श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 674 धनासरी महला ५ ॥ तुम दाते ठाकुर प्रतिपालक नाइक खसम हमारे ॥ निमख निमख तुम ही प्रतिपालहु हम बारिक तुमरे धारे ॥१॥ पद्अर्थ: प्रतिपालक = पालने वाले। नाइक = नेता। निमख = आँख झपकने जितना समय। तुमरे धारे = तेरे आसरे।1। अर्थ: हे प्रभु! तू सबको दातें देने वाला है, तू मालिक है, तू सबको पालने वाला है, तू हमारा नायक है (जीवन की अगुवाई देने वाला है), तू हमारा पति है। हे प्रभु! तू ही एक-एक छिन हमारी पालना करता है, हम (तेरे) बच्चे तेरे आसरे (जीते) हैं।1। जिहवा एक कवन गुन कहीऐ ॥ बेसुमार बेअंत सुआमी तेरो अंतु न किन ही लहीऐ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: जिहवा = जीभ। कहीऐ = बयान किया जा सकता है। तेरो = तेरा। किन ही = किसी से ही। लहीऐ = पाया जा सकता है।1। रहाउ। नोट: ‘किन ही” में से ‘किनि’ की ‘नि’ की ‘ि’ मात्रा ‘ही’ क्रिया विशेषण के कारण हट गई है। अर्थ: हे अनगिनत गुणों के मालिक! हे बेअंत मालिक प्रभु! किसी भी पक्ष से तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। (मनुष्य की) एक जीभ से तेरा कौन-कौन सा गुण बताया जाए?।1। रहाउ। कोटि पराध हमारे खंडहु अनिक बिधी समझावहु ॥ हम अगिआन अलप मति थोरी तुम आपन बिरदु रखावहु ॥२॥ पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। पराध = अपराध। खंडहु = नाश करते हो। बिधि = तरीका। अगिआन = ज्ञान हीन। आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित। अलप = थोड़ी, होछी। बिरदु = प्रभु का मूल (प्यार वाला) स्वभाव।2। अर्थ: हे प्रभु! तू हमारे करोड़ों अपराध नाश करता है, तू हमें अनेक तरीकों से (जीवन जुगति) समझाता है। हम जीव आत्मिक जीवन की सूझ से वंचित हैं, हमारी अक्ल थोड़ी है होछी है। (फिर भी) तू अपना बिरद भरा प्यार वाला स्वभाव सदा कायम रखता है।2। तुमरी सरणि तुमारी आसा तुम ही सजन सुहेले ॥ राखहु राखनहार दइआला नानक घर के गोले ॥३॥१२॥ पद्अर्थ: तुमारी = तेरी ही। सुहेले = सुख देने वाले। राखनहार = रक्षा करने की सामर्थ्य करने वाले! गोले = गुलाम।3। अर्थ: हे नानक! (कह:) हे प्रभु! हम तेरे ही आसरे-सहारे से हैं, हमें तेरी ही (सहायता की) आस है, तू ही हमारा सज्जन है, तू ही हमें सुख देने वाला है। हे दयावान! हे सबकी रक्षा करने के समर्थ! हमारी रक्षा कर, हम तेरे घर के गुलाम हैं।3।12। धनासरी महला ५ ॥ पूजा वरत तिलक इसनाना पुंन दान बहु दैन ॥ कहूं न भीजै संजम सुआमी बोलहि मीठे बैन ॥१॥ पद्अर्थ: देन = देने। कहूँ = किसी के साथ भी। भीजै = भीगता, खुश होता। कहूँ संजम = किसी भी जुगति से। बोलहि = बोलते हैं। बैन = वचन।1। अर्थ: हे भाई! लोग देव-पूजा करते हैं, व्रत रखते हैं, माथे पर तिलक लगाते हैं, तीर्थों पर स्नान करते हैं, (गरीबों को) बड़े दान-पुण्य करते है, मीठे बोल बोलते हैं, पर ऐसी किसी भी जुगति से मालिक प्रभु खुश नहीं होता।1। प्रभ जी को नामु जपत मन चैन ॥ बहु प्रकार खोजहि सभि ता कउ बिखमु न जाई लैन ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: को = का। मन चैन = मन की शांति। बहु प्रकार = कई तरीकों से। सभि = सारे जीव। ता कउ = उस (परमात्मा) को। बिखमु = मुश्किल। लैन न जाई = मिलता नहीं।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम जपने से ही मन को शांति (प्राप्त होती है)। सारे लोक कई तरीकों से उस परमात्मा का ढूँढते हैं, (पर स्मरण के बिना उसे तलाशना) मुश्किल है, नहीं ढूँढ सकते।1। रहाउ। जाप ताप भ्रमन बसुधा करि उरध ताप लै गैन ॥ इह बिधि नह पतीआनो ठाकुर जोग जुगति करि जैन ॥२॥ पद्अर्थ: बसुधा = धरती। भ्रमन बसुधा करि = सारी धरती पर चक्कर लगा के। उरध ताप = उल्टे हो के तप करने। गैन = गगन, आकाश, दसवाँ द्वार। लै गैन = दसवाँ द्वार में प्राण चढ़ा के। पतीआनो = पतीजता। जैन जुगति करि = जैनियों वाली जुगती करके।2। अर्थ: हे भाई! जप-तप करके, सारी धरती के चक्कर लगा के, सिर-भार तप करके, प्राण दसवाँ द्वार पर चढ़ा के, योग मत की युक्तियां करके, जैन मत के तरीके अपना के -इन तरीकों से भी मालिक प्रभु नहीं पतीजता।2। अम्रित नामु निरमोलकु हरि जसु तिनि पाइओ जिसु किरपैन ॥ साधसंगि रंगि प्रभ भेटे नानक सुखि जन रैन ॥३॥१३॥ पद्अर्थ: निरमोलकु = जिसका कोई मूल्य ना डाला जा सके। तिनि = उस (मनुष्य) ने। जिसु किरपैन = जिस जिस पर कृपा होती है। साध संगि = गुरु की संगति में। रंगि = रंग में। भेटे = मिलते हैं। सुखि = सुख आनंद में। जन रैन = उस मनुष्य की (उम्र की) रात (गुजरती है)।3। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम आत्मिक जीवन देने वाला है, परमात्मा की महिमा एक ऐसा पदार्थ है जिसका कोई मूल्य नहीं पड़ सकता -ये दाति उस मनुष्य ने हासिल की है जिस पर परमात्मा की कृपा हुई है। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की संगति से प्रेम-रंग में जुड़ के जिस मनुष्य को प्रभु जी मिले हैं, उस मनुष्य की जीवन-रात्रि ही सुख-आनंद में बीतती है।3।13। नोट: यहाँ तक धनासरी राग में ‘महला ५’ के 13 शब्द आ चुके हैं। इससे आगे के शब्द का अंक जोड़ 14 है। इसका भाव ये है कि अंक 13 से आगे नया शब्द शुरू हुआ है। शीर्षक ‘धनासरी महला ५’ ना लिखने से भी कोई भुलेखे वाली बात नहीं है। धनासरी महला ५ ॥ बंधन ते छुटकावै प्रभू मिलावै हरि हरि नामु सुनावै ॥ असथिरु करे निहचलु इहु मनूआ बहुरि न कतहू धावै ॥१॥ पद्अर्थ: ते = से। छुटकावै = छुड़ा दे। असथिरु = अडोल। निहचलु = चंचलता हीन। बहुरि = दुबारा। कत हू = कहीं भी। धावै = दौड़े।1। अर्थ: जो मित्र मुझे माया के बंधनो से छुड़ा ले, मुझे परमात्मा मिला दे, मुझे परमात्मा का नाम सदा सुनाया करे, मेरे इस मन को डोलने से चंचलता से हटा ले, ता कि ये फिर किसी भी तरफ ना भटके (मैं अपना सब कुछ उसके हवाले कर दूँ)।1। है कोऊ ऐसो हमरा मीतु ॥ सगल समग्री जीउ हीउ देउ अरपउ अपनो चीतु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: समग्री = माल असबाब। जीउ = जीवात्मा। हीउ = हृदय। देउ = दे दूँ। अरपउ = अर्पण करूँ।1। रहाउ। अर्थ: यदि मुझे कोई ऐसा मित्र मिल जाए (जो मुझे माया के बंधनो से छुड़ा ले) मैं उसे अपना सारा धन-पदार्थ, अपनी जिंद, अपना हृदय दे दूँ। मैं अपना चिक्त उसके हवाले कर दूँ।1। रहाउ। पर धन पर तन पर की निंदा इन सिउ प्रीति न लागै ॥ संतह संगु संत स्मभाखनु हरि कीरतनि मनु जागै ॥२॥ पद्अर्थ: पर तन = पराया शरीर, पराई स्त्री। संभाखनु = वचन विलास, गोसटि। कीरतनि = कीर्तन में।2। अर्थ: (कोई ऐसा मित्र मिल जाए जिसकी कृपा से) पराया धन, पराई स्त्री, पराई निंदा- इन सबसे मेरा प्यार ना रहे। मैं संतों का संग किया करूँ, मेरा संतों से वचन-बिलास रहे, परमात्मा की महिमा में मेरा मन हर वक्त सुचेत रहा करे।2। गुण निधान दइआल पुरख प्रभ सरब सूख दइआला ॥ मागै दानु नामु तेरो नानकु जिउ माता बाल गुपाला ॥३॥१४॥ पद्अर्थ: गुण निधान = हे गुणों के खजाने! पुरख = हे सर्व व्यापक! नानकु मागै = नानक माँगता है। गुपाला = हे गोपाल!।3। नोट: शब्द ‘नानक’ और ‘नानकु’ में अंतर है। अर्थ: हे गुणों के खजाने! हे दया के घर! हे सर्व व्यापक! हे प्रभु! हे सारे सुखों की बख्शिश करने वाले! हे गोपाल! जैसे बच्चे अपनी माँ से (खाने-पीने के लिए माँगते हैं) मैं तेरा दास नानक तुझसे तेरे नाम का दान माँगता हूँ।3।14। धनासरी महला ५ ॥ हरि हरि लीने संत उबारि ॥ हरि के दास की चितवै बुरिआई तिस ही कउ फिरि मारि ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: लीने उबारि = (सदा ही) बचा लिए हैं, बचाता आ रहा है। चितवै = सोचता है। बुरिआई = हानि, नुकसान। तिस ही कउ = उसी को ही। मारि = मार के, मार देता है, आत्मिक मौत मार देता है।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने संतों को सदा ही बचाता आ रहा है। अगर कोई मनुष्य परमात्मा के सेवक की कोई हानि करने की सोचें सोचता है, तो परमात्मा उसको ही आत्मिक मौत मार देता है।1। रहाउ। जन का आपि सहाई होआ निंदक भागे हारि ॥ भ्रमत भ्रमत ऊहां ही मूए बाहुड़ि ग्रिहि न मंझारि ॥१॥ पद्अर्थ: सहाई = मददगार। हारि = हार खा के, असफल हो के। भ्रमत भ्रमत = (निंदा के काम में) भटकते भटकते। ऊहां ही = उस निंदा के चक्कर में। मूए = आत्मिक मौत मर गए। बाहुड़ि = दुबारा। ग्रिहिन मंझारि = घरों में ही, अनेक जूनियों में।1। नोट: पाठ ‘ग्रिहि न मंझारि’ गलत है। अगर संबंधक ‘मंझारि’ का शब्द ‘ग्रिहि’ साथ होता, तो यहाँ शब्द ‘ग्रिह’ होता, ना कि ‘ग्रिहि’। ‘ग्रिहि’ का अर्थ है ‘घर में’। इसे और संबंधक की जरूरत नहीं रही। सो, असल पाठ है ‘ग्रिहिन मंझारि’। शब्द ‘ग्रिहिन’, ‘ग्रिह’ से बना हुआ बहुवचन है। अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने सेवक का आप मददगार बनता है, उसके निंदक (निंदा के काम में) हार खा के भाग जाते हैं। निंदक मनुष्य निंदा के काम में भटक के निंदा के चक्कर में ही आत्मिक मौत सहेड़ लेते हैं, और फिर अनेक जूनियों में जा पड़ते हैं।1। नानक सरणि परिओ दुख भंजन गुन गावै सदा अपारि ॥ निंदक का मुखु काला होआ दीन दुनीआ कै दरबारि ॥२॥१५॥ पद्अर्थ: दुख भंजन सरणि = दुखों के नाश करने वाले की शरण में। अपारि = अपार प्रभु में लीन हो के। कै दरबारि = के दरबार में।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई! जो मनुष्य) दुखों के नाश करने वाले परमात्मा की शरण आ पड़ता है, वह उस बेअंत प्रभु में लीन हो के सदा उसके गुण गाता रहता है। पर, उसकी निंदा करने वाले मनुष्य का मुँह दुनिया के दरबार में और दीन के दरबार में (लोक-परलोक में) काला होता है (निंदक लोक-परलोक में बदनामी कमाता है)।2।15। धनासिरी महला ५ ॥ अब हरि राखनहारु चितारिआ ॥ पतित पुनीत कीए खिन भीतरि सगला रोगु बिदारिआ ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अब = अब, इस मानव जन्म में। चितारिआ = याद करना शुरू किया। पतित = विकारों में गिरे हुए। पुनीत = पवित्र। खिन भीतरि = एक छिन में। बिदारिआ = नाश कर दिया।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्यों ने इस मानव जन्म में (विकारों से) बचा सकने वाले परमात्मा को याद करना शुरू कर दिया, परमात्मा ने एक छिन में उन्हें विकारियों से पवित्र जीवन वाले बना दिया, उनके सारे रोग काट दिए।1। रहाउ। गोसटि भई साध कै संगमि काम क्रोधु लोभु मारिआ ॥ सिमरि सिमरि पूरन नाराइन संगी सगले तारिआ ॥१॥ पद्अर्थ: गोसटि = मिलाप। साध = गुरु। संगमि = संगति में। सिमरि = स्मरण करके। संगी = साथी।1। अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में जिस मनुष्यों का मेल हो गया, (परमात्मा ने उनके अंदर से) काम-क्रोध-लोभ मार दिया। सर्व-व्यापक परमात्मा का नाम बार-बार स्मरण करके उन्होंने अपने सारे साथी भी (संसार-समंद्र से) पार लंघा लिए।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |