श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 666 धनासरी महला ३ ॥ नावै की कीमति मिति कही न जाइ ॥ से जन धंनु जिन इक नामि लिव लाइ ॥ गुरमति साची साचा वीचारु ॥ आपे बखसे दे वीचारु ॥१॥ पद्अर्थ: नावै की = (परमात्मा के) नाम की। मिति = माप, मर्यादा। से = वह (बहुवचन)। धंनु = भाग्यशाली। नामि = नाम में। लिव = लगन। साची = अटल, कभी गलती ना करने वाली। साचा वीचारु = सदा स्थिर प्रभु के गुणों के विचार। दे = देता है।1। अर्थ: हे भाई! ये नहीं कहा जा सकता कि परमात्मा का नाम किस मोल मिल सकता है और इस नाम की ताकत कितनी है। जिस मनुष्यों ने परमात्मा के नाम में तवज्जो जोड़ी हुई है वे भाग्यशाली हैं। जो मनुष्य कभी गलती ना करने वाली गुरु की मति ग्रहण करता है, वह मनुष्य सदा-स्थिर प्रभु के गुणों की विचार (अपने अंदर) बसाता है। पर ये विचार प्रभु उसे ही देता है जिस पर खुद मेहर करता है।1। हरि नामु अचरजु प्रभु आपि सुणाए ॥ कली काल विचि गुरमुखि पाए ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अचरजु = हैरान करने वाला। कली काल विचि = झगड़े भरे जीवन समय में।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम हैरान करने वाली ताकत वाला है। (पर यह नाम) प्रभु स्वयं ही (किसी भाग्यशाली को) सुनाता है। इन झगड़ों-भरे जीवन समय में वही मनुष्य हरि-नाम प्राप्त करता है जो गुरु के सन्मुख रहता है।1। रहाउ। हम मूरख मूरख मन माहि ॥ हउमै विचि सभ कार कमाहि ॥ गुर परसादी हंउमै जाइ ॥ आपे बखसे लए मिलाइ ॥२॥ पद्अर्थ: हम = हम जीव। मन माहि = (अगर) मन में (विचार करके देखें)। कमाहि = (हम) करते हैं। गुर परसादी = गुरु की कृपा से ही। आपे = (प्रभु) स्वयं ही।2। अर्थ: हे भाई! हम जीव (अपना) हरेक काम अहंकार के आसरे ही करते हैं, (सो जो हम अपने) मन में (ध्यान से विचारें तो इस अहंकार के कारण) हम केवल मूर्ख हैं। ये अहंकार (हमारे अंदर से) गुरु की कृपा से दूर हो सकता है। (गुरु भी उसी को) मिलाता है जिस पर प्रभु खुद ही मेहर करता है।2। बिखिआ का धनु बहुतु अभिमानु ॥ अहंकारि डूबै न पावै मानु ॥ आपु छोडि सदा सुखु होई ॥ गुरमति सालाही सचु सोई ॥३॥ पद्अर्थ: बिखिआ = माया। अभिमानु = अहंकार। अहंकारि = अहंकार में। मानु = आदर। आपु = स्वै भाव। सालाही = मैं सलाहूँ। सचु = सदा स्थिर प्रभु।3। अर्थ: (हे भाई! ये दुनियावी) माया का धन (मनुष्य के मन में) बड़ा अहंकार (पैदा करता है)। और, जो मनुष्य अहंकार में डूबा रहता है वह (प्रभु की हजूरी में) आदर नहीं पाता। हे भाई! स्वैभाव त्याग के सदा आत्मिक आनंद बना रहता है। हे भाई! मैं तो गुरु की मति ले के उस सदा-स्थिर प्रभु की महिमा करता रहता हूँ।3। आपे साजे करता सोइ ॥ तिसु बिनु दूजा अवरु न कोइ ॥ जिसु सचि लाए सोई लागै ॥ नानक नामि सदा सुखु आगै ॥४॥८॥ पद्अर्थ: साजे = पैदा करता है। सचि = सदा स्थिर नाम में। नामि = नाम में (जुड़के)। आगै = परलोक में (भी)।4। अर्थ: हे भाई! वह कर्तार स्वयं ही (सारी सृष्टि को) पैदा करता है, उसके बिना कोई और (ऐसी अवस्था वाला) नहीं है। वह कर्तार जिस मनुष्य को (अपने) सदा-स्थिर नाम में जोड़ता है, वही मनुष्य (नाम-स्मरण में) लगता है। हे नानक! जो मनुष्य नाम में लगता है उसको ही आत्मिक आनंद बना रहता है (इस लोक में भी, और) परलोक में भी।4।8। रागु धनासिरी महला ३ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हम भीखक भेखारी तेरे तू निज पति है दाता ॥ होहु दैआल नामु देहु मंगत जन कंउ सदा रहउ रंगि राता ॥१॥ पद्अर्थ: हम = हम जीव। भीखक = भिखारी। भेखारी = भिखारी। निज पति = अपने आप का मालिक, स्वतंत्र। दाता = दातें देने वाला। दैआल = दयावान। कंउ = को। रहउ = मैं रहूँ। रंगि = रंग में। राता = रंगा हुआ।1। अर्थ: हे प्रभु! हम जीव तेरे (दर के) भिखारी हैं, तू स्वतंत्र रह के सब को दातें देने वाला है। हे प्रभु! मेरे पर दयावान हो। मुझ भिखारी को अपना नाम दे (ता कि) मैं सदा तेरे प्रेम-रंग में रंगा रहूँ।1। हंउ बलिहारै जाउ साचे तेरे नाम विटहु ॥ करण कारण सभना का एको अवरु न दूजा कोई ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बलिहारै = कुर्बान। जाउ = मैं जाता हूँ। विटहु = से। करण कारण = जगत का मूल।1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! मैं तेरे सदा कायम रहने वाले नाम से सदके जाता हूँ। तू सारे जगत का मूल है; तू ही सब जीवों को पैदा करने वाला है कोई और (तेरे जैसा) नहीं है।1। रहाउ। बहुते फेर पए किरपन कउ अब किछु किरपा कीजै ॥ होहु दइआल दरसनु देहु अपुना ऐसी बखस करीजै ॥२॥ पद्अर्थ: फेर = फेरा, चक्कर। किरपन कउ = कंजूस को, माया ग्रसित को। कीजै = कर। बखस = कृपा।2। अर्थ: हे प्रभु! मुझ माया-ग्रसित को (अब तक मरने के) अनेक चक्कर लग चुके हैं, अब तो मेरे पर कुछ मेहर कर। हे प्रभु! मेरे पर दया कर। मेरे पर यही कृपा कर कि मुझे अपना दीदार दे।2। भनति नानक भरम पट खूल्हे गुर परसादी जानिआ ॥ साची लिव लागी है भीतरि सतिगुर सिउ मनु मानिआ ॥३॥१॥९॥ पद्अर्थ: भनति = कहता है। भरम पट = भ्रम के पर्दे। परसादी = कृपा से। जानिआ = सांझ डाल ली। साची = सदा कायम रहने वाली। लिव = लगन। भीतरि = अंदर, मन में। सिउ = साथ।3। अर्थ: हे भाई! नानक कहता है: गुरु की कृपा से जिस मनुष्य के भ्रम के पर्दे खुल जाते हैं, उसकी (परमात्मा के साथ) गहरी सांझ बन जाती है। उसके हृदय में (परमात्मा के साथ) सदा कायम रहने वाली लगन लग जाती है, गुरु के साथ उसका मन पतीज जाता है।3।1।9। नोट: अंक१ का भाव है कि ये एक शब्द ‘घरु ४’ का है। धनासरी महला ४ घरु १ चउपदे ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ जो हरि सेवहि संत भगत तिन के सभि पाप निवारी ॥ हम ऊपरि किरपा करि सुआमी रखु संगति तुम जु पिआरी ॥१॥ पद्अर्थ: सेवहि = सेवते हैं, स्मरण करते हैं। सभि = सारे। निवारी = दूर करने वाला। सुआमी = हे मालिक प्रभु! तुम जु पिआरी = जो तुझे प्यारी लगती है।1। अर्थ: हे प्रभु! तेरे जो संत जो भक्त तेरा स्मरण करते हैं, तू उनके (पिछले किए) सारे पाप दूर करने वाला है। हे मालिक प्रभु! हमारे पर भी मेहर कर, (हमें उस) साधु-संगत में रख जो तुझे प्यारी लगती है।1। हरि गुण कहि न सकउ बनवारी ॥ हम पापी पाथर नीरि डुबत करि किरपा पाखण हम तारी ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: कहि न सकउ = मैं कह नहीं सकता। बनवारी = (वनमालिन् = जंगली फूलों की माला पहन के रखने वाला कृष्ण) हे परमात्मा! नीरि = पानी में। पाखण = पत्थर। रहाउ। अर्थ: हे हरि! हे प्रभु! मैं तेरे गुण बयान नहीं कर सकता। हम जीव पापी हैं, पापों में डूबे रहते हैं, जैसे पत्थर पानी में डूबे रहते हैं। मेहर कर, हम पत्थरों (पत्थर-दिलों) को संसार समुंदर से पार लंघा ले। रहाउ। जनम जनम के लागे बिखु मोरचा लगि संगति साध सवारी ॥ जिउ कंचनु बैसंतरि ताइओ मलु काटी कटित उतारी ॥२॥ पद्अर्थ: बिखु = जहर। मोरचा = जंग (लोहे को लगने वाला)। सवारी = स्वच्छ हो जाती है। कंचनु = सोना। बैसंतरि = आग में। ताइओ = तपाया जाता है। काटी = काटी जाती है। कटति = काट के। उतारी = उतर जाती है।2। अर्थ: हे भाई! जैसे सोना आग में तपाने से उसकी सारी मैल कट जाती है, उतार दी जाती है, वैसे ही जीवों के अनेक जन्मों के चिपके हुए पापों का जहर पापों का जंग साधु-संगत की शरण पड़ के साफ हो जाता है।2। हरि हरि जपनु जपउ दिनु राती जपि हरि हरि हरि उरि धारी ॥ हरि हरि हरि अउखधु जगि पूरा जपि हरि हरि हउमै मारी ॥३॥ पद्अर्थ: जपउ = मैं जपता हूँ। जपि = जप के। उरि = हृदय में। धारी = मैं टिकाता हूँ। अउखधु = दवा। जगि = जगत में। पूरा = कभी ना खत्म होने वाला, संपूर्ण।3। अर्थ: (हे भाई! तभी) मैं (भी) दिन-रात परमात्मा के नाम का जाप जपता हूँ, नाम जप के उसको अपने हृदय में बसाए रखता हूँ। हे भाई! परमात्मा का नाम जगत में ऐसी दवाई है जो अपना असर किए बग़ैर नहीं रहती। यह नाम जप के (अंदर से) अहंकार को खत्म किया जा सकता है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |