श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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परिओ कालु सभै जग ऊपर माहि लिखे भ्रम गिआनी ॥ कहु कबीर जन भए खालसे प्रेम भगति जिह जानी ॥४॥३॥

पद्अर्थ: महि = बीच में ही। भ्रम गिआनी = भरमी ज्ञानी। खालसे = आजाद। जिह = जिन्होंने।4।

अर्थ: सारे जगत पर काल का सहम पड़ा हुआ है, भरमी-ज्ञानी भी उसी ही लेखे में लिखे गए हैं (वे भी मौत के सहम में ही हैं)। हे कबीर! कह: जिस मनुष्यों ने प्रेमा-भक्ति करनी समझ ली है वह (मौत के सहम से) आजाद हो गए हैं।4।3।

शब्द का भाव: परमात्मा का भजन ही मनुष्य के करने के योग्य काम है। यही मौत के सहम से बचाता है। कर्मकांड, जोग, तप आदि स्मरण के मुकाबले में तुच्छ हैं।

घरु २ ॥ दुइ दुइ लोचन पेखा ॥ हउ हरि बिनु अउरु न देखा ॥ नैन रहे रंगु लाई ॥ अब बे गल कहनु न जाई ॥१॥

पद्अर्थ: दुइ दुइ लोचन = दोनों आँखों से (भाव, अच्छी तरह, आँखें खोल के)। पेखा = देखूँ। हउ = मैं। अउरु = कोई और, किसी और को। न देखा = न देखूँ, मैं नहीं देखता। नैन = आँखें। रंगु = प्यार। रहे लाई = लगा रहे हैं। बे गल = कोई और बात।1।

अर्थ: (अब तो) मैं (जिधर) आँखें खेल के देखता हूँ, मुझे परमात्मा के बिना कोई और (पराया) दिखता ही नहीं, मेरी आँखें (प्रभु से) प्यार लगाए बैठी हैं (मुझे हर तरफ प्रभु ही दिखता है), अब मुझसे कोई और बात नहीं होती (भाव, मैं अब ये कहने के लायक नहीं रहा कि प्रभु के बिना कोई और भी कहीं है)।1।

हमरा भरमु गइआ भउ भागा ॥ जब राम नाम चितु लागा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भरमु = भुलेखा। रहाउ।

अर्थ: जब से मेरा चिक्त परमात्मा के नाम में लग गया है, मेरा भुलेखा दूर हो गया है (कि प्रभु के बिना कोई और हस्ती भी जगत में है; इस भुलेखे के दूर होने से) अब कोई डर नहीं रह गया (क्योंकि डर तो किसी ऊपर वाले से ही हो सकता है)।1। रहाउ।

बाजीगर डंक बजाई ॥ सभ खलक तमासे आई ॥ बाजीगर स्वांगु सकेला ॥ अपने रंग रवै अकेला ॥२॥

पद्अर्थ: बाजीगर = तमाशा करने वाले (प्रभु) ने। डंक = डुग डुगी। खलक = लोग। तमासे = तमाशा देखने। स्वांग = सांग, तमाशा। सकेला = समेटा, संभालता है। रंग रवै = मौज में रहता है।2।

अर्थ: (मुझे अब यूँ दिखता है कि) जब प्रभु बाजीगर डुगडुगी बजाता है, तो सारे लोग (जगत-) तमाशा देखने आ जाती है, और जब वह बाजीगर खेल समेटता है, तो अकेला खुद ही खुद अपनी मौज में रहता है।2।

कथनी कहि भरमु न जाई ॥ सभ कथि कथि रही लुकाई ॥ जा कउ गुरमुखि आपि बुझाई ॥ ता के हिरदै रहिआ समाई ॥३॥

पद्अर्थ: कथनी कहि = सिर्फ बातें करके। सभ लुकाई = सारी दुनिया, सारी सृष्टि। रही = थक गई। गुरमुखि = गुरु के द्वारा। आपि = प्रभु ने खुद। बुझाई = समझ दे दी।3।

अर्थ: (पर ये द्वैत का) भुलेखा निरी बातें करने से दूर नहीं होता, सिर्फ बातें कर करके तो सारी दुनिया थक चुकी है (किसी के अंदर से द्वैत-भाव नहीं जाता)। जिस मनुष्य को परमात्मा खुद गुरु के द्वारा सुमति देता है, उसके दिल में वह सदा टिका रहता है।3।

गुर किंचत किरपा कीनी ॥ सभु तनु मनु देह हरि लीनी ॥ कहि कबीर रंगि राता ॥ मिलिओ जगजीवन दाता ॥४॥४॥

पद्अर्थ: किंचत = थोड़ी सी। हरि लीनी = हरि में लीन हो जाता है। रंगि = प्यार में। राता = रंगा जाता है।4।

अर्थ: कबीर कहता है: जिस मनुष्य पर गुरु ने थोड़ी जितनी भी मेहर कर दी है, उसका तन और मन सब हरि में लीन हो जाता है, वह प्रभु के प्यार में रंगा जाता है, उसे वह प्रभु मिल जाता है जो सारे जगत को जीवन देने वाला है।4।4।4।

शब्द का भाव: प्रभु से मिलाप-अवस्था में हर जगह प्रभु ही दिखता है, ये जगत उसी की ही बनाई हुई खेल प्रतीत होती है। पर ये अवस्था गुरु की मेहर से स्वै-भाव दूर करने से प्राप्त होती है।4।

जा के निगम दूध के ठाटा ॥ समुंदु बिलोवन कउ माटा ॥ ता की होहु बिलोवनहारी ॥ किउ मेटै गो छाछि तुहारी ॥१॥

पद्अर्थ: निगम = वेद आदि धर्म पुस्तकें। ठाटा = थन (संस्कृत: स्तन)। दूध के ठाटा = दूध के थन, अमृत के श्रोत। समुंदु = (भाव,) सत्संग। बिलोवन कउ = मथने के लिए। माटा = मटकी, चाटी।

नोट: जैसे मटकी में दूध मथते हैं वैसे ही सत्संग में धर्म-पुस्तकें विचारी जाती हैं।

होहु = बन। ता की = (जा के...जिस प्रभु के....) उस प्रभु की। छाछि = लस्सी (भाव, साधारण आनंद जो वाणी के विचार से मिल सकता है)।1।

अर्थ: (हे जिंदे!) तू उस प्रभु के नाम को मथने वाली बन (भाव, तू उस प्रभु के नाम में चिक्त जोड़), वेद आदि धर्म पुस्तकें जिसके (नाम-अमृत) दूध के श्रोत हैं और सत्संर्ग उस दूध के मथने के लिए चाटी है। (हे जिंदे! यदि तुझे हरि का मिलाप नसीब ना हुआ, तो भी) वह प्रभु (सत्संग में बैठ के धर्म-पुस्तकों के विचारने का) तेरा साधारण आनंद नहीं मिटाएगा।1।

चेरी तू रामु न करसि भतारा ॥ जगजीवन प्रान अधारा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चेरी = हे दासी! हे जीव-स्त्री! हे जीवात्मा! न करसि = तू (क्यों) नहीं करती? अधारा = आसरा।1। रहाउ।

अर्थ: हे जीवात्मा! तू उस परमात्मा को क्यों अपना पति नहीं बनाती जो जगत का जीवन है और सबके प्राणों का आसरा है?।1। रहाउ।

तेरे गलहि तउकु पग बेरी ॥ तू घर घर रमईऐ फेरी ॥ तू अजहु न चेतसि चेरी ॥ तू जमि बपुरी है हेरी ॥२॥

पद्अर्थ: अजहु = अभी तक। गलहि = बात में। तउकु = लोहे का कड़ा जो गुलाम के गले में डाला जाता था, मोह का पट्टा। पग = पैरों में। बेरी = आशाओं की बेड़ी। तू बपुरी = तुझ निमाणी को। जमि = जम ने। हेरी = ढूँढ ली, निगाह में रखी हुई है।2।

अर्थ: हे जिंदे! तेरे गले में मोह का पट्टा और तेरे पैरों में आशाओं की बेड़ियां होने के कारण तुझे परमात्मा ने घर-घर (कई जूनियों में) घुमाया है, (अब सौभाग्य से कहीं मानव जनम मिला था) अब भी तू उस प्रभु को याद नहीं करती। हे भाग्यहीन! तुझे जम ने अपनी निगाह में रखा हुआ है (भाव, मौत आने से फिर पता नहीं किस लंबे चक्कर में पड़ जाएगी)।2।

प्रभ करन करावनहारी ॥ किआ चेरी हाथ बिचारी ॥ सोई सोई जागी ॥ जितु लाई तितु लागी ॥३॥

पद्अर्थ: सोई सोई = कई जन्मों से सोई हुई। जितु = जिधर।3।

अर्थ: पर इस बिचारी जीवात्मा के भी क्या वश? सब कुछ करने कराने वाला प्रभु खुद ही है। ये कई जन्मों से सोई हुई जीवात्मा (तब ही) जागती है (जब वह खुद जगाता है, क्योंकि) जिधर वह इसे लगाता है उधर ही ये लगती है।3।

चेरी तै सुमति कहां ते पाई ॥ जा ते भ्रम की लीक मिटाई ॥ सु रसु कबीरै जानिआ ॥ मेरो गुर प्रसादि मनु मानिआ ॥४॥५॥

पद्अर्थ: सुमति = सद् बुद्धि। जा ते = जिसकी इनायत से। भ्रम की लीक = भ्रम भटकना की लकीर, वह संस्कार जो भटकना में डाले रखते हैं। रसु = आत्मिक आनंद।4।

अर्थ: (उसकी मेहर से जागी हुई जीवात्मा को जिज्ञासु जीवात्मा पूछती है) हे (भाग्यशाली) जिंदे! तुझे कहाँ से ये सद्-बुद्धि मिली है, जिसकी इनायत से तेरे वह संस्कार मिट गए हैं, जो तुझे भटकना में डाले रखते थे। (आगे से जागी हुई जीवात्मा उक्तर देती है) हे कबीर! सतिगुरु की कृपा से मेरी उस आत्मिक आनंद से जान-पहचान हो गई है, और मेरा मन उसमें परच गया है।4।5।

शब्द का भाव: स्मरण के बिना जीव माया के मोह के बंधनो में जकड़ा रहता है। जिस पर प्रभु की मेहर हो, वह गुरु की शरण पड़ कर नाम-रस का आनंद लेता है और जनम-मरण के चक्कर से बच जाता है।

जिह बाझु न जीआ जाई ॥ जउ मिलै त घाल अघाई ॥ सद जीवनु भलो कहांही ॥ मूए बिनु जीवनु नाही ॥१॥

पद्अर्थ: जिह बाझु = (वह ‘जीवनु मूए बिनु नाही’) जिस आत्मिक जीवन के बिना। जउ = अगर (वह ईश्वरीय जीवन)। घाल अघाई = मेहनत तृप्त हो जाती है, मेहनत सफल हो जाती है। कहांही = (लोग) कहते हैं। भलो = भला, अच्छा, सोहणा। सद जीवन = (इस) अटल जीवन (को)। मूए बिनु = (चस्कों से) मरे बिना, स्वै भाव छोड़े बिना।1।

अर्थ: जिस (सदा-स्थिर रहने वाले आत्मिक जीवन) के बिना जीआ नहीं जा सकता, और अगर वह जीवन मिल जाए तो मेहनत सफल हो जाती है, जो जीवन सदा कायम रहने वाला है, और जिसे लोग बढ़िया जीवन कहते हैं, वह जीवन स्वै-भाव त्यागे बिना नहीं मिल सकता।1।

अब किआ कथीऐ गिआनु बीचारा ॥ निज निरखत गत बिउहारा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अब = अब जब (‘गिआन बिचारा’)। गिआनु बीचारा = (जब उस सद जीवन) के ज्ञान को विचार लिया है, जब उस अटल जीवन की समझ पड़ गई है। निज निरखत = मेरे देखते हुए। गत बिउहारा = बदलने वाला व्यवहार, बदलने वाली चाल।1। रहाउ।

अर्थ: जब उस ‘सद् जीवन’ की समझ पड़ जाती है तब उसके बयान करने की जरूरत नहीं रहती। (वैसे उसका नतीजा ये निकलता है कि) अपने देखते हुए ही (जगत की सदा) बदलते रहने की चाल देख ली जाती है (भाव, ये देख लिया जाता है कि जगत सदा बदल रहा है, पर स्वै को मिटा के मिला हुआ जीवन अटल रहता है)।1। रहाउ।

घसि कुंकम चंदनु गारिआ ॥ बिनु नैनहु जगतु निहारिआ ॥ पूति पिता इकु जाइआ ॥ बिनु ठाहर नगरु बसाइआ ॥२॥

पद्अर्थ: घसि = रगड़ के (भाव, स्वै भाव मिटाने की मेहनत करके)। कुंकम = केसर। गारिआ = गला लिया है, मिला के एक कर दिया है। कुंकम चंदनु = (जीवन सुगंधि देने वाले) आत्मा और परमात्मा। बिनु नैनहु = आँखो के बिना, इन आँखों को रूप आदि देखने की ललक से हटा के। निहारिआ = देख लिया है। पूति = पुत्र ने, जीवात्मा ने। इकु पिता = एक प्रभु पिता को। जाइआ = पैदा कर लिया है, (अपने अंदर) प्रगट कर लिया है। बिनु ठाहर = जिसकी कोई जगह नहीं थी, जो कहीं एक जगह टिकता नहीं था, जो सदा भटकता रहता था।2।

अर्थ: जिस पुत्र (जीवात्मा) ने मेहनत करके अपने प्राणों को प्रभु में मिला दिया है, उसने अपनी आँखों को जगत-तमाशे से हटा के जगत (की सच्चाई) को देख लिया है। उसने अपने अंदर अपने प्रभु-पिता को प्रकट कर लिया है, पहले वह सदा बाहर भटकता था, अब (उसने अपने अंदर, जैसे) शहर बसा लिया है (भाव, उसके अंदर वह गुण पैदा हो गए हैं कि वह अब बाहर नहीं भटकता)।2।

जाचक जन दाता पाइआ ॥ सो दीआ न जाई खाइआ ॥ छोडिआ जाइ न मूका ॥ अउरन पहि जाना चूका ॥३॥

पद्अर्थ: जाचक = भिखारी। न जाई खाइआ = खाते हुए खत्म नहीं होता। सो = वह कुछ, इतनी आत्मिक दाति। न मूका = नहीं खत्म होता। पहि = पास। चूका = खत्म हो गया है।3।

अर्थ: जो मनुष्य भिखारी (बन के प्रभु के दर से मांगता) है उसे दाता प्रभु खुद-ब-खुद मिल जाता है, उसको वह इतनी आत्मिक जीवन की दाति बख्शता है जो खर्चने से खत्म नहीं होती। उस दाति को ना छोड़ने को जी करता है, ना वह खत्म होती है, (और उसकी इनायत से) औरों के दर की भटकना समाप्त हो जाती है।3।

जो जीवन मरना जानै ॥ सो पंच सैल सुख मानै ॥ कबीरै सो धनु पाइआ ॥ हरि भेटत आपु मिटाइआ ॥४॥६॥

पद्अर्थ: जो = जो मनुष्य। जीवन मरना = (इस सद-) जीवन के लिए स्वै-भाव मिटानां। सैल = शैल सा, पहाड़ जैसा अटल। मानै = मानता है। पंच = संत। कबीरै = कबीर ने। आपु = स्वै भाव।4।

अर्थ: जो मनुष्य इस आत्मिक अटल जीवन की खातिर स्वै-भाव मिटाने की विधि सीख लेता है, वह संतों वाले अटल आत्मिक सुख भोगता है। मैं कबीर ने (भी) वह (आत्मिक जीवन-रूप) धन प्राप्त कर लिया है, और प्रभु के चरणों में जुड़ के स्वै-भाव मिटा लिया है।4।6।

शब्द का भाव: ऊँचा आत्मिक जीवन स्वै भाव मिटा के ही मिलता है। जिस मनुष्य ने स्वै भाव मिटा लिया है, उसका मन जगत के रंग-तमाशों में नहीं फसता।

किआ पड़ीऐ किआ गुनीऐ ॥ किआ बेद पुरानां सुनीऐ ॥ पड़े सुने किआ होई ॥ जउ सहज न मिलिओ सोई ॥१॥

पद्अर्थ: किआ = क्या लाभ? गुनीऐ = (संस्कृत: गण्) विचारें। किआ होई = कोई लाभ नहीं होगा। जउ = अगर। सहज = (सं: सहज = as natural result of) कुदरती नतीजे के तौर पर स्वाभाविक ही। सोई = वह प्रभु।1।

अर्थ: (हे गवार!) वेद-पुराण पुस्तकें निरी पढ़ने-सुनने का कोई फायदा नहीं, अगर इस पढ़ने-सुनने के कुदरती नतीजे के तौर पर उस प्रभु का मिलाप ना हो।1।

हरि का नामु न जपसि गवारा ॥ किआ सोचहि बारं बारा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: न जपसि = तू जपता नहीं। गवारा = हे गवार! हे मूर्ख! बारं बारा = बार बार।1। रहाउ।

अर्थ: हे मूर्ख! तू परमात्मा का नाम (तो) स्मरण करता नहीं (नाम को विसार के) बार बार और सोचें सोचने का तुझे क्या फायदा होगा?।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh