श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 660 धनासरी महला १ घरु १ चउपदे ੴ सति नामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु जीउ डरतु है आपणा कै सिउ करी पुकार ॥ दूख विसारणु सेविआ सदा सदा दातारु ॥१॥ पद्अर्थ: जीउ = जीवात्मा। कै सिउ = किस के पास? करी = मैं करूँ? दूख विसारण = दुख दूर करने वाला प्रभु। सेविआ = मैंने स्मरण किया है।1। अर्थ: (जगत दुखों का समुंदर है, इन दुखों को देख के) मेरी जीवात्मा काँपती है (परमात्मा के बिना और कोई बचाने वाला दिखाई नहीं देता) जिसके पास मैं मिन्नतें करूँ। (सो, अन्य आसरे छोड़ के) मैं दुखों के नाश करने वाले प्रभु को ही स्मरण करता हूँ, वह सदा ही बख्शिशें करने वाला है।1। साहिबु मेरा नीत नवा सदा सदा दातारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नीत = नित्य। नवा = (भाव, दातें दे के आँकने वाला नहीं)। दातारु = दातें देने वाला।1। रहाउ। अर्थ: (फिर वह) मेरा मालिक सदा बख्शिशें करता रहता है (पर वह मेरी रोज के तरले सुन के उकताता नहीं, बख्शिशों में) नित्य यूँ है जैसे पहली बार ही बख्शिशें करने लगा है।1। रहाउ। अनदिनु साहिबु सेवीऐ अंति छडाए सोइ ॥ सुणि सुणि मेरी कामणी पारि उतारा होइ ॥२॥ पद्अर्थ: अनदिनु = हर रोज, सदा। अंति = आखिर को। मेरी कामणी = हे मेरी जिंदे!।2। अर्थ: हे मेरी जिंदे! हर रोज उस मालिक को ही याद करना चाहिए (दुखों में से) आखिर वह ही बचाता है। हे जिंदे! ध्यान से सुन (उस मालिक का आसरा लेने से ही दुख के समुंदर में से) पार लांघा जा सकता है।2। दइआल तेरै नामि तरा ॥ सद कुरबाणै जाउ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: दइआल = हे दया के घर! नामि = नाम से। तरा = तैर सकता हूँ, पार लांघ सकता हूँ।1। रहाउ। अर्थ: हे दयालु प्रभु! मैं तुझसे सदा सदके जाता हूँ (मेहर कर, अपना नाम दे, ता कि) तेरे नाम के द्वारा मैं (दुखों के इस समुंदर में से) पार लांघ सकूँ।1। रहाउ। सरबं साचा एकु है दूजा नाही कोइ ॥ ता की सेवा सो करे जा कउ नदरि करे ॥३॥ पद्अर्थ: सरबं = हर जगह। साचा = सदा कायम रहने वाला। कउ = को। नदरि = मेहर की नजर। करेइ = करता है।3। अर्थ: सदा कायम रहने वाला परमात्मा ही सब जगह मौजूद है, उसके बिना और कोई नहीं। जिस जीव पर वह मेहर की निगाह करता है, वह उसका स्मरण करता है।3। तुधु बाझु पिआरे केव रहा ॥ सा वडिआई देहि जितु नामि तेरे लागि रहां ॥ दूजा नाही कोइ जिसु आगै पिआरे जाइ कहा ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: केव रहा = कैसे रह सकता हूँ? मैं व्याकुल हो जाता हूँ। जितु = जिससे। जाइ = जा के।1। रहाउ। अर्थ: हे प्यारे (प्रभु!) तेरी याद के बिना मैं व्याकुल हो जाता हूँ। मुझे वह कोई बड़ी दाति दे, जिस सदका मैं तेरे नाम में जुड़ा रहूँ। हे प्यारे! तेरे बिना और कोई ऐसा नहीं हैं, जिसके पास जा के मैं ये आरजू कर सकूँ।1। रहाउ। सेवी साहिबु आपणा अवरु न जाचंउ कोइ ॥ नानकु ता का दासु है बिंद बिंद चुख चुख होइ ॥४॥ पद्अर्थ: सेवी = मैं सेवता हूँ। जाचंउ = मैं माँगता हूँ। बिंद बिंद = छिन छिन। चुख चुख = टोटे टुकड़े टुकड़े, कुर्बान।4। अर्थ: (दुखों के इस सागर में से तैरने के लिए) मैं अपने मालिक प्रभु को ही याद करता हूँ, किसी और से मैं यह माँग नहीं माँगता। नानक (अपने) उस (मालिक) का ही सेवक है, उस मालिक से ही खिन खिन सदके होता है।4। साहिब तेरे नाम विटहु बिंद बिंद चुख चुख होइ ॥१॥ रहाउ॥४॥१॥ पद्अर्थ: विटहु = से। साहिब = हे साहिब! अर्थ: हे मेरे मालिक! मैं तेरे नाम से छिन-छिन कुर्बान जाता हूँ।1। रहाउ। धनासरी महला १ ॥ हम आदमी हां इक दमी मुहलति मुहतु न जाणा ॥ नानकु बिनवै तिसै सरेवहु जा के जीअ पराणा ॥१॥ पद्अर्थ: हम = हम। इक दमी = एक दम वाले। दम = सांस। मुहलति = (जिंदगी की) मियाद। मुहतु = (मौत का) समय। न जाणा = हम नहीं जानते। सरेवहु = स्मरण करो। जीअ पराणा = जिंद और प्राण।1। अर्थ: नानक विनती करता है: (हे भाई!) हम आदमी एक दम के ही मालिक हैं (क्या पता कि दम कब खत्म हो जाए? हमें अपनी जिंदगी की) मियाद का पता नहीं है, हमें ये पता नहीं कि मौत का वक्त कब आ जाना है। (इस वास्ते) उस परमात्मा का स्मरण करो जिसने ये जिंद और श्वास दिए हैं।1। अंधे जीवना वीचारि देखि केते के दिना ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अंधे = हे अंधे जीव! हे (माया के मोह में) अंधे हुए जीव! जीवना केते के दिना = कितने दिन का जीवन? थोड़े ही दिनों का जीवन।1। रहाउ। अर्थ: हे (माया के मोह में) अंधे हुए जीव! (आँखें खोल के) देख, सोच समझ, यहाँ जगत में थोड़े ही दिनों की जिंदगी है।1। रहाउ। सासु मासु सभु जीउ तुमारा तू मै खरा पिआरा ॥ नानकु साइरु एव कहतु है सचे परवदगारा ॥२॥ पद्अर्थ: सासु = सांस। मासु = शरीर। जीउ = जिंद। मैं = मुझे। तू मै खरा पिआरा = तू मुझे बहुत प्यारा लग। हे प्रभु! तू मुझे अपना प्यार दे। साइरु = कवि, ढाढी। एव = ये ही।2। अर्थ: (पर जीवों के भी क्या वश है? हे प्रभु!) तेरा ढाढी नानक (तेरे दर पर) यह ही विनती करता है: हे सदा अटल रहने वाले और जीवों को पालने वाले प्रभु! (जैसे) ये श्वास ये शरीर ये जिंद सब कुछ तेरा ही दिया हुआ है (वैसे ही) अपना प्यार भी तू आप ही दे।2। जे तू किसै न देही मेरे साहिबा किआ को कढै गहणा ॥ नानकु बिनवै सो किछु पाईऐ पुरबि लिखे का लहणा ॥३॥ पद्अर्थ: किआ = क्या? को = कोई जीव। कढै = पेश करे, दे। गहणा = बदले में देने वाली कोई चीज। सो किछु = वही कुछ। पुरबि = पहले समय में। लहणा = मिलने योग्य चीज।3। अर्थ: हे मेरे मालिक! अगर तू अपने प्यार की दाति आप ही किसी जीव को ना दे; तो जीव के पास कोई ऐसी वस्तु नहीं है कि बदले में दे के तेरा प्यार ले ले। नानक विनती करता है कि जीव को तो वही कुछ मिल सकता है जो उसके पूर्बले कर्मों के अनुसार संस्कार-रूप लेख (उसके माथे पर लिखे हुए) हैं (अपने नाम के प्यार की दाति तो तूने आप ही देनी है)।3। नामु खसम का चिति न कीआ कपटी कपटु कमाणा ॥ जम दुआरि जा पकड़ि चलाइआ ता चलदा पछुताणा ॥४॥ पद्अर्थ: चिति = चिक्त में। कपटु = फल के काम। जम दुआरि = जम के दर पे। जा = जब। पकड़ि = पकड़ के। चलाइआ = चलाया गया। ता = तब।4। हे नानक! (शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ का फर्क देखें। ‘नानकु’ = कर्ता कारक, एक वचन। ‘नानक’ = संबोधन)। अर्थ: (पिछले कर्मों के संस्कारों के असर तहत) छली मनुष्य तो छल ही कमाता रहता है, और पति-प्रभु का नाम अपने मन में नहीं बसाता। (सारी उम्र यूँ ही गुजार के आखिरी वक्त) जब पकड़ के जमराज के दरवाजे की ओर धकेला जाता है, तो (यहाँ से) चलने के वक्त हाथ मलता है।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |