श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 656 अंधिआरे दीपकु चहीऐ ॥ इक बसतु अगोचर लहीऐ ॥ बसतु अगोचर पाई ॥ घटि दीपकु रहिआ समाई ॥२॥ पद्अर्थ: अंधिआरे = अंधेरे में। चहीऐ = चाहिए, जरूरत होती हैं। अगोचर = जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच ना हो सके (अ+गो+चर)। लहीऐ = मिल गए। पाई = (जिसने) पा ली। घटि = (उसके) हृदय में। समाई रहिआ = अडोल जलता रहता है।2। अर्थ: अंधेरे में (तो) दीए की जरूरत होती है (ता कि अंदर से) वह हरि-नाम पदार्थ मिल जाए, जिस तक इन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती, (इस तरह धार्मिक पुस्तकें पढ़ने से उस ज्ञान का दीपक मन में जलना चाहिए जिससे अंदर बसता ईश्वर मिल जाए)। जिस मनुष्य को वह अगम्य (पहुँच से परे) हरि-नाम पदार्थ मिल जाता है, उस के अंदर वह दीया फिर सदा टिका रहता है।2। कहि कबीर अब जानिआ ॥ जब जानिआ तउ मनु मानिआ ॥ मन माने लोगु न पतीजै ॥ न पतीजै तउ किआ कीजै ॥३॥७॥ पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। अब = अब (जब ‘अगोचर वस्तु’ मिल गई है)। जानिआ = जान लिया है, समझ पड़ गई है, जान पहिचान हो गई है। मानिआ = मान गया, पतीज गया है, संतुष्ट हो गया है। तउ = तो। किआ कीजै = क्या किया जाए? कोई अधीनता नहीं होती।3। अर्थ: कबीर कहता है: उस अगम्य (पहुँच से परे) हरि-नाम पदार्थ से मेरी भी जान-पहचान हो गई है। जब से ये जान-पहचान हुई है, मेरा मन उसी में ही परच गया है। (पर जगत चाहता है धर्म-पुस्तकों के रिवायती पाठ करने करवाने और तीर्थ आदि के स्नान; सो) परमात्मा में मन जोड़ने से (कर्मकांडी) जगत की तसल्ली नहीं होती; (दूसरी तरफ) नाम-जपने वाले को भी ये अधीनता नहीं होती कि जरूर ही लोगों की तसल्ली भी कराए, (तभी तो, आम तौर पर इनका मेल नहीं हो पाता)।3।7। शब्द का भाव: अगर मनुष्य की लगन प्रभु के नाम में नहीं बनती तो धर्म-पुस्तकों के पाठ कराने का भी कोई लाभ नहीं होता। ये पाठ करवाने सिर्फ लोकाचारी ही रह जाते हैं।7। ह्रिदै कपटु मुख गिआनी ॥ झूठे कहा बिलोवसि पानी ॥१॥ पद्अर्थ: गिआनी = ज्ञान की बातें करने वाला। कहा = क्या लाभ है? बिलोवसि = तू मथता है।1। अर्थ: हे पाखण्डी मनुष्य! तेरे मन में तो ठगी है, पर तू मुँह से (ब्रहम) ज्ञान की बातें कर रहा है। तुझे इस तरह पानी मथने से कुछ हासिल होने वाला नहीं।1। कांइआ मांजसि कउन गुनां ॥ जउ घट भीतरि है मलनां ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कांइआ = शरीर। मांजसि = तू मांजता है। कउन गुनां = किस गुण का? इसका क्या लाभ? जउ = अगर। घट = हृदय। मलनां = मैल, विकार, खोट।1। रहाउ। अर्थ: (हे झूठे!) अगर तेरे हृदय में (कपट की) मैल है तो इस बात का कोई फायदा नहीं कि तू अपना शरीर मांजता फिरता है (भाव, बाहर स्वच्छ व पवित्र रखता है)।1। रहाउ। लउकी अठसठि तीरथ न्हाई ॥ कउरापनु तऊ न जाई ॥२॥ पद्अर्थ: लउकी = तूंबी, लौकी। अठसठि = अढ़सठ। तऊ = तो भी।2। अर्थ: (देख) अगर तूंबी अढ़सठ तीर्थों पर भी स्नान कर ले, तो भी उसकी अंदरूनी कड़वाहट दूर नहीं होती।2। कहि कबीर बीचारी ॥ भव सागरु तारि मुरारी ॥३॥८॥ पद्अर्थ: कहि = कहे, कहता है। बीचारी = विचार के, सोच के। भव सागरु = संसार समुंदर। मुरारी = हे मुरारी! हे प्रभु!।3। अर्थ: (इस अंदरूनी मैल को दूर करने के लिए) कबीर तो सोच-विचार के (प्रभु के आगे यूँ) अरदास करता है: हे प्रभु! तू मुझे इस संसार समुंदर से पार लंघा ले।3।8। शब्द का भाव: मन की मैल तीर्थ-स्नान या ज्ञान चर्चा से दूर नहीं होती। इसका एक ही इलाज है: प्रभु के दर पर गिर जाना।8। सोरठि ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ बहु परपंच करि पर धनु लिआवै ॥ सुत दारा पहि आनि लुटावै ॥१॥ पद्अर्थ: बहु परपंच = कई प्रकार की ठगीयां। करि = कर के। पर = पराया। सुत = पुत्र। दार = दारा, पत्नी। पहि = पास। आनि = ला के। लुटावै = हवाले कर देता है।1। अर्थ: कई तरह की ठगीयां करके तू पराया माल लाता है, और ला के तू पुत्र व पत्नी पर आ लुटाता है।1। मन मेरे भूले कपटु न कीजै ॥ अंति निबेरा तेरे जीअ पहि लीजै ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कपटु = धोखा, ठगी। अंति = आखिर को। निबेरा = फैसला, हिसाब, लेखा। तेरे जीअ पहि = तेरी जीवात्मा से।1। रहाउ। अर्थ: हे मेरे भूले हुए मन! (रोजी आदि के खातिर किसी के साथ) धोखा-फरेब ना किया कर। आखिर को (इन बुरे कर्मों का) लेखा तेरे अपने प्राणों से ही लिया जाना है।1। रहाउ। छिनु छिनु तनु छीजै जरा जनावै ॥ तब तेरी ओक कोई पानीओ न पावै ॥२॥ पद्अर्थ: छिनु छिनु = पल पल में। छीजै = कमजोर हो रहा है। जरा = बुढ़ापा। जणावै = अपना आप दिखा रहा है। ओक = चुल्ली। पानीओ = पानी भी।2। अर्थ: (देख, इन ठगीयां में ही) धीरे-धीरे तेरा अपना शरीर कमजोर होता जा रहा है, बुढ़ापे की निशानियां आ रही हैं (जब तू बुढ़ा हो गया, और हिलने के काबिल भी ना रहा) तब (इन में से, जिनकी खातिर तू ठगीयां करता है) किसी ने तेरी चुल्ली में पानी भी नहीं डालना।2। कहतु कबीरु कोई नही तेरा ॥ हिरदै रामु की न जपहि सवेरा ॥३॥९॥ पद्अर्थ: हिरदै = हृदय में। की न = क्यूँ नहीं? सवेरा = समय रहते।3। अर्थ: (तुझे) कबीर कहता है: (हे जिंदे!) किसी ने भी तेरा (साथी) नहीं बनना। (एक प्रभु ही असल साथी है) तू समय रहते (अभी-अभी) उस प्रभु को क्यों नहीं सिमरती?।3।9। शब्द का भाव: कार्य-व्यवहार में ठगी आदि करना बहुत बड़ी मूर्खता है। जिस पुत्र-स्त्री आदि के लिए मनुष्य ठगी-चोरी करता है, अंत में साथ निभाना तो कहाँ रहा, बुढ़ापा आने पर वे खुश हो के पानी का घूट भी नहीं देते।9। संतहु मन पवनै सुखु बनिआ ॥ किछु जोगु परापति गनिआ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संतहु = हे संत जनो! मन पवनै = मन पवन को, पवन जैसे चंचल मन को, इस मन को जो पहले पवन जैसा चंचल था, इस मन को जो पहले कभी एक जगह टिकता ही नहीं था। जोगु परापति = परापति जोगु, हासिल करने योग्य। किछु = कुछ थोड़ा बहुत। जोगु परापति गनिआ = ये मन हासिल करने के लायक गिना जा सकता है, ये मन अब प्रभु का मिलाप हासिल करने के लायक माना जा सकता है। रहाउ। नोट: कई सज्जनों ने इसका अर्थ ये किया है: ‘जोग की प्राप्ति हो गई है’। पर शब्द ‘जोगु’ के अंत में ‘ु’ की मात्रा है इसका अर्थ ‘जोग की’ नहीं हो सकता। जैसे ‘गुर परसादु करै’, यहाँ शब्द ‘गुरु’ का अर्थ ‘गुरु का’ नहीं हो सकता, बल्कि ‘गुर प्रसादि’ में शब्द है ‘गुर’ जिसका स्पष्टत: अर्थ होगा ‘गुरु की’। अर्थ: हे संत जनो! (मेरे) पवन (जैसे चंचल) मन को (अब) सुख मिल गया है, (अब ये मन प्रभु का मिलाप) हासिल करने के लायक थोड़ा बहुत समझा जा सकता है। रहाउ। नोट: अपने किसी बनाए हुए विचार के अनुसार कबीर जी की वाणी में बरते गए शब्द ‘जोग’ को ‘जोग साधन’ में बरता हुआ समझ लेना ठीक नहीं है। शब्द में जो शब्द जिस सूरत में प्रयोग किए गए हैं, उन्हें निष्पक्ष हो के समझने का प्रयत्न करें। भक्त कबीर जी आदि सिर्फ बँदगी वाले महापुरुष नहीं थे, वे एक उच्च दर्जे के कवि भी थे। उनकी ‘ईश्वरीय कविता’ को सही तरीके से समझने के लिए इनके हरेक शब्द को ध्यान से देख के समझने की आवश्यक्ता है। गुरि दिखलाई मोरी ॥ जितु मिरग पड़त है चोरी ॥ मूंदि लीए दरवाजे ॥ बाजीअले अनहद बाजे ॥१॥ पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। मोरी = कमजोरी। जितु = जिस कमजोरी से। मिरग = कामादिक पशु। चोरी = चुप करके, अडोल ही, पता दिए बिना ही। मूँद लीए = बँद कर दिए हैं। दरवाजे = शरीररिक इंद्रिय, जिनके द्वारा कामादिक विकार शरीर पर हमला करते हैं। अनहद = एक रस। बाजीअले = बजने लग पड़े हैं।1। अर्थ: (क्योंकि) सतिगुरु ने (मुझे मेरी वह) कमजोरी दिखा दी है जिसके कारण (कामादिक) पशू अडोल ही (मुझे) आ दबाते थे; (सो, मैंने गुरु की मेहर से शरीर के) दरवाजे (ज्ञान-इंद्रिय को: पर निंदा, पर तन, पर धन आदि से) बँद कर लिया है और (मेरे अंदर प्रभु की महिमा के) बाजे एक-रस बजने लग पड़े हैं।1। नोट: गुरु की हिदायत करने से पहले, एक तो ज्ञान-इंद्रिय खुली रहती थीं और कामादिक विकार इनके अंदर लांघ आते थे; दूसरा अंदर मन भी बाहरी उकसाने वाली चीजों के लिए तैयार रहता था। अब, गुरु की सहायता से ज्ञानेंद्रियां पराया रूप निंदा आदि को स्वीकार करने से रोक लिए गए हैं; दूसरे, प्रभु की महिमा रूपी बाजे इतने जोर से बज रहे हैं कि अंदर बैठे मन को बाहर से हो रहे कामादिक विकारों के शोर सुनाई ही नहीं देते। कु्मभ कमलु जलि भरिआ ॥ जलु मेटिआ ऊभा करिआ ॥ कहु कबीर जन जानिआ ॥ जउ जानिआ तउ मनु मानिआ ॥२॥१०॥ पद्अर्थ: कुंभ = हृदय रूपी घड़ा। जलि = विकार रूप पानी से। मेटिआ = डोल दिया है। ऊभा = ऊँचा, सीधा। जानिआ = जान लिया है, प्रभु से जान पहचान कर ली है। मानिआ = पतीज गया है।2। अर्थ: (मेरा) हृदय-कमल रूपी घड़ा (पहले विकारों से) पानी से भरा हुआ था, (अब गुरु की इनायत से मैंने वह) पानी डोल दिया है और (हृदय को) ऊँचा उठा लिया है। हे दास कबीर! (अब) कह: मैंने (प्रभु से) जान-पहचान कर ली है, और जब से ये सांझ डाली है, मेरा मन (उस प्रभु में) गिझ गया है।2।10। शब्द का भाव: जब गुरु मनुष्य को समझा देता है कि विकार कैसे आ हमला करते हैं, और जब नाम-जपने की सहायता से मनुष्य उन हमलों से बचाव कर लेता है, तो मन चंचलता से हट के आत्मिक सुख में टिक जाता है।10। रागु सोरठि ॥ भूखे भगति न कीजै ॥ यह माला अपनी लीजै ॥ हउ मांगउ संतन रेना ॥ मै नाही किसी का देना ॥१॥ पद्अर्थ: भूख = रोजी माया आदि की चाहत। भूखा = रोजी माया आदि की तृष्णा के अधीन। भूखे = रोजी माया आदि की तृष्णा के अधीन रहने से। न कीजै = नहीं की जा सकती। यह = ये। लीजै = कृपा करके ले लो। यह...लीजै = हे प्रभु! ये अपनी माला मुझसे ले लो। हउ = मैं। रेना = चरण धूल। किसी का देना = किसी की अधीनता, किसी के दबाव के नीचे।1। अर्थ: अगर मनुष्य रोटी की ओर से ही अतृप्त रहा, तो वह प्रभु की भक्ति नहीं कर सकता। फिर वह भक्ति दिखावे की ही रह जाती है। (प्रभु! एक तो मुझे रोटी की ओर से बेफिक्र कर, दूसरा) मैं संतों की चरण-धूल माँगता हूँ, ता कि मैं किसी का मुथाज ना होऊँ।1। नोट: क्या भक्त कबीर जी माला के साथ भक्ति किया करते थे? बिलावल राग के एक शब्द में भी कबीर जी की माला का जिक्र आता है जब उनकी माँ गिला करती है कि; ‘हमारै कुल कउनै रामु कहिओ॥ जब की माला लई निपूते तब ते सुखु न भइओ॥ रहाउ॥’ पर माला के बारे में कबीर जी के अपने विचार इस प्रकार हैं; 1. ‘कबीर मेरी सिमरनी रसना ऊपरि राम॥’ (सलोक) 2. ‘माथे तिलकु हथ माला बाना॥ लोगन राम खिलउना जाना॥’ (भैरउ) इन प्रमाणों से ऐसा जाहिर होता है कि कबीर जी माला को दिखावा मात्र समझते थे। जीभ पर हर वक्त राम का नाम टिके रहना ही– ये उनकी माला थी। पर, उपरोक्त शब्द में वह खुद प्रभु को कहते हैं कि अपनी माला ले लो, और बिलावल राग वाले शब्द में उनकी माँ शिकायत करती है कि ‘जब की माला लई निपूते”। मजेदार बात ये है कि दोनों जगह शिकवा के संबंध में ही ‘माला’ का जिक्र आया है। कभी प्रभु-प्यार में आ के भक्त जी ने कहीं ‘माला’ की बात नहीं की। ऐसा प्रतीत होता है इन दोनों ही जगह शब्द ‘माला’ के द्वारा किसी ऐसे काम का जिक्र किया जा रहा है, जो शब्द ‘माला’ बरतने वाले को पसंद नहीं है। जगत में कई शब्द तो प्यार का ‘चिन्ह’ बन जाते हैं और कई नफरत के। कृष्ण जी के उपासक के लिए शब्द ‘बाँसुरी वाला’ और ‘कंबली वाला’ तो प्यार के खींच डालते हैं; पर, ‘ब्राहमण’ सब से ऊँची जाति का होते हुए भी, अगर गाँव में सवेरे उठते ही किसी के माथे लग जाए तो भरमी लोग इसे अशुभ मानते हैं। (मेरा एक गरीब हिन्दू घर में जन्म हुआ था। नौवी कक्षा में पहुँचने से चार-पाँच महीने पहले मैं सिख बना था। हमारे स्कूल का हैड मास्टर एक वहिमी सा आदमी था; उसे मेरी ये तब्दीली बिल्कुल अच्छी ना लगी। पर, सारी कक्षा में क्योंकि मैं अकेला ही वजीफ़ा लेने वाला लड़का था, इसलिए वह मेरा लिहाज करता था। हम सिख लड़के मिल के हफ़ते में एक बार शहर के गुरद्वारे में जा के शब्द पढ़ा करते थे, ये बात हैड मास्टर को अच्छी नहीं लगती थी। एक बार रोका भी, पर उसका असर उनकी मर्जी के उलट हुआ। इसलिए रोकने से तो हट गए, पर, अगर किसी दिन मैं कक्षा में बाकी विद्यार्थियों के पीछे जा बैठता तो वे झट मुझे आगे बुला के बैठा देते और कहते– बस! तुझे और काम क्या है? तू धरमशाला में जा के ढोलकी बजा और माला फेर। हलांकि सच ये है कि मुझे ढोलकी बजानी नहीं आती, ना ही उन्होंने मुझे बजाते हुए देखा था, ना ही मेरे पास कोई माला थी। दरअसल, ये शब्द माला और ढोलकी उनके दिल की नफ़रत का बाहरी विकास था। ये आप बीती मैने यहाँ बात बताने के लिए लिखी है कि जब किसी का देखने में दिखाई देता धार्मिक कर्म पसंद ना आए तो मुहावरे के तौर पर शब्द ‘माला’ आदि बरता जाता है)। से, ‘यह माला अपनी लीजै’ का अर्थ है कि मुझे ये ऊपर से दिखता धार्मिक कर्म पसंद नहीं है। ‘भूखे...लीजै’– अगर मनुष्य की रोटी की तरफ से ही तृष्णा समाप्त नहीं हुई तो वह प्रभु की भक्ति नहीं कर सकता, ये भक्ति दिखावे की ही रह जाती है, और ये मुझे पसंद नहीं। माधो कैसी बनै तुम संगे ॥ आपि न देहु त लेवउ मंगे ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कैसी बनै = कैसे निभ सकती है? तुम संगे = तेरे से शर्म करके। लेवउ मंगे = मैं माँग के ले लूँगा। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! तुझ से शर्म करने से नहीं निभनी; सो, जो तू खुद नहीं देगा, तो मैं ही माँग के ले लूँगा। रहाउ। दुइ सेर मांगउ चूना ॥ पाउ घीउ संगि लूना ॥ अध सेरु मांगउ दाले ॥ मो कउ दोनउ वखत जिवाले ॥२॥ पद्अर्थ: चूना = आटा। जिवाले = जीवित रखे।2। अर्थ: मुझे दो सेर आटे की आवश्यक्ता है, एक पाव घी और कुछ नमक चाहिए, मैं तुझसे आधा सेर दाल माँगता हूँ- ये चीजें मेरे दोनों वक्त के गुजारे के लिए काफ़ी हैं।2। खाट मांगउ चउपाई ॥ सिरहाना अवर तुलाई ॥ ऊपर कउ मांगउ खींधा ॥ तेरी भगति करै जनु थींधा ॥३॥ पद्अर्थ: खाट = चारपाई। चउपाई = चार पाँवों वाली, साबत। खींधा = रजाई। थींधा = चिकनाई, प्रेम में रस के।3। अर्थ: साबत मंजा मांगता हूँ, सिरहाना और तौलाई भी। ऊपर लेने के लिए रजाई की जरूरत है; बस! फिर तेरा भक्त (शरीरिक जरूरतों से बेफिक्र हो के) तेरे प्रेम में भीग के तेरी भक्ति करेगा।3। मै नाही कीता लबो ॥ इकु नाउ तेरा मै फबो ॥ कहि कबीर मनु मानिआ ॥ मनु मानिआ तउ हरि जानिआ ॥४॥११॥ पद्अर्थ: लबे = लालच। मै फबो = मुझे पसंद है। जानिआ = समझ पा ली है।4। अर्थ: कबीर कहता है: हे प्रभु! मैंने (माँगने में) कोई लालच नहीं किया, क्योंकि (ये चीजें तो शारीरिक निर्वाह मात्र के लिए है) असल में तो मुझे तेरा नाम ही प्यारा है। मेरा मन (तेरे नाम में) परचा हुआ है, और जब का परचा है तब से तेरे साथ मेरी गहरी जान-पहचान हो गई है।4।11। शब्द का भाव: जब तक मनुष्य का मन तृष्णा के अघीन है, परमात्मा की भक्ति नहीं की जा सकती। तृष्णा और भक्ति का कभी भी मेल नहीं हो सकता। रागु सोरठि बाणी भगत नामदे जी की घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जब देखा तब गावा ॥ तउ जन धीरजु पावा ॥१॥ पद्अर्थ: देखा = देखूँ, देखता हूँ; प्रभु का दीदार करता हूं। गावा = गाऊँ, मैं (उसके गुण) गाता हूँ। तउ = तब। जन = हे भाई! पावा = मैं हासिल करता हूँ। धीरज = शांति, अडोलता, टिकाव।1। अर्थ: (अब शब्द की इनायत के सदका) ज्यों-ज्यों मैं परमात्मा का (हर जगह) दीदार करता हूँ मैं (आप आगे हो के) उसकी महिमा करता हूँ और हे भाई! मेरे अंदर ठंड पड़ती जा रही है।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |