = नहाए हैं। अर्थ: वही मनुष्य विलक्ष्ण हैं जो हरि का नाम स्मरण करते हैं, आत्मिक जीवन देने वाला नाम खाजाना रूपी भोजन करते हैं, और संतों की चरण-धूल अपने माथे पर लगाते हैं। हे नानक! (ऐसे मनुष्य) हरि (के भजन रूप) तीर्थ में नहाते हैं और पवित्र हो जाते हैं।26। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |