श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 659

साची प्रीति हम तुम सिउ जोरी ॥ तुम सिउ जोरि अवर संगि तोरी ॥३॥

पद्अर्थ: अवर संगि = औरों से।3।

अर्थ: हे प्रभु! मैंने तेरे साथ पक्का प्यार डाल लिया है। तेरे साथ प्रीति जोड़ के मैंने और सभी से तोड़ ली है।3।

जह जह जाउ तहा तेरी सेवा ॥ तुम सो ठाकुरु अउरु न देवा ॥४॥

पद्अर्थ: जह जह = जहाँ जहाँ। तुम सो = तेरे जैसा। ठाकुरु = मालिक। देवा = हे देव!।4।

अर्थ: हे माधो! मैं जहाँ जहाँ (भी) जाता हूँ (मुझे हर जगह तू ही दिखता है, मैं हर जगह) तेरी ही सेवा करता हूँ। हे देव! तेरे जैसा कोई और मालिक मुझे नहीं दिखां4।

तुमरे भजन कटहि जम फांसा ॥ भगति हेत गावै रविदासा ॥५॥५॥

पद्अर्थ: कटहि = काटे जाते हैं। फांसा = फंदे। भगति हेति = भक्ति हासिल करने के लिए।5।

अर्थ: तेरी बँदगी करने से जमों के बंधन कट जाते हैं, (तभी तो) रविदास तेरी भक्ति का चाव हासिल करने के लिए तेरे गुण गाता है।5।5।

शब्द का भाव: प्रभु की मेहर से ही उसके चरणों में प्रीति जुड़ी रह सकती है। वही प्रीति ऊँचे दर्जे की है।

जल की भीति पवन का थ्मभा रकत बुंद का गारा ॥ हाड मास नाड़ीं को पिंजरु पंखी बसै बिचारा ॥१॥

पद्अर्थ: भीति = दीवार। पवन = हवा। थंभा = स्तम्भ, खंभा। रकत = माँ के खून। बूँद = पिता के वीर्य की बूँद। पंखी = पक्षी।1।

अर्थ: जीव-पक्षी बेचारा उस शरीर में बस रहा है जिसकी दीवार (जैसे) पानी की है, जिसकी खंभा हवा (सांसों) का है; माता का रक्त और पिता के वीर्य का जिसे गारा लगा हुआ है, और हाड़-मास-नाड़ियों का पिंजर बना हुआ है।1।

प्रानी किआ मेरा किआ तेरा ॥ जैसे तरवर पंखि बसेरा ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रानी = हे बंदे! तरवर = वृक्षों (पर)। पंखि = पक्षी।1। रहाउ।

अर्थ: जैसे वृक्षों पर पक्षियों का (सिर्फ रात के लिए) डेरा होता है (वैसे ही जीवों का बसेरा जगत में है)। हे भाई! फिर, इन भेदभाव व बँटवारों का क्या लाभ?।1। रहाउ।

राखहु कंध उसारहु नीवां ॥ साढे तीनि हाथ तेरी सीवां ॥२॥

पद्अर्थ: नीवां = नीवें। सीवां = सीमा, हद, ज्यादा से ज्यादा जगह।2।

अर्थ: हे भाई! (गहरी) नीवें खोद-खोद के तू उन पर दीवारें बनवाता है, पर तुझे खुद को (हर रोज तो) ज्यादा से ज्यादा साढ़े तीन हाथ जगह ही चाहिए (सोने के लिए इतनी ही जगह तो घेरता है)।2।

बंके बाल पाग सिरि डेरी ॥ इहु तनु होइगो भसम की ढेरी ॥३॥

पद्अर्थ: बंके = सोहणे, बाँके। डेरी = टेढ़ी।3।

अर्थ: तू सिर पर बाँके बाल (सँवार-सँवार के) टेढ़ी सी पगड़ी बाँधता है (पर शायद तुझे कभी चेता नहीं आया कि) ये शरीर (ही किसी दिन) राख की ढेरी हो जाएगा।3।

ऊचे मंदर सुंदर नारी ॥ राम नाम बिनु बाजी हारी ॥४॥

पद्अर्थ: बाजी = जिंदगी की खेल।4।

अर्थ: हे भाई! तू ऊँचे-ऊँचे महल-माढ़ियों व सुंदर स्त्रीयों (का मान करता है), प्रभु का नाम विसार के तू मानव जन्म की खेल हार रहा है।4।

मेरी जाति कमीनी पांति कमीनी ओछा जनमु हमारा ॥ तुम सरनागति राजा राम चंद कहि रविदास चमारा ॥५॥६॥

पद्अर्थ: पांति = कुल गोत्र। ओछा = नीचे दर्जे का। सरनागति = शरण आया हूँ। राजा = हे राजन! कहि = कहे। चंद = हे चाँद! हे सुंदर!।5।

अर्थ: रविदास चमार कहता है: हे मेरे राजन! हे मेरे सुंदर राम! मेरी तो जाति, कुल और जनम सब कुछ नीच ही नीच था, (यहाँ तो ऊँची कुलों वाले डूबते जा रहे हैं, मेरा क्या बनना था? पर) मैं तेरी शरण आया हूँ।5।6।

नोट: इस शब्द का असल जोर इस बात पर है कि यहाँ जगत में पक्षियों की तरह जीवों का बसेरा है, पर जीव बड़े-बड़े किले गाड़ के गुमान कर रहे हैं और रब को भुला के जीवन को कमीना बना रहे हैं, व्यर्थ गवा रहे हैं। आखिर की तुकों के शब्द ‘राजा’ और ‘चंद’ श्री राम चंद्र जी के लिए नहीं है, अपना कमीनापन और ओछापन ज्यादा स्पष्ट करने के लिए परमात्मा के लिए शब्द ‘राजा’ व ‘चंद’ प्रयोग किए हैं, भाव, एक तरफ, प्रकाश स्वरूप सुंदर प्रभु, दूसरी तरफ, मैं होछा और कमीना जीव। अगर रविदास जी श्री रामचंद्र जी की मूर्ति के उपासक होते तो अपने शबदों में शब्द ‘माधो’ ना बरतते। क्योंकि ‘माधो’ कृष्ण जी का नाम है, और एक अवतार का पुजारी दूसरे अवतार का नाम अपने अवतार के लिए नहीं बरत सकता।

शब्द का भाव: यहाँ रैन-बसेरा है। ‘मैं मेरी’ क्यों?

चमरटा गांठि न जनई ॥ लोगु गठावै पनही ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: चमरटा = गरीब चमार। गंठि न जनई = गाँठना नहीं जानता। गठावै = गाँठ लगवाता है। पनही = जूती।1। रहाउ।

अर्थ: मैं गरीब चमार (शरीर जूती को) सीना नहीं जानता, पर जगत के जीव अपनी अपनी (शरीर-रूपी) जूती सिलवा रहे हैं (मरम्मत करवा रहे हैं, अर्थात, लोग दिन रात निरे शरीर की पालना के आहर में लगे हुए हैं)।1।

रहाउ।

आर नही जिह तोपउ ॥ नही रांबी ठाउ रोपउ ॥१॥

पद्अर्थ: जिह = जिससे। तोपउ = तोपना, सिलना। ठाउ = जगह, जूती की टूटी हुई जगह। रोपउ = टाकी लगाऊँ।1।

अर्थ: मेरे पास आर नहीं है कि मैं (जूती को) तरोपे लगाऊँ (भाव, मेरे अंदर मोह की पकड़ नहीं है कि मेरी तवज्जो सदा शरीर में ही टिकी रहे)। मेरे पास रंगी नहीं है कि (जूती को) टाकियां लगाऊँ (भाव, मेरे अंदर लोभ नहीं कि अच्छे-अच्छे खाने ला के नित्य शरीर को पालता रहूँ)।1।

लोगु गंठि गंठि खरा बिगूचा ॥ हउ बिनु गांठे जाइ पहूचा ॥२॥

पद्अर्थ: गंठि गंठि = गाँठ गाँठ के। खरा = बहुत। बिगूचा = ख्वार हो रहा है। हउ = मैं। बिनु गांठे = गाँठने का काम छोड़ के।2।

अर्थ: जगत सिल सिल के बहुत ख्वार हो रहा है (भाव, जगत के जीव अपने-अपने शरीर को दिन रात पालने-पोसने के आहरे लगा के दुखी हो रहे हैं); मैं गाँठने का काम छोड़ के (भाव, अपने शरीर के नित्य आहरे लगे रहने को छोड़ के) प्रभु चरणों में जा पहुँचा हूँ।2।

रविदासु जपै राम नामा ॥ मोहि जम सिउ नाही कामा ॥३॥७॥

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। सिउ = साथ। कामा = वास्ता।3।

अर्थ: रविदास अब परमात्मा का नाम स्मरण करता है, (और, शरीर का मोह छोड़ बैठा है; इस वास्ते) मुझ रविदास को जमों से कोई वास्ता नहीं रह गया।3।7।

शब्द का भाव: शरीरिक मोह दुखी करता है।

नोट: रविदास जी बनारस के वासी थे और ये शहर विद्वान ब्राहमणों का भारी केन्द्र चला आ रहा है। ब्राहमणों की अगुवाई में यहाँ मूर्ति पूजा का जोर होना भी कुदरती बात थी। एक तरफ उच्च कुल के विद्वान लोग मन्दिरों में जा जा के मूर्तियाँ पूजें; दूसरी तरफ, एक बहुत निम्न जाति का कंगाल और गरीब रविदास एक परमात्मा के स्मरण का होका दे; ये एक अजीब सी खेल बनारस में हो रही थी। ब्राहमण का चमार रविदास को उसकी नीच जाति का चेता करवा करवा के उसकी मजाक उड़ाना भी स्वाभाविक सी बात थी। ऐसी दशा हर जगह जीवन में देखी जा रही है।

इस शब्द में रविदास जी लोगों के इस मजाक का उक्तर दे रहे हैं, और, कहते हैं कि मैं तो भला जाति का ही चमार हूँ, लोग उच्च जाति के हो के भी चमार ही बने पड़े हैं। ये जिस्म, जैसे, एक जूती है। गरीब मनुष्य बार-बार अपनी जूती सिलवाता है (मरम्मत करवाता है) कि ज्यादा समय काम आ जाए। इसी तरह माया के मोह में फंसे हुए लोग (चाहे वे उच्च कुल के भी हैं) इस शरीर की मरम्मत में दिन-रात इसी की पालना में जुटे रहते हैं, और प्रभु को बिसार के ख्वार होते हैं। जैसे चमार जूती सिलता है, वैसे ही माया-ग्रसित जीव शरीर को हमेशा अच्छी खुराकें, पोशाकें और दवा आदि के गाँठ-तरोपे लगाता रहता है। सो, सारा जगत ही चमार बना हुआ है। पर, रविदास जी कहते हैं, मैंने मोह त्याग कर शरीर को गाँढे-तरोपे लगाने छोड़ दिए हैं, मैं लोगों की तरह दिन-रात शरीर के आहर में नहीं रहता, मैंने प्रभु का नाम स्मरणा अपना मुख्य धर्म बनाया है, तभी मुझे किसी जम आदि का डर नहीं रहा।

रागु सोरठि बाणी भगत भीखन की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

नैनहु नीरु बहै तनु खीना भए केस दुध वानी ॥ रूधा कंठु सबदु नही उचरै अब किआ करहि परानी ॥१॥

पद्अर्थ: नैनहु = आँखों में से। नीरु = पानी। खीना = कमजोर, क्षीण। दुधवानी = दूध जैसा सफेद। रूधा = रुका हुआ। कंठु = गला। परानी = हे जीव!।1।

अर्थ: हे जीव! (वृद्ध अवस्था में कमजोर होने के कारण) तेरी आँखों में पानी बह रहा है, तेरा शरीर क्षीण हो रहा है, तेरे केश दूध जैसे सफेद हो गए हैं, तेरा गला (कफ़ से) रुकने के कारण बोल नहीं सकता; अभी (भी) तू क्या कर रहा है? (भाव, अब भी तू परमात्मा को याद क्यों नहीं करता? तू क्यों शरीर के मोह में फंसा हुआ है? तू क्यों देह-अध्यास नहीं छोड़ता?)।1।

राम राइ होहि बैद बनवारी ॥ अपने संतह लेहु उबारी ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: होहि = अगर तू हो, अगर तू बने। बनवारी = (सं: वनमालिन् adorned with a chaplet of wood flowers. जंगली फूलों की माला पहनने वाला। An epithet of ज्ञrishna) परमात्मा। लेहु उबारी = बचा लेते हो। रहाउ।

अर्थ: हे सुंदर राम! हे प्रभु! अगर तू हकीम बने तो तू अपने संतों को (देह अध्यास से) बचा लेता है (भाव, तू आप ही हकीम बन के संतों को देह-अध्यास से बचा लेता है)।1। रहाउ।

माथे पीर सरीरि जलनि है करक करेजे माही ॥ ऐसी बेदन उपजि खरी भई वा का अउखधु नाही ॥२॥

पद्अर्थ: सरीरि = शरीर में। जलनि = जलन। करक = दर्द। बेदन = रोग। खरी बेदन = बड़ा रोग। वा का = उस का। अउखधु = दारू, दवाई।2।

अर्थ: हे प्राणी! (वृद्ध होने के कारण) तेरे सिर में पीड़ा टिकी रहती है, शरीर में जलन रहती है, कलेजे में दर्द उठती है (किस-किस अंग का फिक्र करें? सारे ही जिस्म में बुढ़ापे का) एक ऐसा बड़ा रोग उठ खड़ा हुआ है कि इसका कोई इलाज नहीं है (फिर भी इस शरीर से तेरा मोह नहीं मिटता)।2।

हरि का नामु अम्रित जलु निरमलु इहु अउखधु जगि सारा ॥ गुर परसादि कहै जनु भीखनु पावउ मोख दुआरा ॥३॥१॥

पद्अर्थ: जगि = जगत में। सारा = श्रेष्ठ। गुर परसादि = गुरु की कृपा से। पावउ = मैं हासिल करता हूँ, मैं पा लिया है। मोख = मुक्ति, शारीरिक मोह से खलासी, देह अध्यास से आजादी। मोख दुआरा = मुक्ति का रास्ता, वह तरीका जिससे शारीरिक मोह से मुक्ति हो जाए।3।

अर्थ: (इस शारीरिक रोग को मिटाने का) एक ही श्रेष्ठ इलाज जगत में है, वह है प्रभु का नाम-रूपी निर्मल जल। दास भीखण कहता है: (अपने) गुरु की कृपा से मैंने इस नाम को जपने का रास्ता ढूँढ लिया है, जिसके कारण मैंने शारीरिक मोह से खलासी पा ली है।3।1।

ऐसा नामु रतनु निरमोलकु पुंनि पदारथु पाइआ ॥ अनिक जतन करि हिरदै राखिआ रतनु न छपै छपाइआ ॥१॥

पद्अर्थ: निरमोलकु = जिस का मूल्य नहीं पड़ सकता, जो किसी मोल नहीं मिल सकता। पुंनि = पुण्य से, भाग्यों से। पाइआ = मिलता है, पाया जाता है।1।

अर्थ: परमात्मा का नाम एक ऐसा अमूल्य पदार्थ है जो भाग्यों से मिलता है। इस रत्न को अनेक यत्न करके भी हृदय में (गुप्त) रखें, तो भी छुपाए नहीं छुपता।1।

हरि गुन कहते कहनु न जाई ॥ जैसे गूंगे की मिठिआई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कहनु न जाई = (स्वाद) बताया नहीं जा सकता। रहाउ।

अर्थ: (वैसे वह स्वाद) बताया नहीं जा सकता (जो) परमात्मा के गुण गाने से (आता है), जैसे गूँगे मनुष्य द्वारा खाई हुई मिठाई (का स्वाद किसी और को नहीं पता लग सकता, गूँगा बता नहीं सकता)।1। रहाउ।

रसना रमत सुनत सुखु स्रवना चित चेते सुखु होई ॥ कहु भीखन दुइ नैन संतोखे जह देखां तह सोई ॥२॥२॥

पद्अर्थ: रसना = जीभ। रमत = जपते हुए। स्रवना = कानों को। चेते = याद करते हुए। होई = होता है। कहु = कह। भीखन = हे भीखन! संतोखे = शांत हो गए हैं, ठंड पड़ गई है। देखां = मैं देखता हूं। तह = उधर ही।2।

अर्थ: (ये नाम-रत्न) जपते हुए जीभ को सुख मिलता है, सुनते हुए कानों को सुख मिलता है, और याद करते हुए चिक्त को सुख मिलता है। हे भीखन! (तू भी) कह: (ये नाम स्मरण करते हुए) मेरी दोनों आँखों में (ऐसी) ठंढ पड़ गई है कि मैं जिधर देखता हूँ उस परमात्मा को ही देखता हूँ।2।2।

नोट: भक्त-वाणी के विरोधी सज्जन भक्त भीखन जी के बारे में यूँ लिखते हैं ‘बताया गया है कि भक्त भीखन जी इब्राहिम के शिष्य थे, पर ये खोज सच्ची सिद्ध नहीं होती। आम तौर पर इनका देहांत संवत् 1625 के इर्दगिर्द माना गया है। वास्तव में भीखण जी कोई बे-पहचान वाले भक्त प्रतीत होते हैं। भक्त-मण्डली में इनकी कोई खास प्रसिद्धि सिद्ध नहीं होती। इनसे ज्यादा तो जलण, काहना, छजू आदि प्रसिद्ध थे। दरअसल आप सूफी मुसलमान फकीरों में से थे। आप जी को शेख फरीद जी के साथ मिला देते हैं, पर ये पुष्टि इनकी वाणी से नहीं होती। वैसे इनकी रचना हिन्दू वैरागी साधुओं से मिलती है, इस्लामी शरह का एक शब्द भी नहीं मिलता प्रतीत होता। इस्लाम मत छोड़ के जीव-अहिंसक साधुओं के साथ विचरते रहे। आप जी के दो शब्द भक्त-वाणी संग्रह में आए हैं, जैसा कि;

‘नैनहु....मोख दुआरा।’ –सोरठि।

‘इस शब्द से सिद्ध होता है कि भक्त जी बुढ़ापे की अथवा मौत को नजदीक देख के काफी घबरा गए थे। उस वक्त बनवारी (कृष्ण) जी को याद करते हुए वास्ते निकालते हैं। पर गुरमति के अंदर मौत को एक खेल समझा गया है और जनम-मरण को संसारक खेल समझ के कोई वुअकत नहीं दी जाती।....खालसे के सामने मौत खेल और एक बाजी है।”

विरोधी सज्जन ने भीखन जी के बारे में निम्न-लिखित खोज की है:

♥ भीखन जी सूफी मुसलमान फकीरों में थे। इस्लाम छोड़ के जीव-अहिंसक साधुओं के साथ विचरते रहे।

♥ इनकी रचना हिन्दू बैरागी साधुओं के साथ मिलती है।

♥ बुढ़ापे और मौत से घबरा के इस शब्द के द्वारा कृष्ण जी के आगे गिड़-गिड़ाते हैं।

♥ आईए, इस खोज को विचारें;

♥ खोज नंबर1 की विरोधी सज्जन ने खुद तरदीद कर दी है और लिखा है कि इनकी रचना में ‘इस्लामी शरह का एक शब्द भी नहीं मिलता लगता।’ पर ये तरदीद भी खुल के नहीं करते, अभी भी शब्द ‘मिलता लगता’ ही लिखते हैं। सारा शब्द सामने मौजूद है। कहाँ है कोई शब्द इस्लामी शरह का? फिर अभी भी ‘मिलता प्रतीत होता’ क्यों कहा जा रहा है? सिर्फ सच्चाई को छुपाने के लिए, और भक्त के बारे में अपने घड़े हुए शक को पाठक के मन में बैठाने के लिए।

♥ सारे ही शब्द में कहीं भी एक भी शब्द ऐसा नहीं है, जहाँ ये कहा जा सके कि भीखन जी किसी मुसलमान घर में जन्मे-पले थे।

♥ कोई शब्द ऐसे नहीं हैं जहाँ ये साबित हो सके कि भीखन जी की रचना हिन्दू बैरागियों के साथ मिलती है। सारे शब्द ध्यान से देखिए: नैन, नीरु, तनु, खीन, केस, दुधवानी, रूधा, कंठु, सबदु, उचरै, परानी, रामराइ, बैदु बनवारी, संतह, उबारी, माथे, पीर, जलनि, करक, करेजे, बेदन, अउखधु, हरि का नाम, अंम्रित जलु, निरमल, जगि, परसादि, पावउ, मोख दुआरा।

♥ इन शब्दों को देख के ये तो कहा जा सकता है कि भीखन जी मुसलमान नहीं हैं; पर ये कैसे मिल गया कि वे बैरागी साधु थे? गुरु साहिब की अपनी मुख-वाक वाणी में ये शब्द अनेक बार आए हैुं। पर कोई सिख ये नहीं कह सकता कि सतिगुरु जी की वाणी हिन्दू बैरागी साधुओं के साथ मिलती है।

♥ शब्द ‘बनवारी’ का अर्थ विरोधी सज्जन ने कृष्ण किया है। पर बाकी के सारे शब्द से भी तो आँखें नहीं बंद की जा सकतीं। शब्द ‘रामराइ’ का अर्थ किसी भी खींच-घसीट के ‘कृष्ण’ नहीं किया जा सकता। उस बनवारी के लिए आखिर में शब्द ‘हरि’ भी बरता गया है।

♥ ये कहना कि भीखन जी ने बुढ़ापा और मौत से घबरा के वास्ते निकाले हैं, ये तो महापुरुष भीखन जी की निरादरी की गई है, और किसी भी गुरसिख को ये बात शोभा नहीं देती, फिर ये तो श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में दर्ज हुए शब्द पर मजाक उड़ा के श्रद्धालु सिखों के हृदय जख़्मी किए जा रहे हैं।

♥ भीखन जी शब्द के आखिर में कहते हैं, ‘गुर परसादि कहै जनु भीखनु, पावउ मोख दुआरा’, भाव, सतिगुरु की कृपा से मैंने मोक्ष का द्वार ढूँढ लिया है। वह कौन सा राह है? ये भी भीखन जी खुद ही कहते हैं ‘हरि का नामु’। और कहते हैं कि जगत में एक मात्र इलाज है उसका, जिससे निजात पाने का रास्ता मैंने गुरु की कृपा से पा लिया है।

♥ क्या अभी भी ये बात साफ नहीं हुई कि भीखन जी ने किस रोग से निजात पाने का रास्ता गुरु से पाया है? और मौत तो हरेक को अपनी बारी सिर आई है। सो, यहाँ मौत और बुढ़ापे से किसी तरह की घबराहट का जिक्र नहीं है। इसकी बाबत तो वे खुद ही कहते हैं कि ‘वा का अउखधु नाही’।

♥ भीखन जी शारीरिक मोह में फंसे जीव को समझाते हैं कि हे भाई! बुढ़ापे के कारण हरेक अंग में रोग आ निकला है; तू शरीर के मोह में फस के कब तक जूती मुरम्मत करवाने की तरह जगह-जगह टाकियां लगवाने में उलझा रहेगा?

♥ आखिर में कहते हैं: शारीरिक मोह के रोग से बचने के लिए एक ही इलाज है; वह ये कि गुरु की शरण पड़ कर प्रभु का नाम स्मरण करो।

♥ विरोधी सज्जन जी ने भीखन जी के दूसरे शब्द को शायद पढ़ा ही नहीं। अगर वे उसे ध्यान से पढ़ते तो शब्द ‘बनवारी’ का अर्थ ‘कृष्ण’ करने की जरूरत ही ना पड़ती। उनका ‘बनवारी’ वह है जिसे वह ‘जह देखा तह सोई’ कहते हैं।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh