श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी महला ५ ॥ जिह करणी होवहि सरमिंदा इहा कमानी रीति ॥ संत की निंदा साकत की पूजा ऐसी द्रिड़्ही बिपरीति ॥१॥

पद्अर्थ: जिह करणी = जिस काम के करने से। होवहि = तू होगा। रीति = मर्यादा, चाल। साकत = परमात्मा से टूटा हुआ मनुष्य। पूजा = आदर सत्कार। बिपरीत = उल्टी चाल।1।

अर्थ: हे भाई! जिस कामों से तू (परमात्मा की दरगाह में) शर्मिंदा होगा उन कामों को ही तू किए जा रहा है। तू संत जनों की निंदा करता रहता है, और, परमात्मा के साथ टूटे हुए मनुष्यों का आदर-सत्कार करता रहता है। तूने आश्चर्यजनक उल्टी मति ग्रहण की हुई है।1।

माइआ मोह भूलो अवरै हीत ॥ हरिचंदउरी बन हर पात रे इहै तुहारो बीत ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भूलो = कुमार्ग पर पड़ा रहा। अवरै = (परमात्मा के बिना) और में। हीत = हित, मोह। हरिचंउरी = हरी चंद की नगरी, आकाश में काल्पनिक नगर, हवाई किला। बन हर पात = जंगल के हरे पत्ते। रे = हे भाई! बीत = विक्त, सीमा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! माया के मोह (में फंस के) तू गलत राह पर पड़ गया है, (परमात्मा को छोड़ के) और में प्यार डाल रहा है। तेरी अपनी विक्त तो इतनी ही है जितनी जंगल के हरे पक्तों की, जितनी आकाश में दिख रही हरीचंद की नगरी की।1। रहाउ।

चंदन लेप होत देह कउ सुखु गरधभ भसम संगीति ॥ अम्रित संगि नाहि रुच आवत बिखै ठगउरी प्रीति ॥२॥

पद्अर्थ: देह कउ = शरीर को। गरधभ = गधा। भसम = राख। संगीति = साथ। संगि = साथ। रचु = प्यार। बिखै = विषौ। ठगउरी = ठग बूटी।2।

अर्थ: हे भाई! गधा मिट्टी में (लेटने से) खुद को सुखी समझता है, चाहे उसके शरीर पर चंदन का लेप करते रहें (यही हाल तेरा है) आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल से तेरा प्यार नहीं बनता। तू विषियों की ठग-बूटी से ही प्यार करता है।2।

उतम संत भले संजोगी इसु जुग महि पवित पुनीत ॥ जात अकारथ जनमु पदारथ काच बादरै जीत ॥३॥

पद्अर्थ: भले संजोगी = भले संजोगों से (मिलते हैं)। जुग = जगत, संसार। पुनीत = पवित्र। जात अकारथ = व्यर्थ जा रहा है। काच = कच्चा। बादरै = बदले में। जीत = जीता जा रहा है।3।

अर्थ: हे भाई! ऊँचे जीवन वाले संत जो इस संसार (के विकारों) में भी पवित्र ही रहते हैं, भले संजोगों से ही मिलते हैं। (उनकी संगति से वंचित रह के) तेरा कीमती मानव जन्म व्यर्थ जा रहा है, काँच के बदले में जीता जा रहा है।3।

जनम जनम के किलविख दुख भागे गुरि गिआन अंजनु नेत्र दीत ॥ साधसंगि इन दुख ते निकसिओ नानक एक परीत ॥४॥९॥

पद्अर्थ: किलविख = पाप। गुरि = गुरु ने। अंजनु = सुरमा। गिआन = आत्मिक जीवन की सूझ। नेत्र = आँखें। साध संगि = गुरु की संगति में। ते = में से। निकसिओ = निकल गया।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस मनुष्य की आँखों में गुरु ने आत्मिक सूझ वाला सुरमा डाल दिया, उसके अनेक जन्मों के किए पाप दूर हो गए। संगति में टिक के वह मनुष्य इन दुखों-पापों से बच निकला, उसने एक परमात्मा के साथ प्यार डाल लिया।4।9।

धनासरी महला ५ ॥ पानी पखा पीसउ संत आगै गुण गोविंद जसु गाई ॥ सासि सासि मनु नामु सम्हारै इहु बिस्राम निधि पाई ॥१॥

पद्अर्थ: पीसउ = पीसूँ, मैं (आटा) पीसूँ। संत आगै = संतों की सेवा में। जसु = महिमा। गाई = मैं गाऊँ। सासि सासि = हरेक सांस के साथं। समारै = याद करता रहे। बिस्राम निधि = सुख का खजाना। पाई = मैं हासिल कर लूँ।1।

अर्थ: (हे प्रभु! मेहर कर) मैं (तेरे) संतों की सेवा में (रह के, उनके लिए) पानी (ढोता रहूँ, उनको) पंखा (झलता रहूँ, उनके वास्ते आटा) पीसता रहूँ, और, हे गोबिंद! तेरी महिमा! तेरे गुण गाता रहूँ। मेरा मन हरेक सांस के साथ (तेरा) नाम चेता करता रहे, मैं तेरा यह नाम प्राप्त कर लूँ जो सुख शांति का खजाना है।1।

तुम्ह करहु दइआ मेरे साई ॥ ऐसी मति दीजै मेरे ठाकुर सदा सदा तुधु धिआई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मेरे साई = हे मेरे साई! ठाकुर = हे मालिक! धिआई = मैं ध्याऊँ।1। रहाउ।

अर्थ: हे मेरे पति-प्रभु! (मेरे पर) दया कर। हे मेरे ठाकुर! मुझे ऐसी बुद्धि दे कि मैं सदा तेरा नाम स्मरण करता रहूँ।1। रहाउ।

तुम्हरी क्रिपा ते मोहु मानु छूटै बिनसि जाइ भरमाई ॥ अनद रूपु रविओ सभ मधे जत कत पेखउ जाई ॥२॥

पद्अर्थ: ते = से। छुटै = समाप्त हो जाए। भरमाए = भटकना। अनद = आनंद। रविओ = व्यापक। मधे = में। जत कत = जहाँ कहाँ। पेखउ = देखूँ। जाई = जा के।2।

अर्थ: हे प्रभु! तेरी कृपा से (मेरे अंदर से) माया का मोह समाप्त हो जाए, अहंकार दूर हो जाए, मेरी भटकना नाश हो जाए, मैं जहाँ-कहीं भी देखूँ, सबमें मुझे तू ही आनंद स्वरूप बसता दिखे।2।

तुम्ह दइआल किरपाल क्रिपा निधि पतित पावन गोसाई ॥ कोटि सूख आनंद राज पाए मुख ते निमख बुलाई ॥३॥

पद्अर्थ: निधि = खजाना। पतित पावन = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। गोसाई = हे धरती के पति! कोटि = करोड़ों। ते = से। मुख ते = मुँह से। निमख = आँख झपकने जितने समय के लिए। बुलाई = मैं (तेरा नाम) उचारूँ।3।

अर्थ: हे धरती के पति! तू दयालु है, कृपालु है, तू दया का खजाना है, तू विकारियों को पवित्र करने वाला है। जब मैं आँख झपकने जितने समय के लिए भी मुँह से तेरा नाम उचारता हूँ, मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि मैंने राज-भाग के करोड़ों सुख-आनंद भोग लिए हैं।3।

जाप ताप भगति सा पूरी जो प्रभ कै मनि भाई ॥ नामु जपत त्रिसना सभ बुझी है नानक त्रिपति अघाई ॥४॥१०॥

पद्अर्थ: सा = वह (स्त्रीलिंग)। कै मनि = के मन में। भाई = पसंद आती है। त्रिपति अघाई = पूर्ण तौर पर अघा जाते हैं।4।

अर्थ: हे नानक! वही जाप-ताप वही भक्ति सिरे चढ़ी समझें, जो परमात्मा को पसंद आती है। परमात्मा का नाम जपने से सारी तृष्णा समाप्त हो जाती है, (मायावी पदार्थों की ओर से) पूरे तौर पर तृप्त हो जाते हैं।4।10।

धनासरी महला ५ ॥ जिनि कीने वसि अपुनै त्रै गुण भवण चतुर संसारा ॥ जग इसनान ताप थान खंडे किआ इहु जंतु विचारा ॥१॥

पद्अर्थ: जिनि = जिस (माया) ने। अपुनै वसि = अपने वश में। त्रैगुण भवन = माया के तीन गुण वाले जगत को। चतुर संसारा = चार कूट संसार को। खंडे = खण्डित किए, तोड़ दिए, जीत लिए हैं।1।

अर्थ: हे भाई! जिस (माया) ने सारे त्रैगुणी संसार को चार-कूट जगत को अपने वश में किया हुआ है, जिसने यज्ञ करने वाले, स्नान करने वाले, तप करने वाले स्तम्भों को चकनाचूर कर रखा है, इस जीव विचारे की क्या ताकत है (कि उससे टक्कर ले सके)?।1।

प्रभ की ओट गही तउ छूटो ॥ साध प्रसादि हरि हरि हरि गाए बिखै बिआधि तब हूटो ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गही = पकड़ी। ओट = आसरा। तउ = तब। छूटो = बचा। साध प्रसादि = गुरु की कृपा से। बिखै बिआधि = विषियों के रोग। हूटो = खत्म हो गया, थक गया।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जब मनुष्य ने परमात्मा का पल्ला पकड़ा, तब वह (माया के फंदे से) बच गया। जब गुरु की कृपा से मनुष्य ने परमात्मा की महिमा के गीत गाने शुरू कर दिए, तब विकारों का रोग (उसके अंदर से) खत्म हो गया।1। रहाउ।

नह सुणीऐ नह मुख ते बकीऐ नह मोहै उह डीठी ॥ ऐसी ठगउरी पाइ भुलावै मनि सभ कै लागै मीठी ॥२॥

पद्अर्थ: सुणीऐ = आवाज सुनी जाती। मुख ते = मुँह से। बकीऐ = बोलती। डीठी = दिखती। उह = (स्त्रीलिंग) वह माया। ठगउरी = ठग बूटी, नशीली चीज। भुलावै = कुमार्ग पर देती है। कै मनि = के मन में।2।

अर्थ: हे भाई! वह माया जब मनुष्य को आ के भरमाती है, तब ना उसकी आवाज सुनाई देती है, ना वह मुँह से बोलती है, ना ही आँखों से दिखती है। कोई ऐसी नशीली चीज खिला के मनुष्य को गलत राह पर डाल देती है कि सबके मन को वह प्यारी लगती है।2।

माइ बाप पूत हित भ्राता उनि घरि घरि मेलिओ दूआ ॥ किस ही वाधि घाटि किस ही पहि सगले लरि लरि मूआ ॥३॥

पद्अर्थ: माइ = माँ। हित = हित करने के लिए, मित्र। उनि = उस (माया) ने। घरि घरि = हरेक घर में, हरेक हृदय घर में। दूआ = द्वैत, भेद भाव। वाधि = ज्यादा, बहुत। घाटि = कमी, थोड़ी।3।

अर्थ: हे भाई! माता-पिता-पुत्र-मित्र-भाई, उस माया ने हरेक के दिल में भेद भाव डाल रखा है। किसी के पास (माया) बहुत है, किसी के पास थोड़ी है (बस, इसी बात पर) सारे (आपस में) लड़-लड़ के खपते रहते हैं।3।

हउ बलिहारी सतिगुर अपुने जिनि इहु चलतु दिखाइआ ॥ गूझी भाहि जलै संसारा भगत न बिआपै माइआ ॥४॥

पद्अर्थ: हउ = मैं। जिनि = जिस (गुरु) ने। चलतु = तमाशा। गूझी = छुपी हुई। भाहि = आग। ना बिआपै = जोर नहीं डाल सकती।4।

अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरु से कुर्बान जाता हूँ, जिसने मुझे (माया का) ये तमाशा (आखों से) दिखा दिया है। (मैंने देख लिया है कि माया की इस) छुपी हुई आग में सारा जगत जल रहा है। परमात्मा की भक्ति करने वाले मनुष्य पर माया (अपना) जोर नहीं डाल सकती।4।

संत प्रसादि महा सुखु पाइआ सगले बंधन काटे ॥ हरि हरि नामु नानक धनु पाइआ अपुनै घरि लै आइआ खाटे ॥५॥११॥

पद्अर्थ: संत प्रसादि = गुरु की कृपा से। सगले = सारे। अपुनै घरि = अपने हृदय घर में। खाटे = कमा के।5।

अर्थ: हे नानक! गुरु की कृपा से (जिस मनुष्य ने) परमात्मा का नाम-धन ढूँढ लिया है, और ये धन कमा के अपने हृदय में बसा लिया है, वह बड़ा आत्मिक आनंद पाता है, उसके (मायावी) सारे बंधन काटे जाते हैं।5।11।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh