श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 663 आंट सेती नाकु पकड़हि सूझते तिनि लोअ ॥ मगर पाछै कछु न सूझै एहु पदमु अलोअ ॥२॥ पद्अर्थ: आंट = अंगूठे के साथ की दो उंगलियाँ। सेती = से। तिनि = तीन। लोअ = लोक। मगर = पीठ। पदमु = पदम आसन (चौकड़ी मार के बायाँ पैर दाहिनी जाँघ पर और दाहिना पैर बाई जाँघ पर रख के बैठना)। अलोअ = (अ+लोअ) जो कभी देखा ना हो, आश्चर्य।2। अर्थ: हाथ के अंगूठे के पास की दो उंगलियों से ये (अपना) नाक पकड़ते हैं (समाधि के रूप में बैठ के मुँह से कहते हैं कि उन्हें) तीनों ही लोक दिखाई दे रहे हैं, पर अपनी पीठ के पीछे पड़ी कोई चीज़ इन्हें दिखाई नहीं देती। ये अजीब पद्मासन है।2। खत्रीआ त धरमु छोडिआ मलेछ भाखिआ गही ॥ स्रिसटि सभ इक वरन होई धरम की गति रही ॥३॥ पद्अर्थ: भाखिआ = बोली। मलेछ भाखिआ = उनकी बोली जिन्हें वे खुद मलेछ कहते हैं। गही = ग्रहण कर ली। इक वरन = एक ही वर्ण की, अधर्मी ही अधर्मी। गति = मर्यादा।3। अर्थ: (अपने आप को हिन्दू धर्म के रखवाले समझने वाले) खत्रियों ने (अपना ये) धर्म छोड़ दिया है, जिनको ये अपने मुँह से मलेछ कह रहे हैं (रोजी की खातिर) उनकी बोली ग्रहण कर चुके हैं, (इनके) धर्म की मर्यादा मर चुकी है, सारी सृष्टि एक-वर्ण की हो गई है (एक अधर्म ही अधर्म प्रधान हो गया है)।3। असट साज साजि पुराण सोधहि करहि बेद अभिआसु ॥ बिनु नाम हरि के मुकति नाही कहै नानकु दासु ॥४॥१॥६॥८॥ पद्अर्थ: असट = आठ। असट साज = आष्टाध्याई आदि व्याकर्णिक ग्रंथ। साजि = रच के। सोधहि = विचारते हैं। मुकति = विकारों से आजादी।4। अर्थ: (ब्राहमण लोग) आष्टाध्याई आदि ग्रंथ रच के (उनके अनुसार) पुराणों को विचारते हैं और वेदों का अभ्यास करते हैं। (बस! इसी को श्रेष्ठ धर्म-कर्म माने बैठे हैं)। पर, दास नानक कहता है कि परमात्मा का नाम जपे बिना (विकारों से) खलासी नहीं हो सकती (इसलिए नाम जपना ही सबसे श्रेष्ठ धर्म-कर्म है)।4।1।6।8। नोट: आखिरी अंकों को ध्यान से देखें। अंक 4 बताता है कि शब्द के 4 बंद हैं। अगला अंक1 बताता है कि ‘घर 3’ का ये पहला शब्द है। ‘घर 2’ के 5 शब्द हैं। ‘घर 3’ का एक शब्द है। अंक 6 बताता है है कि ‘घर 2’ और ‘घर 3’ के शबदों का जोड़ 6 है। धनासरी राग में गुरु नानक देव जी के अब तक 8 शब्द आ चुके हैं। धनासरी महला १ आरती ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ नोट: ‘आरती’ (आरति: , आराक्तिका) देवते की मूर्ति या किसी पूज्य के आगे दीए घुमा के पूजन करना। हिन्दू मत के अनुसार चार बार चरणों के आगे, दो बार नाभि पर, एक बार मुँह पर और सात बार सारे शरीर पर दीए घुमाने चाहिए। दीए एक से ले कर सौ तक हो सकते हैं। गुरु नानक देव जी ने इस आरती का खण्डन करके ईश्वर की प्राकृतिक रूप से हो रही आरती की महिमा की है। गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥ धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥ पद्अर्थ: गगन = आकाश। गगन मै = गगनमय, आकाशरूप, सारा आकाश। रवि = सूर्य। दीपक = दीए। जनक = जानोक, जैसा, मानो। मलआनलो = (मलय+अनलो) मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा (अनल = हवा)। मलय पर्वत पर चंदन आदि के पौधे होने के कारण उधर से आने वाली हवा सुगंधित होती है। मलय पर्वत भारत के दक्षिण में है। बनराइ = वनस्पति। फुलंत = फूल दे रही है। जोती = ज्योति रूप प्रभु।1। अर्थ: सारा आकाश (जैसे) थाल है, सूर्य और चंद्रमा (इस थाल में) दीए बने हुए हैं, तारा मण्डल, (थाल में) मोती रखे हुए हैं। मलय पर्वत से आने वाली (सुगंधित) हवा मानो, धूप (धुख) रही है, हवा चवर कर रही है, सारी बनस्पति ज्योति-रूपी (प्रभु की आरती) के लिए फूल दे रही है (पुष्पार्पण कर रही है)।1। कैसी आरती होइ भव खंडना तेरी आरती ॥ अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: भवखंडना = हे जनम मरण काटने वाले! अनहता = (अन+हत) जो बिना बजाए बजे, एक रस। सबद = आवाज़, जीवन लहर। भेरी = नगारा।1। रहाउ। अर्थ: हे जीवों के जनम-मरण नाश करने वाले! (प्रकृति में) तेरी कैसी सुंदर आरती हो रही है! (सब जीवों में रुमक रही) एक-रस लहर, जैसे, तेरी आरती के लिए नगारे बज रहे हैं।1। रहाउ। सहस तव नैन नन नैन है तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही ॥ सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥ पद्अर्थ: सहस = हजारों। तव = तेरे। नन = कोई नहीं। तोहि कउ = तेरे वास्ते, तेरे, तुझे। मूरति = शकल। नना = कोई नहीं। तोही = तेरी। पद = पैर। बिमल = साफ। गंध = नाक। इव = इस तरह। चलत = चरित्र, करिश्में, आश्चर्यजनक खेल।2। अर्थ: (सब जीवों में व्यापक होने के कारण) तेरी हजारों आँखें हैं (पर, निराकार होने के कारण, हे प्रभु!) तेरी कोई आँख नहीं। हजारों ही तेरी सूरतें हैं, पर तेरी कोई सूरति नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं, पर (निराकार होने के कारण) तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं, पर तू बिना नाक के ही है। तेरे ऐसे अजीब करिश्मों ने मुझे हैरान किया हुआ है।2। सभ महि जोति जोति है सोइ ॥ तिस कै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥ गुर साखी जोति परगटु होइ ॥ जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥ पद्अर्थ: जोति = प्रकाश, रोशनी। सोइ = वह प्रभु। तिस कै चानणि = उस प्रभु के प्रकाश से। साखी = शिक्षा से।3। अर्थ: सारे जीवों में एक उसी परमात्मा की ज्योति बरत रही है। उस ज्योति के प्रकाश से सारे जीवों में रौशनी (सूझ-बूझ) है। पर, इस ज्योति का ज्ञान गुरु की शिक्षा से ही होता है (गुरु के माध्यम से ये समझ पड़ती है कि हरेक अंदर परमात्मा की ज्योति है)। (इस सर्व-व्यापक ज्योति की) आरती ये है कि जो कुछ उसकी रजा में हो रहा है वह जीव को अच्छा लगे (प्रभु की रजा में चलना ही प्रभु की आरती करनी है)।3। हरि चरण कमल मकरंद लोभित मनो अनदिनो मोहि आही पिआसा ॥ क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नामि वासा ॥४॥१॥७॥९॥ पद्अर्थ: मकरंद = फूलों के बीच की धूल (Pollen dust), फूलों का रस। मनो = मन। अनदिनो = हर रोज। मोहि = मुझे। आही = है, रहती है। सारंगि = पपीहा। जा ते = जिससे। तेरै नामि = तेरे नाम में।4। अर्थ: हे हरि! तेरे चरण-रूप कमल-पुष्प के रस के लिए मेरा मन ललचाता है, हर रोज मुझे इसी रस की प्यास लगी हुई है। मुझ नानक पपीहे को अपनी मेहर का जल दे, जिस (की इनायत) से मैं तेरे नाम में टिका रहूँ।4।1।7।9। नोट: अंक१– ‘आरती’ का विशेष एक शब्द। अंक ९– धनासरी में गुरु नानक देव जी के कुल शबदों की गिनती 9। धनासरी महला ३ घरु २ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ इहु धनु अखुटु न निखुटै न जाइ ॥ पूरै सतिगुरि दीआ दिखाइ ॥ अपुने सतिगुर कउ सद बलि जाई ॥ गुर किरपा ते हरि मंनि वसाई ॥१॥ पद्अर्थ: अखुटु = कभी ना खत्म होने वाला। न निखुटै = खत्म नहीं होता। न जाइ = ना नाश होता है। सतिगुरि को = गुरु ने। कउ = को, से। सद = सदा। बलि जाई = बलि जाऊँ, सदके जाता हूँ। ते = साथ। मंनि = मन में। वसाई = मैं बसाता हूँ।1। अर्थ: हे भाई! ये नाम-खजाना कभी खत्म होने वाला नहीं, ना ही ये (खर्चने से) समाप्त होता है, ना ये गायब होता है। (इस धन की ये महानता मुझे) पूरे गुरु ने दिखा दी है। (हे भाई!) मैं अपने गुरु से सदके जाता हूं, गुरु की कृपा से परमात्मा (का नाम-धन अपने) मन में बसाता हूँ।1। से धनवंत हरि नामि लिव लाइ ॥ गुरि पूरै हरि धनु परगासिआ हरि किरपा ते वसै मनि आइ ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: से = वह (बहुवचन)। नामि = नाम में। लिव = लगन। लाइ = लगा के। गुरि = गुरु ने। परगासिआ = दिखा दिया। किरपा ते = कृपा से। मनि = मन में। रहाउ। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्यों के हृदय में) पूरे गुरु ने परमात्मा के नाम का धन प्रगट कर दिया, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ के (आत्मिक जीवन के) शाह बन गए। हे भाई! ये नाम-धन परमात्मा की कृपा से मन में आ के बसता है। रहाउ। अवगुण काटि गुण रिदै समाइ ॥ पूरे गुर कै सहजि सुभाइ ॥ पूरे गुर की साची बाणी ॥ सुख मन अंतरि सहजि समाणी ॥२॥ पद्अर्थ: काटि = काट के, दूर करके। रिदै = हृदय में। समाइ = टिका देता है। गुर कै = गुरु के द्वारा। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। साची = सदा स्थिर प्रभु की महिमा वाली। सुख = आत्मिक आनंद (बहुवचन)। मन अंतरि = मन में।2। अर्थ: (हे भाई! गुरु की शरण आए मनुष्य के) अवगुण दूर करके परमात्मा की महिमा (उसके) हृदय में बसा देता है। (हे भाई!) पूरे गुरु की (उचारी हुई) सदा-स्थिर प्रभु की महिमा वाली वाणी (मनुष्य के) मन में आत्मिक हुलारे पैदा करती है। (इस वाणी की इनायत से) आत्मिक अडोलता में समाई हुई रहती है।2। एकु अचरजु जन देखहु भाई ॥ दुबिधा मारि हरि मंनि वसाई ॥ नामु अमोलकु न पाइआ जाइ ॥ गुर परसादि वसै मनि आइ ॥३॥ पद्अर्थ: अचरजु = हैरान करने वाला तमाशा। जन = हे जनो! भाई = हे भाई! दुबिधा = मन की डाँवां = डोल हालत, मेर तेर। मंनि = मन में। अमोलक = किसी भी कीमत में नहीं मिल सकता। परसादि = कृपा से। आइ = आ के।3। अर्थ: हे भाई जनो! एक हैरान करने वाला तमाशा देखो। (गुरु मनुष्य के अंदर से) तेर-मेर हटा के परमात्मा (का नाम उसके) मन में बसा देता है। हे भाई! परमात्मा का नाम अमोहक है, (किसी भी दुनियावी कीमत से) नहीं मिल सकता। (हाँ,) गुरु की कृपा से मन में आ बसता है।3। सभ महि वसै प्रभु एको सोइ ॥ गुरमती घटि परगटु होइ ॥ सहजे जिनि प्रभु जाणि पछाणिआ ॥ नानक नामु मिलै मनु मानिआ ॥४॥१॥ पद्अर्थ: सभ महि = सब जीवों में। सोइ = वही। गुरमति = गुरु की मति पर चलने से। घटि = हृदय में। सहजे = सहज, आत्मिक अडोलता में। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। जाणि = सांझ डाल के। मानिआ = पतीज जाता है।4। अर्थ: (हे भाई! चाहे) परमात्मा खुद ही सबमें बसता है, (पर) गुरु की मति पर चलने से ही (मनुष्य के) हृदय में प्रकट होता है। हे नानक! आत्मिक अडोलता में टिक के जिस मनुष्य ने प्रभु के साथ गहरी सांझ डाल के (उसको अपने अंदर बसता) पहचान लिया है, उसे परमात्मा का नाम (सदा के लिए) प्राप्त हो जाता है, उसका मन (परमात्मा की याद में) पतीजा रहता है।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |