श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 672 ओइ जु बीच हम तुम कछु होते तिन की बात बिलानी ॥ अलंकार मिलि थैली होई है ता ते कनिक वखानी ॥३॥ पद्अर्थ: ओइ = वह। ओइ बीच = वह दूरियां, वो अंतराल। हम तुम बीच = हमारे तुम्हारे वाले भेदभाव। बिलानी = बीत जाती है, समाप्त हो जाती है। अलंकार = गहने। मिलि = मिल के। थैली = रैणी, ढेली। ता ते = उस (ढेली) से। कनिक = सोना।3। नोट: ‘ओइ’ है ‘ओह/वो’ का बहुवचन। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरु की तरफ से नाम-हीरा मिल जाता है, उसके अंदर से) उस मेर-तेर वाले सारे भेदभाव वाली बात खत्म हो जाती है जो जगत में बड़े प्रबल हैं। (उस मनुष्य को हर तरफ से परमात्मा ही ऐसा दिखता है, जैसे) अनेक गहने मिल के (गलाए जाने पर) रैणी बन जाते हैं, और उस ढेली के रूप में भी वह सोना ही कहलाते हैं।3। प्रगटिओ जोति सहज सुख सोभा बाजे अनहत बानी ॥ कहु नानक निहचल घरु बाधिओ गुरि कीओ बंधानी ॥४॥५॥ पद्अर्थ: सहज सुख = आत्मिक अडोलता के आनंद। बाजे = बजते हैं। अनहत = एक रस, लगातार। बानी = महिमा वाली गुरवाणी। निहचल = अटल। गुरि = गुरु ने। बंधानी = मर्यादा।4। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर गुरु की कृपा से) परमात्मा की ज्योति का प्रकाश हो जाता है, उसके अंदर आत्मिक अडोलता के आनंद पैदा हो जाते हैं, उसको हर जगह शोभा मिलती है, उसके हृदय में महिमा की वाणी के (मानो) एक-रस बाजे बजते रहते हैं। हे नानक! कह: गुरु ने जिस मनुष्य के वास्ते ये प्रबंध कर दिया, वह मनुष्य सदा के लिए प्रभु-चरणों में ठिकाना प्राप्त कर लेता है।4।5। धनासरी महला ५ ॥ वडे वडे राजन अरु भूमन ता की त्रिसन न बूझी ॥ लपटि रहे माइआ रंग माते लोचन कछू न सूझी ॥१॥ पद्अर्थ: राजन = राजे। भूमन = जमीन के मालिक। ता की = उनकी। त्रिसन = लालच, प्यास। लपटि रहे = चिपके रहते हैं। माते = मस्त। लोचन = आँखें।1। अर्थ: (हे भाई! दुनिया में) बड़े-बड़े राजे हैं, बड़े-बड़े जिमींदार हैं, (माया से) उनकी तृष्णा कभी खत्म नहीं होती वे माया के करिश्मों में मस्त रहते हैं, माया से चिपके रहते हैं। (माया के बिना) और कुछ उन्हें आँखों से दिखता ही नहीं।1। बिखिआ महि किन ही त्रिपति न पाई ॥ जिउ पावकु ईधनि नही ध्रापै बिनु हरि कहा अघाई ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: बिखिआ = माया। किन ही = किनि ही, किसी ने भी। त्रिपति = तृप्ती, शांति। पावकु = आग। ईधनि = ईधन से। ध्रापै = अघाती। कहा = कहाँ? अघाई = तृप्त होती है। रहाउ। नोट: ‘किन ही’ में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे भाई! माया (के मोह) में (फसे रह के) किसी मनुष्य ने (माया की ओर से) तृप्ती प्राप्त नहीं की, जैसे आग ईधन से नहीं अघाती। परमात्मा के नाम के बिना मनुष्य कभी तृप्त नहीं हो सकता। रहाउ। दिनु दिनु करत भोजन बहु बिंजन ता की मिटै न भूखा ॥ उदमु करै सुआन की निआई चारे कुंटा घोखा ॥२॥ पद्अर्थ: दिनु दिनु = हर रोज। बिंजन = (व्यंजन) स्वादिष्ट खाने। ता की = उस (मनुष्य) की। सुआन = कुक्ता। निआई = की तरह। घोखा = ढूँढता फिरता है।2। अर्थ: हे भाई! जो मनुष्य हर रोज स्वादिष्ट खाने खाता रहता है, उसकी (स्वादिष्ट खानों की) भूख कभी खत्म नहीं होती। (स्वादिष्ट खानों की खातिर) वह आदमी कुत्ते की तरह दौड़-भाग करता रहता है, चारों तरफ तलाशता फिरता है।2। कामवंत कामी बहु नारी पर ग्रिह जोह न चूकै ॥ दिन प्रति करै करै पछुतापै सोग लोभ महि सूकै ॥३॥ पद्अर्थ: कामवंत = काम-वासना वाला। कामी = विषयी। पर ग्रिह जोह = पराए घर में निगाह। जोह = ताकना, मंद दृष्टि, बुरी विकार भरी निगाह। दिन प्रति = हर रोज। सूकै = सूखता जाता है।3। अर्थ: हे भाई! काम-वश हुए विषयी मनुष्य की भले ही कितनियां ही स्त्रीयां क्यों ना हों, पराए घर की ओर उसकी बुरी निगाह फिर भी नहीं हटती। वह हर रोज (विषौ-पाप) करता है, और पछताता (भी) है। सो, यह काम-वासना में और पछतावे में उसका आत्मिक जीवन सूखता जाता है।3। हरि हरि नामु अपार अमोला अम्रितु एकु निधाना ॥ सूखु सहजु आनंदु संतन कै नानक गुर ते जाना ॥४॥६॥ पद्अर्थ: निधाना = खजाना। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला। सहजु = आत्मिक अडोलता। कै = के (हृदय) में। ते = से।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम ही एक ऐसा बेअंत और कीमती खजाना है जो आत्मिक जीवन देता है, (इस नाम-खजाने की इनायत से) संत-जनों के हृदय-घर में आत्मिक अडोलता बनी रहती है, सुख आनंद बना रहता है। पर, हे नानक! गुरु से इस खजाने की जान-पहचान प्राप्त होती है।4।6। धनासरी मः ५ ॥ लवै न लागन कउ है कछूऐ जा कउ फिरि इहु धावै ॥ जा कउ गुरि दीनो इहु अम्रितु तिस ही कउ बनि आवै ॥१॥ पद्अर्थ: लवै न = नजदीक नहीं पहुँच सकती। कछूऐ = कोई भी चीज। जा कउ = जिस की खातिर। फिरि = बार बार। धावै = दौड़ता है। गुरि = गुरु ने। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। बनि आवै = शोभती है।1। नोट: ‘तिस ही कउ’ में से ‘तिसु’ की ‘ु’ मात्रा क्रिया विशेषण ‘ही’ के कारण हटा दी गई है। अर्थ: हे भाई! ये मनुष्य जिस-जिस मायावी पदार्थों की खातिर भटकता फिरता है, उनमें से कोई भी चीज (परमात्मा के नाम-अमृत की) बराबरी नहीं कर सकती। गुरु ने जिस मनुष्य को ये आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल दे दिया, उसे ही उसकी कद्र की समझ पड़ती है।1। जा कउ आइओ एकु रसा ॥ खान पान आन नही खुधिआ ता कै चिति न बसा ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: खुधिआ = भूख। आन = कोई और। ता कै चिति = उसके चिक्त में। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा के नाम का स्वाद आ गया, उसे खाने-पीने आदि की कोई भूख नहीं रहती, कोई और भूख उसके चिक्त में टिक नहीं सकती। रहाउ। मउलिओ मनु तनु होइओ हरिआ एक बूंद जिनि पाई ॥ बरनि न साकउ उसतति ता की कीमति कहणु न जाई ॥२॥ पद्अर्थ: मउलिओ = खिल पड़ा। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। बरनि न साकउ = (सकूँ) मैं बयान नहीं करा सकता। ता की = उस (मनुष्य) की।2। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य ने (नाम-जल की) सिर्फ एक बूँद हासिल कर ली, उसका मन खिल उठता है उसका शरीर (आत्मिक जल से) हरा हो जाता है। हे भाई! मैं उस मनुष्य की आत्मिक महिमा बयान नहीं कर सकता, उस मनुष्य (के आत्मिक जीवन) की कीमत नहीं बताई जा सकती।2। घाल न मिलिओ सेव न मिलिओ मिलिओ आइ अचिंता ॥ जा कउ दइआ करी मेरै ठाकुरि तिनि गुरहि कमानो मंता ॥३॥ पद्अर्थ: घाल = मेहनत। अचिंता = उसके चिक्त चेते से बाहर ही। ठाकुरि = ठाकुर ने। तिनि = उस (मनुष्य) ने। गुरहि मंता = गुरु का ही उपदेश।3। अर्थ: हे भाई! यह नाम-रस (अपनी किसी) मेहनत से नहीं मिलता, अपनी किसी सेवा के बल पर नहीं मिलता। प्यारे प्रभु ने जिस मनुष्य पर मेहर की, उस मनुष्य ने गुरु के उपदेश पर अमल किया, और, उसे अचेतन ही प्राप्त हो गया।3। दीन दैआल सदा किरपाला सरब जीआ प्रतिपाला ॥ ओति पोति नानक संगि रविआ जिउ माता बाल गुोपाला ॥४॥७॥ पद्अर्थ: ओति पोति = ताने पेटे की तरह। ओत = उना हुआ। पोत = परोया हुआ। संगि = साथ। गुोपाला = (असल शब्द ‘गोपाल’ है यहाँ ‘गुपाला’ पढ़ना है) परमात्मा।4। अर्थ: हे नानक! परमात्मा दीनों पर दया करने वाला है, सदा ही मेहरवान रहता है, सारे जीवों की पलना करता है। जैसे माँ अपने बच्चे को सदा चिक्त में टिकाए रखती है, इसी तरह वह गोपाल-प्रभु ताने-बाने की तरह मनुष्य को मिला रहता है (जिसे हरि नाम का स्वाद आ जाता है)।4।7। धनासरी महला ५ ॥ बारि जाउ गुर अपुने ऊपरि जिनि हरि हरि नामु द्रिड़्हाया ॥ महा उदिआन अंधकार महि जिनि सीधा मारगु दिखाया ॥१॥ पद्अर्थ: बारि जाउ = (जाऊँ) मैं सदके जाता हूँ। जिनि = जिस (गुरु) ने। उदिआन = जंगल। अंधकार = घुप अंधेरा। मारगु = रास्ता।1। अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से सदके जाता हूँ, जिसने परमात्मा का नाम (मेरे हृदय में) पक्का कर दिया है; जिसने इस बड़े और (माया के मोह के) घोर अंधकार (संसार-) जगंल में (आत्मिक जीवन प्राप्त करने के लिए) मुझे सीधा राह दिखा दिया है।1। हमरे प्रान गुपाल गोबिंद ॥ ईहा ऊहा सरब थोक की जिसहि हमारी चिंद ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: प्रान = जिंद, जिंद का आसरा। गुपाल = गोपाल, सृष्टि को पालने वाला। ईहा = इस लोक में। ऊहा = परलोक में। जिसहि = जिस (प्रभु) को। चिंद = चिन्ता, ध्यान।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस परमात्मा को (इस लोक में परलोक में) हमारी जरूरतें पूरी करने का फिक्र है वह हमारी जिंद का आसरा है।1। रहाउ। जा कै सिमरनि सरब निधाना मानु महतु पति पूरी ॥ नामु लैत कोटि अघ नासे भगत बाछहि सभि धूरी ॥२॥ पद्अर्थ: कै सिमरन = के स्मरण से। निधान = खजाने। मानु = आदर। महतु = बड़ाई, महत्वता। पति = इज्जत। लैत = लेते हुए, स्मरण करते हुए। अघ = पाप। बाछहि = चाहते हैं। सभि = सारे। धूरी = चरण धूल।2। अर्थ: हे भाई! (वह परमात्मा हमारी जिंद का आसरा है) जिसके नाम-जपने की इनायत से सारे खजाने प्राप्त हो जाते हैं, आदर मिलता है, महातम मिलता है, पूरी इज्जत मिलती है, जिसका नाम स्मरण करने से करोड़ों पाप नाश हो जाते हैं। (हे भाई!) सारे भक्त उस परमात्मा के चरणों की धूल लोचते रहते हैं।2। सरब मनोरथ जे को चाहै सेवै एकु निधाना ॥ पारब्रहम अपर्मपर सुआमी सिमरत पारि पराना ॥३॥ पद्अर्थ: मनोरथ = मनो कामना, मन की मुरादें। को = कोई मनुष्य। सेवै = स्मरण करे। अपरंपर = बेअंत। पारि पराना = पार लांघ जाते हैं।3। अर्थ: हे भाई! जो कोई मनुष्य सारी मुरादें (पूरी करना) चाहता है (तो उसे चाहिए कि) वह उस एक परमात्मा की सेवा-भक्ति करे जो सारे पदार्थों का खजाना है। हे भाई! सारे जगत के मालिक बेअंत परमात्मा का स्मरण करने से (संसार समुंदर से) पार लांघ जाते हैं।3। सीतल सांति महा सुखु पाइआ संतसंगि रहिओ ओल्हा ॥ हरि धनु संचनु हरि नामु भोजनु इहु नानक कीनो चोल्हा ॥४॥८॥ पद्अर्थ: सीतल = ठंडा। संगि = संगति में। ओला = पर्दा, इज्जत। संचनु = इकट्ठा करना। चोला = स्वादिष्ट खाना।4। अर्थ: हे नानक! जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम-धन एकत्र किया है, परमात्मा के नाम को (अपनी आत्मा के लिए) भोजन बनाया है स्वादिष्ट खाना बनाया है, (उसका हृदय) ठंडा-ठार रहता है, उसको शांति प्राप्त रहती है, उसे बड़ा आनंद बना रहता है। गुरमुखों की संगति में रह के उसकी इज्जत बनी रहती है (और कोई पाप उसके नजदीक नहीं फटकते)।4।8। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |