श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 671 काम हेति कुंचरु लै फांकिओ ओहु पर वसि भइओ बिचारा ॥ नाद हेति सिरु डारिओ कुरंका उस ही हेत बिदारा ॥२॥ पद्अर्थ: कामि हेति = काम-वासना की खातिर। कुंचरु = हाथी। फांकिओ = पकड़ा गया। ओहु = वह हाथी। वसि = वश में। नाद हेति = (घंडेहेड़े की) आवाज के मोह में। कुरंका = हिरन। बिदारा = मारा गया।2। अर्थ: हे भाई! काम-वासना की खातिर हाथी फंस गया, वह विचारा पराधीन हो गया। (घंडेहेड़े की) आवाज के प्यार में हिरन अपना सिर दे बैठता है, उसके प्यार में मारा जाता है।2। देखि कुट्मबु लोभि मोहिओ प्रानी माइआ कउ लपटाना ॥ अति रचिओ करि लीनो अपुना उनि छोडि सरापर जाना ॥३॥ पद्अर्थ: देखि = देख के। कुटंबु = परिवार। लोभि = लालच में। लपटाना = लिपटा रहा। अति रचिओ = (माया में) बहुत मगन हो गया। उनि = उस (मनुष्य) ने। सरापर = जरूर।3। अर्थ: (हे भाई! इसी तरह) मनुष्य (अपना) परिवार देख के (माया के) लोभ में फंस जाता है, माया से चिपका रहता है, (माया के मोह में) बहुत मगन रहता है, (माया को) अपनी बना लेता है (ये नहीं समझता कि आखिर) उसने जरूर (सब कुछ) छोड़ के यहाँ से चले जाना है।3। बिनु गोबिंद अवर संगि नेहा ओहु जाणहु सदा दुहेला ॥ कहु नानक गुर इहै बुझाइओ प्रीति प्रभू सद केला ॥४॥२॥ पद्अर्थ: संगि = साथ। नेहा = प्यार। दुहेला = दुखी। गुरि = गुरु ने। सद = सदा। केला = आनंद।4। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के बिना किसी अन्य से प्यार डालता है, यकीन जानें, वह सदा दुखी रहता है। हे नानक! कह: गुरु ने (मुझे) ये ही समझ दी है कि परमात्मा से प्यार करने से सदा आत्मिक आनंद बना रहता है।4।2। धनासरी मः ५ ॥ करि किरपा दीओ मोहि नामा बंधन ते छुटकाए ॥ मन ते बिसरिओ सगलो धंधा गुर की चरणी लाए ॥१॥ पद्अर्थ: करि = कर के। मोहि = मुझे। ते = से। छुटकाए = छुड़ा ले। ते = से। सगलो धंधा = हरेक किस्म के झगड़े झमेले। लाए = लगा के।1। अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत ने) कृपा करके मुझे परमात्मा का नाम दिया, और गुरु के चरणों में लगा के मुझे माया के बंधनो से छुड़ा लिया (जिस के कारण मेरे) मन से सारा झगड़ा-झमेला उतर गया।1। साधसंगि चिंत बिरानी छाडी ॥ अह्मबुधि मोह मन बासन दे करि गडहा गाडी ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: संगि = संग में। चिंत = आस। बिरानी = बेगानी। अहंबुधि = अहंकार वाली बुद्धि। बासन = वासना। दे करि = दे कर। गडहा = गड्ढा। गाडी = गाड़ दी।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! साधु-संगत में आ के मैंने पराई आशा छोड़ दी है। अहंकार, माया के मोह, मन की वासना- इन सभी को गड्ढा खोद के दबा दिया (सदा के लिए दबा दिया)।1। रहाउ। ना को मेरा दुसमनु रहिआ ना हम किस के बैराई ॥ ब्रहमु पसारु पसारिओ भीतरि सतिगुर ते सोझी पाई ॥२॥ पद्अर्थ: किस के = किसी के। बैराई = वैरी। पसारु = पसारा। भीतरि = (हरेक के) अंदर। ते = से।2। अर्थ: (हे भाई साधु-संगत की इनायत से) मेरा कोई दुश्मन नहीं रह गया (मुझे कोई वैरी नहीं दिखता), मैं भी किसी का वैरी नहीं बनता। मुझे गुरु से ये समझ प्राप्त हो गई है कि ये सारा जगत-पसारा परमात्मा खुद ही है, (सबके) अंदर (परमात्मा ने खुद ही खुद को) बिखेरा हुआ है।2। सभु को मीतु हम आपन कीना हम सभना के साजन ॥ दूरि पराइओ मन का बिरहा ता मेलु कीओ मेरै राजन ॥३॥ पद्अर्थ: सभु को = हरेक प्राणी। हम = हम, मैं। पराइओ = चला गया। बिरहा = (प्रभु से) विछोड़ा। ता = तब। मेलु = मिलाप। मेरै राजन = मेरे प्रभु पातशाह ने।3। अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत की इनायत से) हरेक प्राणी को मैं अपना मित्र समझता हूँ, मैं भी सबका मित्र-सज्जन ही बना रहता हूँ। मेरे मन का (परमात्मा से बना हुआ) विछोड़ा (साधु-संगत की कृपा से) कहीं दूर चला गया है, जब से मैंने साधु-संगत में शरण ली, तब से मेरे प्रभु-पातशाह ने मुझे (अपने चरणों का) मिलाप दे दिया है।3। बिनसिओ ढीठा अम्रितु वूठा सबदु लगो गुर मीठा ॥ जलि थलि महीअलि सरब निवासी नानक रमईआ डीठा ॥४॥३॥ पद्अर्थ: ढीठा = ढीठ पन। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। वूठा = आ बसा। सबदु गुर = गुरु का शब्द। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल के ऊपर, आकाश में, अंतरिक्ष में। रमईआ = सुंदर राम।4। अर्थ: (हे भाई! साधु-संगत की कृपा से मेरे मन का) ढीठ-पन समाप्त हो गया है, मेरे अंदर आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल आ बसा है, गुरु का शब्द मुझे प्यारा लग रहा है। हे नानक! (कह: हे भाई!) अब मैंने जल में, धरती में, आकाश में सब जगह बसने वाले सुंदर राम को देख लिया है।4।3। धनासरी मः ५ ॥ जब ते दरसन भेटे साधू भले दिनस ओइ आए ॥ महा अनंदु सदा करि कीरतनु पुरख बिधाता पाए ॥१॥ पद्अर्थ: जब ते = जब से। भेटे = मिले, प्राप्त किए। साधू दरसन = गुरु के दर्शन। ओइ = वह। करि = कर के। पुरख बिधाता = सर्व व्यापक कर्तार।1। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन। अर्थ: हे भाई! जब से गुरु के दर्शन प्राप्त हुए हैं, मेरे ऐसे भले दिन आ गए हैं कि परमात्मा की महिमा कर करके सदा मेरे अंदर सुख बना रहता है, मुझे सर्व-व्यापक कर्तार मिल गया है।1। अब मोहि राम जसो मनि गाइओ ॥ भइओ प्रगासु सदा सुखु मन महि सतिगुरु पूरा पाइओ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: मोहि = मैं। जसो = यश, महिमा। मनि = मन में। प्रगास = (आत्मिक जीवन देने वाला) प्रकाश।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! मुझे पूरा गुरु मिल गया है, (इस वास्ते उसकी कृपा से) अब मैं परमात्मा की महिमा (अपने) मन में गा रहा हूँ, (मेरे अंदर आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो गया है, मेरे मन में सदा आनंद बना रहता है।1। रहाउ। गुण निधानु रिद भीतरि वसिआ ता दूखु भरम भउ भागा ॥ भई परापति वसतु अगोचर राम नामि रंगु लागा ॥२॥ पद्अर्थ: निधानु = खजाना। रिद = हृदय। अगोचर वसतु = वह चीज जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती। नामि = नाम में। रंगु = प्यार।2। नोट: शब्द ‘वस्तु’ स्त्रीलिंग है। अर्थ: (हे भाई! गुरु की कृपा से जब से) गुणों का खजाना परमात्मा मेरे हृदय में आ बसा है, तब से मेरा दुख-भ्रम-डर दूर हो गया है। परमात्मा के नाम में मेरा प्यार बन गया है, मुझे (वह उत्तम) वस्तु प्राप्त हो गई है जिस तक ज्ञान-इंद्रिय की पहुँच नहीं हो सकती।2। चिंत अचिंता सोच असोचा सोगु लोभु मोहु थाका ॥ हउमै रोग मिटे किरपा ते जम ते भए बिबाका ॥३॥ पद्अर्थ: अचिंता = चिन्ता रहित। असोचा = सोचों से रहित। सोगु = ग़म। ते = से, साथ। बिबाका = निडर, बेबाक।3। अर्थ: (हे भाई! गुरु के दर्शनों की इनायत से) मैं सारी चिंताओं व सोचों से बच गया हूँ, (मेरे अंदर से) दुख समाप्त हो गया है, लोभ खत्म हो गया है, मोह दूर हो गया है। (गुरु की) कृपा से (मेरे अंदर से) अहंकार आदि रोग मिट गए हैं, मैं यम-राज से भी अब नहीं डरता।3। गुर की टहल गुरू की सेवा गुर की आगिआ भाणी ॥ कहु नानक जिनि जम ते काढे तिसु गुर कै कुरबाणी ॥४॥४॥ पद्अर्थ: भाणी = अच्छी लगती है। जिनि = जिस (गुरु) ने। कै = से। कुरबाणी = सदके।4। अर्थ: हे भाई! अब मुझे गुरु की टहल सेवा, गुरु की रजा ही प्यारी लगती है। हे नानक! कह: हे भाई! मैं उस गुरु से सदके जाता हूँ, जिसने मुझे यमों से बचा लिया है।4।4। धनासरी महला ५ ॥ जिस का तनु मनु धनु सभु तिस का सोई सुघड़ु सुजानी ॥ तिन ही सुणिआ दुखु सुखु मेरा तउ बिधि नीकी खटानी ॥१॥ पद्अर्थ: सोई = वह (प्रभु) ही। सुघड़ु = निपुण आत्मिक घाड़त वाला। सुजानी = सुजान, समझदार। तउ = तब। नीकी बिधि = अच्छी हालत। खटानी = बन गई।1। नोट: ‘तिन ही’ में से ‘तिनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। नोट: ‘जिस का’, ‘तिस का’ में से ‘जिसु’ ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! जिस प्रभु का दिया हुआ ये शरीर और मन है, ये सारा धन-पदार्थ भी उसी का दिया हुआ है, वही कुशलता वाला है और समझदार है। हम जीवों का दुख-सुख (सदा) उस परमात्मा ने ही सुना है, (जब वह हमारी प्रार्थना आरजू सुनता है) तब (हमारी) हालत अच्छी बन जाती है।1। जीअ की एकै ही पहि मानी ॥ अवरि जतन करि रहे बहुतेरे तिन तिलु नही कीमति जानी ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जीअ की = जिंद की। एकै ही पहि = एक परमात्मा के पास ही। मानी = मानी जाती है। अवरि = और। तिन कीमति = उन (प्रयत्नों) की कीमत। जानी = जानी जाती। रहाउ। नोट: ‘अवरि’ शब्द ‘अवर’ का बहुवचन है। अर्थ: हे भाई! जिंद की (अरदास) एक परमात्मा के पास ही मानी जाती है। (परमात्मा के आसरे के बिना लोग) और ज्यादा यत्न करके थक जाते हैं, उन प्रयत्नों का मूल्य एक तिल जितना भी नहीं समझा जाता। रहाउ। अम्रित नामु निरमोलकु हीरा गुरि दीनो मंतानी ॥ डिगै न डोलै द्रिड़ु करि रहिओ पूरन होइ त्रिपतानी ॥२॥ पद्अर्थ: अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला। निरमोलकु = जिसका कोई मूल्य ना पाया जा सके। गुरि = गुरु ने। मंतानी = मंत्र। द्रिढ़ करि रहिओ = पक्के तौर पर टिक गया।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, नाम एक ऐसा हीरा है जो किसी मूल्य से नहीं मिल सकता। गुरु ने ये नाम-मंत्र (जिसय मनुष्य को) दे दिया, वह मनुष्य (विकारों में) गिरता नहीं, डोलता नहीं, वह मनुष्य पक्के इरादे वाला बन जाता है, वह मुक्मल तौर पर (माया की ओर से) संतुष्ट रहता है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |