श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 662 जेता मोहु परीति सुआद ॥ सभा कालख दागा दाग ॥ दाग दोस मुहि चलिआ लाइ ॥ दरगह बैसण नाही जाइ ॥३॥ पद्अर्थ: दाग दोस = दोशों का दाग़। मुहि = मुँह पर। लाइ = लगा के। जाइ = जगह।3। अर्थ: जितना भी माया का मोह है दुनिया की प्रीति है, रसों के स्वाद हैं, ये सारे मन में विकारों की कालिख ही पैदा करते हैं, विकारों के दाग़ ही लगाते जाते हैं। (स्मरण से सूने रह के विकारों में फंस के) मनुष्य विकारों के दाग़ अपने माथे पर लगा के (यहाँ से) चल पड़ता है, और परमात्मा की हजूरी में इसे बैठने के लिए जगह नहीं मिलती।3। करमि मिलै आखणु तेरा नाउ ॥ जितु लगि तरणा होरु नही थाउ ॥ जे को डूबै फिरि होवै सार ॥ नानक साचा सरब दातार ॥४॥३॥५॥ पद्अर्थ: करमि = मेहर से। जितु लगि = जिसमें लग के। को = कोई जीव। सार = संभाल।4। अर्थ: (पर, हे प्रभु! जीव के भी क्या वश?) तेरा नाम स्मरण (का गुण) तेरी मेहर से ही मिल सकता है, तेरे नाम में लग के (मोह और विकारों के समुंदर में से) पार लांघा जा सकता है, (इनसे बचने के लिए) और कोई जगह नहीं है। हे नानक! (निराश होने की आवश्यक्ता नहीं) अगर कोई मनुष्य (प्रभु को भुला के विकारों में) डूबता भी है (वह प्रभु इतना दयालु है कि) फिर भी उसकी संभाल होती है। वह सदा-स्थिर रहने वाला प्रभु सब जीवों को दातें देने वाला है (किसी से भेद-भाव नहीं रखता)।4।3।5। धनासरी महला १ ॥ चोरु सलाहे चीतु न भीजै ॥ जे बदी करे ता तसू न छीजै ॥ चोर की हामा भरे न कोइ ॥ चोरु कीआ चंगा किउ होइ ॥१॥ पद्अर्थ: सलाहे = कीर्ति करे, उपमा करे। भीजै = भीगता, पतीजता। बदी = बुराई, निंदा। तसू = थोड़ा सा भी। छीजै = छिजता, कमजोर होता, घबराता। हामा = हिमायत, जामनी (हामा भरनी = ज़ामन बनना, किसी के अच्छे होने के बाबत तसल्ली भरे वचन कहने)। कीआ = किया गया, बनाया गया। किउ होइ = नहीं हो सकता।1। अर्थ: अगर कोई चोर (उस हाकिम की जिसके सामने उसका मुकदमा पेश है) खुशामद करे तो उसे (ये) यकीन नहीं बन सकता (कि ये सच्चा है), अगर वह चोर (हाकिम की) बुराई करे तो भी थोड़ा सा भी नहीं घबराता। कोई भी मनुष्य किसी चोर के अच्छे होने की गवाही नहीं दे सकता। जो मनुष्य (लोगों की नजरों में) चोर माना गया, वह (खुशमदों व बद्खोईयों से औरों के सामने) अच्छा नहीं बन सकता।1। सुणि मन अंधे कुते कूड़िआर ॥ बिनु बोले बूझीऐ सचिआर ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मन = हे मन! कुते = कुत्ते की तरह लालची। कूड़िआर = हे झूठे! बूझीऐ = पहचाना जाता है। सचिआर = सच्चा मनुष्य।1। रहाउ। अर्थ: हे अँधे लालची व झूठे मन! (ध्यान से) सुन। सच्चा मनुष्य बिना बोले ही पहचाना जाता है।1। रहाउ। चोरु सुआलिउ चोरु सिआणा ॥ खोटे का मुलु एकु दुगाणा ॥ जे साथि रखीऐ दीजै रलाइ ॥ जा परखीऐ खोटा होइ जाइ ॥२॥ पद्अर्थ: सुआलिउ = सुंदर। दुगाणा = दो कौड़ियों के टुकड़े।2। अर्थ: चोर भले ही समझदार बने चतुर बने (पर आखिर है वह चोर ही, उसकी कद्र-कीमत नहीं पड़ती, जैसे) खोटे रुपए का मूल्य दो कौड़ी बराबर ही है। अगर खोटे रुपए को (खरों में) रख दें, (खरों में) मिला दें, तो भी जब उसकी परख होती है तब वह खोटा ही कहा जाता है।2। जैसा करे सु तैसा पावै ॥ आपि बीजि आपे ही खावै ॥ जे वडिआईआ आपे खाइ ॥ जेही सुरति तेहै राहि जाइ ॥३॥ पद्अर्थ: बीजि = बीज के। आपे = खुद ही। खाइ = कसमें खाए। वडिआईआ = गुण। तेहै राहि = वैसे ही राह पर। जाइ = जाता है। सुरति = भावना, मन की वासना।3। अर्थ: मनुष्य जैसा काम करता है वैसा ही वह उसका फल पाता है। हर कोई खुद (कर्मों के बीज) बीज के खुद ही फल खाता है। अगर कोई मनुष्य (हो तो खोटा, पर) अपनी महानताओं (अच्छाईयां बखान किए जाए) की कस्में उठाए जा (उसका ऐतबार नहीं बन सकता, क्योंकि) मनुष्य की जैसी मनो-कामना है वैसे ही रास्ते पर वह चलता है।3। जे सउ कूड़ीआ कूड़ु कबाड़ु ॥ भावै सभु आखउ संसारु ॥ तुधु भावै अधी परवाणु ॥ नानक जाणै जाणु सुजाणु ॥४॥४॥६॥ पद्अर्थ: कूड़ीआ = झूठी बातें। कूड़ु = झूठ। कबाड़ु = कूड़ा करकट, व्यर्थ काम। भावै आखउ = बेशक कहता रहे। तुधु भावै = हे प्रभु तुझे पसंद आ जाए। अधी = (धी = अक्ल) अकल हीन मनुष्य, सिद्धड़, सीधा। जाणु = जाननेवाला प्रभु। सुजाणु = सयाना।4। अर्थ: (अपना ऐतबार जमाने के लिए चालाक बन के) चाहे सारे संसार को झूठी बातें और गप्पें मारता रहे (पर, हे प्रभु! कोई मनुष्य तुझे धोखा नहीं दे सकता)। (हे प्रभु! जो दिल का खरा हो तो) एक सीधा मनुष्य भी तुझे पसंद आ जाता है, तेरे दर पर स्वीकार हो जाता है। हे नानक! घट घट की जानने वाला सुजान प्रभु (सब कुछ) जानता है।4।3।6। धनासरी महला १ ॥ काइआ कागदु मनु परवाणा ॥ सिर के लेख न पड़ै इआणा ॥ दरगह घड़ीअहि तीने लेख ॥ खोटा कामि न आवै वेखु ॥१॥ पद्अर्थ: काइआ = शरीर। कागदु = कागज़। परवाणा = परवाना, लिखा हुआ हुक्म। इआणा = अंजान जीव। दरगह = दरगाही नियम अनुसार। घड़ीअहि = घड़े जाते हैं। तीने लेख = (रजो, तमो, सतो) त्रिगुणी किए कामों के संस्कार-रूपी लेख। कामि = काम में। खोटा = खोटा संस्कार। कामि न आवै = लाभदायक नहीं होता।1। अर्थ: ये मनुष्य का शरीर (जैसे) एक काग़ज़ है, मनुष्य का मन (शरीर रूपी काग़ज़ पर लिखा हुआ) दरगाही परवाना है। पर मूर्ख मनुष्य अपने माथे के लेख नहीं पढ़ता (भाव, ये समझने का प्रयत्न नहीं करता कि उसके पिछले किए कर्मों के अनुसार किस तरह के संस्कार-लेख उसके मन में मौजूद हैं जो उसे अब और प्रेरणा कर रहे हैं)। माया के तीनों गुणों के असर में रह के किए हुए कर्मों के संस्कार ईश्वरीय नियमों के अनुसार हरेक मनुष्य के मन में उकर जाते हैं। पर हे भाई! देख (जैसे कोई खोटा सिक्का काम नहीं आता, वैसे ही खोटे किए हुए काम का) खोटा-संस्कार वाला लेख भी काम नहीं आता।1। नानक जे विचि रुपा होइ ॥ खरा खरा आखै सभु कोइ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: नानक = हे नानक! विचि = आत्मिक जीवन में। रुपा = चाँदी, शुद्ध धातु, पवित्रता। सभु कोइ = हरेक जीव।1। रहाउ। अर्थ: हे नानक! अगर रुपए आदि सिक्के में चाँदी हो तो हरेक उसे खरा सिक्का कहता है (इसी तरह जिस मन में पवित्रता हो, उसे खरा कहा जाता है)।1। रहाउ। कादी कूड़ु बोलि मलु खाइ ॥ ब्राहमणु नावै जीआ घाइ ॥ जोगी जुगति न जाणै अंधु ॥ तीने ओजाड़े का बंधु ॥२॥ पद्अर्थ: कादी = काजी। नोट: अरबी शब्द ‘काजी’ के दो उच्चारण हैं: काज़ी और कादी। कूड़ु = झूठ। मलु = मैल, हराम का माल। नावै = नहाता है, तीर्थ स्नान करता है। जीआ घाइ = जीवों को मार के, अनेक लोगों को शूद्र कह के पैरों नीचे लिताड़ के। जुगति = जीवन की विधि। अंधु = अंधा। बंधु = बाँध। ओजाड़े का बंधु = उजाड़े का बाँध, आत्मिक जीवन की ओर से उजाड़ ही उजाड़।2। अर्थ: काज़ी (जो एक तरफ तो इस्लाम धर्म का नेता है और दूसरी तरफ हाकिम भी है, रिश्वत की खातिर शरई कानून के बारे में) झूठ बोल के हराम का माल (रिश्वत) खाता है। ब्राहमण (करोड़ों शूद्र कहलाते) लोगों को दुखी कर-कर के तीर्थ-स्नान भी करता है। जोगी भी अंधा है और जीवन की विधि नहीं जानता। (ये तीनों अपनी ओर से धार्मिक नेता हैं, पर) इन तीनों के ही अंदर आत्मिक जीवन के पक्ष से सुन्नम-सूना है।2। सो जोगी जो जुगति पछाणै ॥ गुर परसादी एको जाणै ॥ काजी सो जो उलटी करै ॥ गुर परसादी जीवतु मरै ॥ सो ब्राहमणु जो ब्रहमु बीचारै ॥ आपि तरै सगले कुल तारै ॥३॥ पद्अर्थ: गुर परसादी = गुरु की किरपा से। उलटी करै = तवज्जो को हराम के माल रिश्वत से पलटाता है। जीवतु मरै = दुनिया में रहते हुए भी दुनियावी ख्वाइशों से हटता है। ब्रहमु = परमात्मा।3। अर्थ: असल जोगी वह है जो जीवन की विधि समझता है और गुरु की कृपा से एक परमात्मा के साथ गहरी सांझ डालता है। काजी वह है जो तवज्जो को हराम के माल से मोड़ता है जो गुरु की किरपा से दुनिया में रहते हुए दुनियावी ख्वाइशों से पलटता है। ब्राहमण वह है जो सर्व-व्यापक प्रभु में तवज्जो जोड़ता है, इस तरह खुद भी संसार-समुंदर में से पार लांघता है और अपनी सारी कुलों को भी लंघा लेता है।3। दानसबंदु सोई दिलि धोवै ॥ मुसलमाणु सोई मलु खोवै ॥ पड़िआ बूझै सो परवाणु ॥ जिसु सिरि दरगह का नीसाणु ॥४॥५॥७॥ पद्अर्थ: दानस = अकल, दानिश। दानसमंदु = अकलमंद। दिलि = दिल में (टिकी हुई बुराई)। मलु = विवकारों की मैल। खोवै = नाश करता है। पढ़िआ = विद्वान। बूझै = समझता है। जिसु सिरि = जिसके सिर पर, जिसके माथे पर। नीसाणु = निशान, टीका।4। अर्थ: वही मनुष्य बुद्धिमान है जो अपने दिल में टिकी हुई बुराईयों को दूर करता है। वही मुसलमान है जो मन में से विकारों की मैल का नाश करता है। वही विद्वान है जो जीवन का सही रास्ता समझता है, उसके माथे पर दरगाह का टीका लगता है वही प्रभु की हजूरी में स्वीकार होता है।4। धनासरी महला १ घरु ३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ कालु नाही जोगु नाही नाही सत का ढबु ॥ थानसट जग भरिसट होए डूबता इव जगु ॥१॥ पद्अर्थ: कालु = समय, मानव जनम का समय। जोगु = मिलाप, परमात्मा का मिलाप। सत = उच्च आचरण। ढबु = तरीका। थानसट = श्रेष्ठ जगह, पवित्र हृदय। जग = जगत के। भरिसट = गंदे। इव = इस तरह, इन दिखावे की समाधियों से।1। अर्थ: ये (मानव जनम का) समय (आँखें बंद करने व नाक पकड़ने के लिए) नहीं है, (इन सजावटों से) परमात्मा से मेल नहीं होता, ना ही ये उच्च आचरण का तरीका है। (इन ढंग-तरीकों से) जगत के (अनेक) पवित्र हृदय भी गंदे हो जाते हैं, इस तरह जगत (विकारों में) डूबने लग जाता है।1। कल महि राम नामु सारु ॥ अखी त मीटहि नाक पकड़हि ठगण कउ संसारु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कल महि = संसार में। नोट: गुरमति के अनुसार किसी खास युग की कोई प्रतिभा, महिमा नहीं है। सारु = श्रेष्ठ। त = तो। मीटहि = बँद करते हैं। कउ = के लिए।1। रहाउ। अर्थ: जगत में परमात्मा का नाम (और सारे कामों से) श्रेष्ठ है। (जो ये लोग) आँखें तो बँद करते हैं, नाक भी पकड़ते हैं (ये) जगत को ठगने के लिए (करते हैं, ये भक्ति नहीं, ये उत्तम धार्मिक कर्म नहीं)।1। रहाउ। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |