श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जपि मन सति नामु सदा सति नामु ॥ हलति पलति मुख ऊजल होई है नित धिआईऐ हरि पुरखु निरंजना ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! सति नामु = सदा स्थिर रहने वाला हरि नाम। हलति = (अत्र) इस लोक में। पलति = (परत्र) परलोक में। मुख ऊजल = उज्जवल मुख वाले, सही रास्ते पर। पुरखु = सर्व व्यापक। निरंजना = माया से निर्लिप प्रभु। रहाउ।

अर्थ: हे मन! सदा स्थिर प्रभु का नाम सदा जपा कर। हे भाई! सर्व-व्यापक निर्लिप हरि का सदा ध्यान धरना चाहिए, (इस तरह) लोक-परलोक में इज्जत कमा ली जाती है। रहाउ।

जह हरि सिमरनु भइआ तह उपाधि गतु कीनी वडभागी हरि जपना ॥ जन नानक कउ गुरि इह मति दीनी जपि हरि भवजलु तरना ॥२॥६॥१२॥

पद्अर्थ: जह = जहाँ, जिस हृदय में। तह = उस हृदय में से। उपाधि = झगड़ा बखेड़ा। गतु कीनी = विदा हो जाता है। कउ = को। गुरि = गुरु ने। भवजलु = संसार समुंदर।2।

अर्थ: हे भाई! जिस हृदय में परमात्मा की भक्ति होती है उसमें से हरेक किस्म का झगड़ा-बखेड़ा निकल जाता है। (फिर भी) बहुत भाग्य से ही परमात्मा का भजन हो सकता है। हे भाई! दास नानक को (तो) गुरु ने ये समझ दी है कि परमात्मा का नाम जप के संसार समुंदर से पार लांघ जाना है।2।6।12।

धनासरी महला ४ ॥ मेरे साहा मै हरि दरसन सुखु होइ ॥ हमरी बेदनि तू जानता साहा अवरु किआ जानै कोइ ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दरसन सुखु = दर्शन का आत्मिक आनंद। होइ = मिल जाए। बेदनि = (दिल की) पीड़ा, वेदना। अवरु कोइ = और कोई। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे पातशाह! (मेहर कर) मुझे तेरे दर्शनों का आनंद प्राप्त हो जाए। हे मेरे पातशाह! मेरे दिल की पीड़ा को तू ही जानता है। कोई और क्या जान सकता है?। रहाउ।

साचा साहिबु सचु तू मेरे साहा तेरा कीआ सचु सभु होइ ॥ झूठा किस कउ आखीऐ साहा दूजा नाही कोइ ॥१॥

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर रहने वाला। कउ = को। किस कउ = (शब्द ‘किस’ का संबंधक ‘कउ’ के कारण हटा दिया गया है)।1।

अर्थ: हे मेरे पातशाह! तू सदा कायम रहने वाला मालिक है, तू अटल है। जो कुछ तू करता है, उसमें कोई भी कमी खामी नहीं है। हे पातशाह! (सारे संसार में तेरे बिना) और कोई नहीं है (इस वास्ते) किसी को झूठा नहीं कहा जा सकता।1।

सभना विचि तू वरतदा साहा सभि तुझहि धिआवहि दिनु राति ॥ सभि तुझ ही थावहु मंगदे मेरे साहा तू सभना करहि इक दाति ॥२॥

पद्अर्थ: वरतदा = मौजूद। सभि = सारे। थावहु = पास से। तू इक = एक तू ही।2।

अर्थ: हे मेरे पातशाह! तू सब जीवों में मौजूद है, सारे जीव दिन-रात तेरा ही ध्यान धरते हैं। हे मेरे पातशाह! सारे जीव तुझसे ही (मांगें) मांगते हैं। एक तू ही सब जीवों को दातें दे रहा है।2।

सभु को तुझ ही विचि है मेरे साहा तुझ ते बाहरि कोई नाहि ॥ सभि जीअ तेरे तू सभस दा मेरे साहा सभि तुझ ही माहि समाहि ॥३॥

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। ते = से। जीअ = जीव। माहि = में।3।

नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन।

अर्थ: हे मेरे पातशाह! हरेक जीव तेरे हुक्म में है, तुझसे आकी कोई जीव हो ही नहीं सकता। हे मेरे पातशाह! सारे जीव तेरे पैदा किए हुए हैं, ये सारे तेरे में ही लीन हो जाते हैं।3।

सभना की तू आस है मेरे पिआरे सभि तुझहि धिआवहि मेरे साह ॥ जिउ भावै तिउ रखु तू मेरे पिआरे सचु नानक के पातिसाह ॥४॥७॥१३॥

पद्अर्थ: साह = हे शाह! पतसाह = हे पातशाह! सचु = सदा स्थिर।4।

अर्थ: हे मेरे प्यारे पातशाह! तू सब जीवों की आशाएं-उम्मीदें पूरी करता है सारे जीव तेरा ही ध्यान धरते हैं। हे नानक के पातशाह! हे मेरे प्यारे! जैसे तुझे अच्छा लगता है, वैसे मुझे (अपने चरणों में) रख। तू ही सदा कायम रहने वाला है।4।7।13।

नोट: 7 शब्द ‘घरु ५’ के हैं। धनासरी में गुरु रामदास जी के कुल 13 शब्द हैं। घर १ के 6 व घर ५ के 7। कुल 13।

धनासरी महला ५ घरु १ चउपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

भव खंडन दुख भंजन स्वामी भगति वछल निरंकारे ॥ कोटि पराध मिटे खिन भीतरि जां गुरमुखि नामु समारे ॥१॥

पद्अर्थ: भव खंडन = हे जनम मरण (के चक्कर का) नाश करने वाले! दुख भंजन = हे दुखों का नाश करने वाले! भगति वछल = हे भक्ति के साथ प्यार करने वाले! निरंकारे = हे आकार रहित प्रभु! कोटि = करोड़ों। भीतरि = में। जां = जब। गुरमुखि = गुरु की शरण पड़ कर। समारै = संभालता है।1।

अर्थ: हे जनम-मरण के चक्कर नाश करने वाले! हे दुखों का नाश करने वाले! हे मालिक! हे भक्ति से प्यार करने वाले! हे आकार रहित! जब कोई मनुष्य गुरु की शरण पड़ कर (तेरा) नाम दिल में बसाता है, उसके करोड़ों पाप एक छिन में मिट जाते हैं।1।

मेरा मनु लागा है राम पिआरे ॥ दीन दइआलि करी प्रभि किरपा वसि कीने पंच दूतारे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: दीन दइआलि = दीनों पर दया करने वाले! प्रभि = प्रभु ने। पंच दूतारै = (कामादिक) पाँच वैरी।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मेरा मन प्यारे परमात्मा (के नाम) से लगा हुआ है। दीनों पर दया करने वाले प्रभु ने (खुद ही) कृपा की है, और पाँचों (कामादिक) वैरी (मेरे) वश में कर दिए हैं।1। रहाउ।

तेरा थानु सुहावा रूपु सुहावा तेरे भगत सोहहि दरबारे ॥ सरब जीआ के दाते सुआमी करि किरपा लेहु उबारे ॥२॥

पद्अर्थ: सोहहि = सोहाने लगते हैं। दाते = हे दातार! लेहु उबारै = बचा लो।2।

अर्थ: हे प्रभु! तेरा स्थान सुंदर है, तेरा रूप सुंदर है। तेरे भक्त तेरे दरबार में सुंदर लगते हैं। हे सारे जीवों को दातें देने वाले मालिक प्रभु! मेहर कर; (मुझे कामादिक वैरियों से) बचाए रख।2।

तेरा वरनु न जापै रूपु न लखीऐ तेरी कुदरति कउनु बीचारे ॥ जलि थलि महीअलि रविआ स्रब ठाई अगम रूप गिरधारे ॥३॥

पद्अर्थ: वरनु = वर्ण, रंग। रूपु = रूप, शक्ल। कुदरति = ताकत। जलि = जल में। थलि = थल में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, आकाश में। स्रब ठाई = सर्व स्थान, हर जगह। गिरधारे = हे गिरधारी! (गिरि = पहाड़) हे प्रभु!।3।

अर्थ: हे प्रभु! तेरा कोई रंग नहीं दिखता; तेरी कोई सूरति नहीं दिखती। कोई मनुष्य नहीं सोच सकता कि तू कितना ताकतवर है। हे अगम्य (पहुँच से परे) परमात्मा! तू पानी में धरती पर आकाश में हर जगह मौजूद है।3।

कीरति करहि सगल जन तेरी तू अबिनासी पुरखु मुरारे ॥ जिउ भावै तिउ राखहु सुआमी जन नानक सरनि दुआरे ॥४॥१॥

पद्अर्थ: कीरति = स्तुति, कीर्ति, महिमा। करहि = करते हैं। मुरारे = हे मुरारी! पुरखु = सर्व व्यापक।4।

अर्थ: हे मुरारी! तू नाश-रहित है (अविनाशी है); तू सर्व व्यापक है, तेरे सारे सेवक तेरी महिमा करते हैं। हे दास नानक! (कह:) हे स्वामी! मैं तेरे दर पर आ गिरा हूँ, मैं तेरी शरण आया हूँ। जैसे तुझे अच्छा लगे, उसी तरह मेरी रक्षा कर।4।1।

धनासरी महला ५ ॥ बिनु जल प्रान तजे है मीना जिनि जल सिउ हेतु बढाइओ ॥ कमल हेति बिनसिओ है भवरा उनि मारगु निकसि न पाइओ ॥१॥

पद्अर्थ: तजे है = त्याग देती है। मीना = मछली। जिनि = जिस ने, क्योंकि उस (मछली) ने। सिउ = से। हेतु = प्यार। कमल हेति = कमल के फूल के प्यार में। उनि = उस (भौरे) ने। मारगु = रास्ता। निकसि = (फूल में से) निकल के।1।

अर्थ: हे भाई! मछली पानी से विछुड़ के जान दे देती है क्योंकि उस (मछली) ने पानी के साथ प्यारा बढ़ाया हुआ है। कमल के फूल के प्यार में भौरे ने मौत गले लगा ली, (क्योंकि) उस ने (कमल के फूल में से) निकल के (बाहर का) रास्ता ना तलाशा।1।

अब मन एकस सिउ मोहु कीना ॥ मरै न जावै सद ही संगे सतिगुर सबदी चीना ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मन = हे मन! अब = अब, इस मानव जनम में। मोहु = प्रेम। सद ही = सदा ही। सबदी = शब्द के द्वारा। चीना = चीन्ह लिया, पहचान लिया।1। रहाउ।

अर्थ: हे मन! जिस मनुष्य ने अब (इस जनम में) एक परमात्मा से प्यार कर लिया है, वह जनम-मरण के चक्कर में नहीं पड़ता, वह सदा ही परमात्मा के चरणों में मगन रहता है, गुरु के शब्द में जुड़ के वह परमात्मा के साथ अपनत्व बनाए रखता है।1। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh