श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 658 राज भुइअंग प्रसंग जैसे हहि अब कछु मरमु जनाइआ ॥ अनिक कटक जैसे भूलि परे अब कहते कहनु न आइआ ॥३॥ पद्अर्थ: राज = रज्जु, रस्सी। भुइअंग = सांप। प्रसंग = वार्ता, बात। मरमु = भेद, राज। कटक = कड़े। कहते = कहते हुए।3। अर्थ: जैसे रस्सी और साँप का दृष्टांत है, जैसे (सोने से बने हुए) अनेक कड़े देख के भुलेखा पड़ जाए (कि सोना ही कई किस्म का होता है, वैसे ही हमें भुलेखा पड़ा हुआ है कि ये जगत तुझसे अलग है), पर तूने अब मुझे कुछ-कुछ भेद जता दिया है। अब वह पुरानी भेद-भाव वाली बात मुझसे कहीं नहीं जाती (भाव, अब मैं ये नहीं कहता कि जगत तुझसे अलग हस्ती है)।3। सरबे एकु अनेकै सुआमी सभ घट भुोगवै सोई ॥ कहि रविदास हाथ पै नेरै सहजे होइ सु होई ॥४॥१॥ पद्अर्थ: सरबे = सभी में। अनेकै = अनेक रूप हो के। भुोगवै = भोग रहा है, मौजूद है। पै = से। सहजे = सोते ही, उसकी रजा में।4। नोट: ‘भुोगवै’ अक्षर ‘भ’ के साथ दो मात्राएं है ‘ु’ की और ‘ो’। असल शब्द है भोगवे पर यहाँ पढ़ना है ‘भुगवै’। अर्थ: (अब तो) रविदास कहता है कि वह प्रभु-पति अनेक रूप बना के सभी में एक स्वयं ही है, सभी घटों में खुद ही बैठा जगत के रंग माण रहा है। (दूर नहीं) मेरे हाथ से भी नजदीक है, जो कुछ (जगत में) हो रहा है, उसी की रजा में हो रहा है।4।1। शब्द का भाव: परमात्मा सर्व-व्यापक है। पर जीव अपनी ‘हउ’ (मैं) के घेरे में रह के जगत को उससे अलग हस्ती समझता है। जब तक ‘मैं’ है, तब तक भेदभाव है। जउ हम बांधे मोह फास हम प्रेम बधनि तुम बाधे ॥ अपने छूटन को जतनु करहु हम छूटे तुम आराधे ॥१॥ पद्अर्थ: बांधे = बँधे हुए हैं। फास = फाही। बधनि = रस्सी से। तुम = तुझे। को = का।1। अर्थ: (सो, हे माधो!) अगर हम मोह के बंधनो में बँधे हुए थे, तो हमने अब तुझे अपने प्यार की रस्सी से बाँध लिया है। हम तो (उस मोह के बंधनो से) तुझे स्मरण करके निकल आए हैं, तुम हमारे प्यार की जकड़ में से अब कैसे निकलोगे?।1। माधवे जानत हहु जैसी तैसी ॥ अब कहा करहुगे ऐसी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जानत हउ = तुम जानते हो। जैसी = जैसी (भक्तों की प्रीति है तेरे साथ)। ऐसी = ऐसी प्रीति के होते हुए। कहा करहुगे = क्या करोगे? इस के बिना और क्या करेगा? (भाव, तू जरूर अपने भक्तों को मोह से बचाए रखेगा)।1। रहाउ। अर्थ: हे माधो! तेरे भक्त जैसा प्यार तेरे साथ करते हैं वह तुझसे छुपा नहीं रह सकता (तू अच्छी तरह जानता है), ऐसी प्रीति के होते हुए तूम जरूर उन्हें मोह से बचाए रखते हो।1। रहाउ। मीनु पकरि फांकिओ अरु काटिओ रांधि कीओ बहु बानी ॥ खंड खंड करि भोजनु कीनो तऊ न बिसरिओ पानी ॥२॥ पद्अर्थ: मीनु = मछली। पकरि = पकड़ के। फांकिओ = टुकड़े-टुकड़े कर दी। रांधि कीओ = पकाई। बहु बानी = कई तरीकों से। खंड = टुकड़ा। तऊ = तो भी।2। अर्थ: (हमारा तेरे साथ प्यार भी वह है जो मछली को पानी के साथ होता है, हमने तो मर के भी तेरी याद नहीं छोड़नी) मछली (पानी में से) पकड़ के टुकड़े-टुकड़े कर दें, हिस्से कर दें और कई प्रकार से पका लें, फिर रक्ती रक्ती करके खा लें, फिर भी उस मछली को पानी नहीं भूलता (जिस खाने वाले के पेट में जाती है उसको भी पानी की प्यास लगा देती है)।2। आपन बापै नाही किसी को भावन को हरि राजा ॥ मोह पटल सभु जगतु बिआपिओ भगत नही संतापा ॥३॥ पद्अर्थ: बापै = पिता की (मल्कियत)। भावन को = प्रेम का (बँधा हुआ)। राजा = जगत का मालिक। पटल = पर्दा। बिआपिओ = छाया हुआ है। संताप = (मोह का) कष्ट।3। अर्थ: जगत का मालिक हरि किसी के पिता की (जद्दी मल्कियत) नहीं है, वह तो प्रेम का बँधा हुआ है। (इस प्रेम से वंचित सारा जगत) मोह के पर्दे में फंसा पड़ा है, पर (प्रभु के साथ प्रेम करने वाले) भक्तों को (इस मोह का) कोई कष्ट नहीं होता।3। (नोट: भक्त रविदास जी अपनी वाणी में परमात्मा के लिए शब्द ‘राजा’ भी बहुत बार बरतते हैं; हरेक कवि का अपना-अपना स्वभाव होता है कि कोई खास शब्द उसे बार-बार प्रयोग में लाना उसे प्यारा लगता है)। कहि रविदास भगति इक बाढी अब इह का सिउ कहीऐ ॥ जा कारनि हम तुम आराधे सो दुखु अजहू सहीऐ ॥४॥२॥ पद्अर्थ: भगति इक = एक प्रभु की भक्ति। बाढी = बढ़ाई है, दृढ़ की है। अब...कहीऐ = अब किसी के साथ ये बात करने की जरूरत ही ना रही। जा कारनि = जिस (मोह से बचने) की खातिर। अजहू = अब तक।4। अर्थ: रविदास कहता है: (हे माधो!) मैं एक तेरी भक्ति (अपने हृदय में) इतनी दृढ़ की है कि मुझे अब किसी के साथ ये गिला करने की जरूरत नहीं रह गई कि जिस मोह से बचने के लिए मैं तेरा स्मरण कर रहा था, उस मोह का दुख मुझे अब तक सहना पड़ रहा है (भाव, उस मोह का तो अब मेरे अंद रनाम-निशान भी नहीं रह गया)।4।2। शब्द का भाव: माया के मोह की फाही को तोड़ने का एक-मात्र तरीका है: प्रभु के चरणों में प्यार। दुलभ जनमु पुंन फल पाइओ बिरथा जात अबिबेकै ॥ राजे इंद्र समसरि ग्रिह आसन बिनु हरि भगति कहहु किह लेखै ॥१॥ पद्अर्थ: दुलभ = जिसका मिलना बहुत मुश्किल है। पुंन = भले काम। जात = जा रहा है। अबिबेकै = विचार हीनता के कारण, अंजानपने में। समसरि = जैसे, के बराबर। किह लेखै = किस काम आए? किसी अर्थ नहीं।1। अर्थ: ये मानव जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है, (पिछले किए) भले कामों के फल के कारण हमें मिल गया, पर हमारे अंजानपने में ये व्यर्थ ही जा रहा है; (हमने कभी सोचा ही नहीं कि) अगर प्रभु की बँदगी से वंचित रहे तो (देवताओं के) राजा इन्द्र के स्वर्ग जैसे महल-माढ़ियां भी किसी काम के नहीं हैं।1। न बीचारिओ राजा राम को रसु ॥ जिह रस अन रस बीसरि जाही ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: राजा = जगत का मालिक। रसु = (मिलाप का) आनंद। जिह रस = जिस रस की इनायत से। अन रस = और चस्के।1। रहाउ। अर्थ: (हम मायाधरी जीवों ने) जगत-प्रभु परमात्मा के नाम के उस आनंद को कभी नहीं विचारा, जिस आनंद की इनायत से (माया के) और सारे चस्के दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। जानि अजान भए हम बावर सोच असोच दिवस जाही ॥ इंद्री सबल निबल बिबेक बुधि परमारथ परवेस नही ॥२॥ पद्अर्थ: जानि = जान बूझ के। अजान = अंजान। बावर = पागल। सोच असोच = अच्छी बुरी सोचें। दिवस = उमर के दिन। जाही = गुजर रहे हैं। इन्द्री = काम-वासना। सबल = बलवान। निबल = कमजोर। बिबेक बुधि = परखने की बुद्धि। परमारथ = परम+अर्थ,सबसे बड़ी जरूरत। परवेस = दख़ल।2। अर्थ: (हे प्रभु!) जानते-बूझते हुए भी हम कमले और मूर्ख बने हुए हैं, हमारी उम्र के दिन (माया की ही) अच्छी-बुरी विचारों में गुजर रहे हैं, हमारी काम-वासना बढ़ रही है, विचार-शक्ति कम हो रही है, इस बात की हमें कभी सोच ही नहीं आई कि हमारी सबसे बड़ी जरूरत क्या है।2। कहीअत आन अचरीअत अन कछु समझ न परै अपर माइआ ॥ कहि रविदास उदास दास मति परहरि कोपु करहु जीअ दइआ ॥३॥३॥ पद्अर्थ: आन = कुछ और। अचरीअत = कमाते हैं। अन कछु = कुछ और। अपर = अपार, बली। उदास = उपराम, आशाओं से बचा हुआ। परहरि = छोड़ के, दूर करके। कोपु = गुस्सा। जीअ = जीवात्मा पर।3। अर्थ: हम कहते और हैं और करते कुछ और हैं, माया इतनी बलवान हो रही है कि हमें (अपनी मूर्खता की) समझ ही नहीं पड़ती। (हे प्रभु!) तेरा दास रविदास कहता है: मैं अब इस (मूर्खपने से) उपराम हो गया हूँ, (मेरे अंजानपने पर) गुस्सा ना करना और मेरी आत्मा पर मेहर करनी।3।3। भाव: माया का मोह मनुष्य को असल निशाने से गिरा देता है। सुख सागरु सुरतर चिंतामनि कामधेनु बसि जा के ॥ चारि पदारथ असट दसा सिधि नव निधि कर तल ता के ॥१॥ पद्अर्थ: सुरतर = स्वर्ग के वृक्ष, ये गिनती में पाँच हैं: मंदार, पारिजाति, संतान, कल्पवृक्ष, हरिचंदन (पंचैते देवतरवो मंदार: पारिजातक: संतान: कल्पवृक्षश्य पुंसि वा हरिचंदनम्॥)। चिंतामनि = वह मणि जिससे मन की हरेक चितवनी पूरी हो जाती मानी जाती है। कामधेनु = (काम = वासना, धेनु = गाय) हरेक वासना पूरी करने वाली गाय (स्वर्ग में रहती मानी जाती है)। बसि = वश में। जा के = जिस परमात्मा के। चारि पदारथ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। असट दसा = (8+10) अठारह। नव निधि = कुबेर देवते के नौ खजाने। कर तल = हाथ की तलियों पर।1। अर्थ: (हे पण्डित!) जो प्रभु सुखों का समुंदर है, जिस प्रभु के वश में स्वर्ग के पाँचों वृक्ष, चिंतामणि और कामधेनु हैं, धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पदार्थ, अठारहों सिद्धियां और नौ निधियां ये सब उसी के हाथों की तलियों पर हैं।1। हरि हरि हरि न जपहि रसना ॥ अवर सभ तिआगि बचन रचना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: रसना = जीभ से। बचन रचना = फोकी बातें। तिआगि = त्याग के।1। रहाउ। अर्थ: (हे पण्डित!) तू और सारी फोकियां बातें छोड़ के (अपनी) जीभ से सदा एक परमात्मा का नाम क्यों नहीं स्मरण करता?।1। रहाउ। नाना खिआन पुरान बेद बिधि चउतीस अखर मांही ॥ बिआस बिचारि कहिओ परमारथु राम नाम सरि नाही ॥२॥ पद्अर्थ: नाना = कई किस्म के। खिआन = प्रसंग (स: आरब्यान)। बेद बिधि = वेदों में बताई गई धार्मिक विधियां। चउतीस अखर = (अ इ उ स=4, पांच वर्ग, क = वर्ग आदि=25, य र ल व ह=5, कुल जोड़=34)। परमारथु = परम+अर्थ, सबसे ऊँची बात। सरि = बराबर।2। नोट: असल ‘हृस्व’ सिर्फ 3 हैं, ‘उ अ इ’, बाकी के इनसे ही बने हैं लग-मात्राएं लगा के)। चउतीस अखर माही 34 अक्षरों में ही, निरी वाक्य रचना, सिर्फ बातें जो आत्मिक जीवन से नीचे हैं। अर्थ: (हे पण्डित!) पुराणों के अनेक किस्म के प्रसंग, वेदों की बताई हुई विधियां, ये सब वाक्य-रचना ही हैं (अनुभवी ज्ञान नहीं जो प्रभु की रचना में जुड़ने से हृदय में पैदा होता है)। (हे पण्डित! वेदों के खोजी) व्यास ऋषि ने सोच-विचार के यही धर्म-तत्व बताया है कि (इन पुस्तकों के पाठ आदि) परमात्मा के नाम का स्मरण करने के की बराबरी नहीं कर सकते। (फिर तू क्यों नाम नहीं स्मरण करता?)।2। सहज समाधि उपाधि रहत फुनि बडै भागि लिव लागी ॥ कहि रविदास प्रगासु रिदै धरि जनम मरन भै भागी ॥३॥४॥ पद्अर्थ: सहज समाधि = मन का पूर्ण टिकाव। सहज = आत्मिक अडोलता। उपाधि = कष्ट। फुनि = फिर, दुबारा। बडै भागि = बड़ी किस्मत से। कहि = कहे, कहता है। रिदै = हृदय में। भागी = दूर हो जाते हैं।3। अर्थ: रविदास कहता है: बड़ी किस्मत से जिस मनुष्य की तवज्जो प्रभु-चरणों में जुड़ती है उसका मन आत्मिक अडोलता में टिका रहता है। कोई विकार उसमें नहीं उठता, वह मनुष्य अपने हृदय में रोशनी प्राप्त करता है, और, जनम-मरण (भाव, सारी उम्र) के उसके डर नाश हो जाते हैं।3।4। भाव: सब पदार्थों का दाता प्रभु खुद है। उसका स्मरण करो, कोई भूख नहीं रह जाएगी। जउ तुम गिरिवर तउ हम मोरा ॥ जउ तुम चंद तउ हम भए है चकोरा ॥१॥ पद्अर्थ: जउ = अगर। गिरि = पहाड़। गिरिवर = सुंदर पहाड़। तउ = तो। भए हैं = बनाऊँगा।1। अर्थ: हे मेरे माधो! अगर तू सुदर सा पहाड़ बने, तो मैं (तेरा) मोर बनूँगा (तुझे देख-देख के मैं नृत्य करूँगा)। अगर तू चाँद बने तो मैं तेरा चकोर बनूँगा (और तुझे देख-देख के खुश हो-हो के बोलूँगी)।1। माधवे तुम न तोरहु तउ हम नही तोरहि ॥ तुम सिउ तोरि कवन सिउ जोरहि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: न तोरहु = ना तोड़। हम नही तोरहि = हम नहीं तोड़ेंगे, मैं नहीं तोड़ूँगा। तोरि = तोड़ के। सिउ = से।1। रहाउ। अर्थ: हे माधो! अगर तू (मेरे से) प्यार ना तोड़े, तो मैं भी नहीं तोड़ूंगा; क्योंकि तेरे से तोड़ के मैं और किसके साथ जोड़ सकता हूँ? (और कोई, हे माधो! तेरे जैसा है ही नहीं)।1। रहाउ। जउ तुम दीवरा तउ हम बाती ॥ जउ तुम तीरथ तउ हम जाती ॥२॥ पद्अर्थ: दीवरा = सुंदर सा दीया। बाती = बक्ती। जाती = यात्री।2। अर्थ: हे माधो! अगर तू सुंदर सा दीया बने, मैं (तेरी) बाती बन जाऊँ। अगर तू तीर्थ बन जाए तो मैं (तेरा दीदार करने के लिए) यात्री बन जाऊँगा।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |