श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 675 अउखध मंत्र मूल मन एकै मनि बिस्वासु प्रभ धारिआ ॥ चरन रेन बांछै नित नानकु पुनह पुनह बलिहारिआ ॥२॥१६॥ पद्अर्थ: अउखध मूल = सब दवाओं का मूल। मंत्र मूल = सब मंत्रों का मूल। मन = हे मन! एकै = एक परमात्मा का (नाम ही)। मनि = मन में। बिस्वासु = विश्वास, श्रद्धा, निश्चय। रेन = धूल। बांछै = चाहता है। नानक बांछै = नानक मांगता है। पुनह पुनह = बार बार।2। अर्थ: हे मन! परमात्मा का एक नाम ही सारी दवाओं का मूल है, सारे मंत्रों का मूल है। जिस मनूष्य ने अपने मन में परमात्मा के लिए श्रद्धा धारण कर ली है, नानक उसके चरणों की धूल सदा मांगता है, नानक उस मनुष्य से सदा सदके जाता है।2।16। धनासरी महला ५ ॥ मेरा लागो राम सिउ हेतु ॥ सतिगुरु मेरा सदा सहाई जिनि दुख का काटिआ केतु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: लागो = लग गया। सिउ = से। हेतु = प्यार। सहाई = मददगार। जिनि = जिस (गुरु) ने। केतु = चोटी वाला तारा जो मनहूस समझा जाता है, झण्डा।1। रहाउ। अर्थ: हे भाई! जिस गुरु ने (शरण आए हरेक मनुष्य का) चोटी वाला तारा ही सदा के लिए काट दिया है (जो गुरु हरेक शरण आए मनुष्य के दुखों की जड़ ही काट देता है), वह गुरु मेरा भी सदा के लिए मददगार बन गया है (और, उसकी कृपा से) मेरा परमात्मा से प्यार बन गया है।1। रहाउ। हाथ देइ राखिओ अपुना करि बिरथा सगल मिटाई ॥ निंदक के मुख काले कीने जन का आपि सहाई ॥१॥ पद्अर्थ: देइ = दे के। करि = बना के। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दर्द। सगल = सारी। निंदक के मुख = निंदकों के मुँह। जन = सेवक।1। अर्थ: (हे भाई! वह परमात्मा अपने सेवकों को अपना) हाथ दे के (दुखों से) बचाता है, (सेवकों को) अपने बना के उनका सारा दुख-दर्द मिटा देता है। परमात्मा अपने सेवकों का आप मददगार बनता है, और, उनकी निंदा करने वालों का मुँह काला करता है।1। साचा साहिबु होआ रखवाला राखि लीए कंठि लाइ ॥ निरभउ भए सदा सुख माणे नानक हरि गुण गाइ ॥२॥१७॥ पद्अर्थ: सारा = सदा कायम रहने वाला। कंठि = गले से। माणे = इस्तेमाल करे, भोगे। सुख = आत्मिक आनंद। गाइ = गा के।2। अर्थ: हे नानक! सदा कायम रहने वाला मालिक (अपने सेवकों का स्वयं) रक्षक बनता है, उनको अपने गले से लगा के रखता है। परमात्मा के सेवक परमात्मा के गुण गा-गा के, और सदा आत्मिक आनंद पा कर (दुख-कष्टों से) निडर हो जाते हैं।2।17। धनासिरी महला ५ ॥ अउखधु तेरो नामु दइआल ॥ मोहि आतुर तेरी गति नही जानी तूं आपि करहि प्रतिपाल ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: अउखधु = औषधि, दवा। दइआल = हे दया के घर! आतुर = दुखी। मोहिह आतुर = मैं दुखी ने। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। करहि = तू करता है।1। रहाउ। अर्थ: हे दया के घर प्रभु! तेरा नाम (मेरे हरेक रोग की) दवा है, पर, मुझ दुखी ने समझा ही नहीं कि तू कितनी ऊँची आत्मिक अवस्था वाला है, (फिर भी) तू खुद मेरी पालना करता है।1। रहाउ। धारि अनुग्रहु सुआमी मेरे दुतीआ भाउ निवारि ॥ बंधन काटि लेहु अपुने करि कबहू न आवह हारि ॥१॥ पद्अर्थ: अनुग्रहु = कृपा। दुतीआ भाउ = दूसरा भाव, मेर तेर, माया का मोह। निवारि = दूर कर। काटि = काट के। करि लेहु = बना ले। आवह = हम आएं। हारि = हार के।1। अर्थ: हे मेरे मालिक! मेरे पर मेहर कर (मेरे अंदर से) माया का मोह दूर कर। हे प्रभु! हमारे (माया के मोह के) बंधन काट के हमें अपने बना लो, हम कभी (मानव जनम की बाजी) हार के ना आएं।1। तेरी सरनि पइआ हउ जीवां तूं सम्रथु पुरखु मिहरवानु ॥ आठ पहर प्रभ कउ आराधी नानक सद कुरबानु ॥२॥१८॥ पद्अर्थ: हउ जीवां = मैं आत्मिक जीवन वाला बना रहता हूँ। संम्रथु = समर्थ, सब ताकतों का मालिक। पुरखु = सर्व व्यापक। कउ = को। आराधी = मैं आराधता रहूँ। सद = सदा।2। अर्थ: हे नानक! (कह: हे प्रभु!) तेरी शरण पड़ कर मैं आत्मिक जीवन वाला बना रहता हूँ (मुझे अपनी शरण में रख) तू सारी शक्तियों का मालिक है, तू सर्व-व्यापक है, तू (सब पर) दया करने वाला है। (हे भाई! मेरी यही अरदास है कि) मैं आठों पहर परमात्मा की आराधना करता रहूँ, मैं उससे सदा कुर्बान जाता हूँ।2।18। रागु धनासरी महला ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हा हा प्रभ राखि लेहु ॥ हम ते किछू न होइ मेरे स्वामी करि किरपा अपुना नामु देहु ॥१॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: हा हा = हाय हाय। प्रभ = हे प्रभु! हम ते = हम जीवों से। स्वामी = हे स्वामी! 1। रहाउ। अर्थ: हे प्रभु! हमें बचा ले, हमें बचा ले। हे मेरे मालिक! (इन विकारों से बचने के लिए) हम जीवों से कुछ नहीं हो सकता। मेहर कर! अपना नाम बख्श!।1। रहाउ। अगनि कुट्मब सागर संसार ॥ भरम मोह अगिआन अंधार ॥१॥ पद्अर्थ: सागर = समुंदर। अगनि = आग। कुटंब = परिवार (का मोह)। भरम = भटकना। अगिआन = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी। अंधार = अंधेरे।1। अर्थ: हे प्रभु! ये संसार-समुंदर परिवार (के मोह) की आग (से भरा पड़ा) है। भटकना, माया का मोह, आत्मिक जीवन से बेसमझी- ये सारे घुप अंधकार बनाए हुए हैं।1। ऊच नीच सूख दूख ॥ ध्रापसि नाही त्रिसना भूख ॥२॥ पद्अर्थ: ऊच = मन का ऊँचा हो जाना, अहंकार। नीच = गिरती कला में सोच, विचारों का ढलान की ओर होना। ध्रापसि नाही = अघाता नहीं, तृप्त नहीं होता।2। अर्थ: हे प्रभु! दुनिया के सुख मिलने से जीव को अहंकार पैदा हो जाता है, दुख मिलने पर वह ढलती सोच वाली हालत में जाता है। जीव (माया से किसी भी समय) तृप्त नहीं होता, इसे माया की प्यास माया की भूख चिपकी रहती है।2। मनि बासना रचि बिखै बिआधि ॥ पंच दूत संगि महा असाध ॥३॥ पद्अर्थ: म्नि = मन में। बासना = वासना। रचि = रच के, बना के। बिखै = विषौ विकार। बिआधि = रोग। दूत = वैरी। संगि = साथ। असाध = काबू ना आ सकने वाले।3। अर्थ: हे प्रभु! जीव अपने मन में वासनाएं खड़ी करके विषौ-विकारों के कारण रोग सहेड़ लेता है। ये बड़े आकी (कामादिक) पाँचो वैरी इसके साथ चिपके रहते हैं।3। जीअ जहानु प्रान धनु तेरा ॥ नानक जानु सदा हरि नेरा ॥४॥१॥१९॥ पद्अर्थ: जीअ = सारे जीव। नानक = हे नानक! जानु = समझ। नेरा = नजदीक।4। नोट: ‘जीअ’ है ‘जीउ’ का बहुवचन। अर्थ: हे नानक! (अगर इन वैरियों से बचना है, तो) परमात्मा को सदा अपने अंग-संग बसता समझ (उसके आगे अरदास किया कर- हे प्रभु!) ये सारे जीव, ये जगत, ये धन, जीवों के प्राण - ये सब कुछ तेरा ही रचा हुआ है (तू ही विकारों से बचाने के समर्थ है)।4।1।19। नोट: अंक 1 बताता है कि ‘महला ५’ के शबदों का ये एक नया संग्रह है। धनासरी महला ५ ॥ दीन दरद निवारि ठाकुर राखै जन की आपि ॥ तरण तारण हरि निधि दूखु न सकै बिआपि ॥१॥ पद्अर्थ: दीन = गरीब, अनाथ। निवारि = दूर करके। जन = सेवक। राखै = इज्जत रखता है। तरण = जहाज। निधि = खजाना। न सकै बिआपि = व्याप नहीं सकता।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा अनाथों के दुख दूर करके अपने सेवकों की इज्जत स्वयं रखता है। वह प्रभु (संसार समुंदर से पार) लंघाने के लिए (जैसे) जहाज है, वह हरि सारे सुखों का खजाना है, (उसकी शरण पड़ने से कोई) दुख व्याप नहीं सकता।1। साधू संगि भजहु गुपाल ॥ आन संजम किछु न सूझै इह जतन काटि कलि काल ॥ रहाउ॥ पद्अर्थ: साधू संगि = गुरु की संगति में। गोपाल = धरती का पालने वाला। आन = (अन्य) कोई और। संजम = जुगति। कटि = काट ले। कलि काल = संसार की कल्पना, जगत के झमेले। रहाउ। अर्थ: हे भाई! गुरु की संगति में (रह के) परमात्मा का नाम जपा कर। इन यत्नों से ही संसार के झमेलों के फंदों को काट। (मुझे इसके बिना) और कोई युक्ति नहीं सूझती। रहाउ। आदि अंति दइआल पूरन तिसु बिना नही कोइ ॥ जनम मरण निवारि हरि जपि सिमरि सुआमी सोइ ॥२॥ पद्अर्थ: आदि = शुरू से। अंति = आखिर में। आदि अंति = जगत के आरम्भ से लेकर आखीर तक, सदा ही। दइआल = दया का घर। पूरन = सर्व व्यापक। निवारि = दूर कर ले। जपि = जप के। सोइ = वही।2। अर्थ: हे भाई! जो दया का घर, सर्व-व्यापक प्रभु हमेशा ही (जीवों के सिर पर रखवाला) है और उसके बिना (उस जैसा) और कोई नहीं उसी मालिक का नाम सदा स्मरण किया कर, उसी हरि का नाम जप के अपने जनम-मरण के चक्कर दूर कर।2। बेद सिम्रिति कथै सासत भगत करहि बीचारु ॥ मुकति पाईऐ साधसंगति बिनसि जाइ अंधारु ॥३॥ पद्अर्थ: करहि = करते हैं। मुकति = (जगत के झगड़ों झमेलों से) खलासी। अंधारु = अंधेरा।3। अर्थ: हे भाई! वेद-स्मृति-शास्त्र (हरेक धर्म पुस्तक जिस परमात्मा का) वर्णन करती है, भक्त जन (भी जिस परमात्मा के गुणों के) विचार करते हैं, साधु-संगत में (उसका नाम स्मरण करके जगत के झमेलों से) निजात मिलती है, (माया के मोह के) अंधेरे दूर हो जाते हैं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |