श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 676

चरन कमल अधारु जन का रासि पूंजी एक ॥ ताणु माणु दीबाणु साचा नानक की प्रभ टेक ॥४॥२॥२०॥

पद्अर्थ: अधारु = आसरा। साचा = सदा कायम रहने वाला।4।

अर्थ: हे नानक! (कह: हे भाई!) परमात्मा के सुंदर चरण ही भक्तों (के आत्मिक जीवन) की राशि-पूंजी है, परमात्मा की ओट ही उनका बल है, सहारा है, सदा कायम रहने वाला आसरा है।4।2।20।

धनासरी महला ५ ॥ फिरत फिरत भेटे जन साधू पूरै गुरि समझाइआ ॥ आन सगल बिधि कांमि न आवै हरि हरि नामु धिआइआ ॥१॥

पद्अर्थ: फिरत फिरत = तलाश करते करते। भेटे = मिले। भेटे जन साधू = (जब) गुरु पुरख को मिले। गुरि = गुरु ने। आन = अन्य। आन सगल बिधि = और सारी युक्तियां। कांमि = काम में। कांमि न आवै = लाभदायक नहीं हो सकती।1।

अर्थ: हे भाई! तलाश करते करते जब मैं गुरु महापुरुष को मिला, तो पूरे गुरु ने (मुझे) ये समझ बख्शी कि (माया के मोह से बचने कि लिए) अन्य सारी युक्तियों में से कोई एक युक्ति भी काम नहीं आती। परमात्मा का नाम स्मरण किया हुआ ही काम आता है।1।

ता ते मोहि धारी ओट गोपाल ॥ सरनि परिओ पूरन परमेसुर बिनसे सगल जंजाल ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: ता ते = इस लिए। मोहि = मैंने। ओट = आसरा। रहाउ।

अर्थ: इसलिए, हे भाई! मैंने परमात्मा का आसरा ले लिया। (जब मैं) सर्व-व्यापक परमात्मा की शरण पड़ा, तो मेरे सारे (माया के) जंजाल नाश हो गए। रहाउ।

सुरग मिरत पइआल भू मंडल सगल बिआपे माइ ॥ जीअ उधारन सभ कुल तारन हरि हरि नामु धिआइ ॥२॥

पद्अर्थ: सुरग = देव लोक। मिरत = मातृ लोक। पइआल = पाताल। भू मंडल = सारी धरतियां। बिआपे = ग्रसे हुए। माइ = माया (में)। जीअ = जिंद। जीअ उधारन = जिंद को (माया के मोह से) बचाने के लिए।2।

अर्थ: हे भाई! देव-लोक, मात-लोक, पाताल-लोक, सारी ही सृष्टि माया (के मोह) में फंसी हुई है। हे भाई! सदा परमात्मा का नाम स्मरण किया कर, यही है जिंद को (माया के मोह में से) बचाने वाला, यही है सारी कुलों के उद्धार करने वाला।2।

नानक नामु निरंजनु गाईऐ पाईऐ सरब निधाना ॥ करि किरपा जिसु देइ सुआमी बिरले काहू जाना ॥३॥३॥२१॥

पद्अर्थ: निरंजनु = माया से निर्लिप (निर+अंजन। अंजनु = माया की कालिख़)। निधान = खजाने। देइ = देता है। काहू बिरले = किसी विरले मनुष्य ने।3।

अर्थ: हे नानक! माया से निर्लिप परमात्मा का नाम गाना चाहिए, (नाम की इनायत से) सारे खजानों की प्राप्ति हो जाती है, पर (ये भेद) किसी (उस) विरले मनुष्य ने समझा है जिसे मालिक प्रभु स्वयं मेहर करके (नाम की दाति) देता है।3।3।21।

धनासरी महला ५ घरु २ चउपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

छोडि जाहि से करहि पराल ॥ कामि न आवहि से जंजाल ॥ संगि न चालहि तिन सिउ हीत ॥ जो बैराई सेई मीत ॥१॥

पद्अर्थ: जाहि = जाते हैं। करहि = करते हैं। से पराल = वह व्यर्थ काम (पराल = पराली)। कामि न आवहि = काम नहीं आते। से = वह (बहुवचन)। संगि = से। हीत = हित, प्यार। बैराई = वैरी।1।

अर्थ: हे भाई! माया-ग्रसित जीव वही निकम्मे काम करते रहते हैं, जिनकों आखिर छोड़ के यहाँ से चले जाना है। वही जंजाल सहेड़े रखते हैं, जो इनके किसी काम नहीं आते। उनसे मोह प्यार बनाए रहते हैं, जो (अंत समय) साथ नहीं जाते। उन (विकारों) को मित्र समझते रहते हैं जो (दरअसल आत्मिक जीवन के) वैरी हैं।1।

ऐसे भरमि भुले संसारा ॥ जनमु पदारथु खोइ गवारा ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: भरमि = भ्रम में। भूले = गलत राह पर पड़ा हुआ। संसारा = जगत। खोइ = गवा लेता है। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! मूर्ख जगत (माया की) भटकना में पड़ कर अभी गलत रास्ते पर पड़ा हुआ है (कि अपना) कीमती मानव जनम गवा रहा है। रहाउ।

साचु धरमु नही भावै डीठा ॥ झूठ धोह सिउ रचिओ मीठा ॥ दाति पिआरी विसरिआ दातारा ॥ जाणै नाही मरणु विचारा ॥२॥

पद्अर्थ: सचु = सदा स्थिर हरि नाम का स्मरण। भावै = अच्छा लगता है। धोह = ठगी। सिउ = से। मीठा = मीठा (जान के)। मरणु = मौत।2।

अर्थ: हे भाई! (माया-ग्रसित मूर्ख मनुष्य को) सदा-स्थिर हरि-नाम स्मरण करने वाला धर्म आँखों से देखना भी नहीं भाता। झूठ को ठगी को मीठा जान के इनसे मस्त रहता है। दातार प्रभु को भुलाए रखता है, उसकी दी हुई दाति इसको प्यारी लगती है। (मोह में) बेबस हुआ जीव अपनी मौत को याद नहीं करता।2।

वसतु पराई कउ उठि रोवै ॥ करम धरम सगला ई खोवै ॥ हुकमु न बूझै आवण जाणे ॥ पाप करै ता पछोताणे ॥३॥

पद्अर्थ: वसतु = चीज। कउ = की खातिर। उठि = उठ के। रोवै = रोता है। सगला ई = सारा ही। खोवै = गवा लेता है। हुकमु = रजा। आवण जाणे = जनम मरन के गेड़।3।

अर्थ: हे भाई! (भटकना में पड़ा हुआ जीव) उस चीज के लिए दौड़-दौड़ के तरले लेता है जो आखिर बेगानी हो जानी है। अपना इन्सानी फर्ज सारा ही भुला देता है। मनुष्य परमात्मा की रजा को नहीं समझता (जिसके कारण इसके वास्ते) जनम-मरण के चक्कर (बने रहते हैं) नित्य पाप करता रहता है, आखिर में पछताता है।3।

जो तुधु भावै सो परवाणु ॥ तेरे भाणे नो कुरबाणु ॥ नानकु गरीबु बंदा जनु तेरा ॥ राखि लेइ साहिबु प्रभु मेरा ॥४॥१॥२२॥

पद्अर्थ: नो = को, से। जनु = दास। साहिबु = मालिक।4।

अर्थ: (पर, हे प्रभु! जीवों के भी क्या वश?) जो तुझे अच्छा लगता है, वही हम जीवों को स्वीकार होता है। हे प्रभु! मैं तेरी मर्जी पर से सदके हूँ। गरीब नानक तेरा दास है तेरा गुलाम है। हे भाई! मेरा मालिक प्रभु (अपने दास की इज्जत खुद) रख लेता है।4।1।22।

धनासरी महला ५ ॥ मोहि मसकीन प्रभु नामु अधारु ॥ खाटण कउ हरि हरि रोजगारु ॥ संचण कउ हरि एको नामु ॥ हलति पलति ता कै आवै काम ॥१॥

पद्अर्थ: मोहि = मुझे। मसकीन = अज़िज़, निमाणा। मोहि मसकीन = मुझ निमाणे को। अधारु = आसरा। खाटण कउ = कमाने के लिए। रोजगारु = रोजी कमाने के लिए काम। संचण कउ = जमा करने के लिए। हलति = अत्र, इस लोक में। पलति = परत्र, परलोक में। ता कै काम = उस मनुष्य के काम।1।

अर्थ: हे भाई! मुझ आज़िज़ को परमात्मा का नाम (ही) आसरा है, मेरे लिए कमाने के लिए परमात्मा का नाम ही रोजी है। मेरे लिए एकत्र करने के लिए भी परमात्मा का नाम ही है। (जो मनुष्य हरि-नाम-धन इकट्ठा करता है) इस लोक में और परलोक में उसके काम आता है।1।

नामि रते प्रभ रंगि अपार ॥ साध गावहि गुण एक निरंकार ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में। रते = रंगे हुए। रंगि = प्रेम रंग में। अपार = बेअंत। साध = संत जन। गवहि = गाते हैं। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! संत जन परमात्मा के नाम में मस्त हो के, बेअंत प्रभु के प्रेम में जुड़ के एक निरंकार के गुण गाते रहते हैं। रहाउ।

साध की सोभा अति मसकीनी ॥ संत वडाई हरि जसु चीनी ॥ अनदु संतन कै भगति गोविंद ॥ सूखु संतन कै बिनसी चिंद ॥२॥

पद्अर्थ: अति मसकीनी = बहुत निम्रता। चीनी = पहचानी। जसु = महिमा। संतन कै = संतों के हृदय में। चिंद = चिन्ता।2।

अर्थ: हे भाई! बहुत विनम्र स्वभाव संत की शोभा (का मूल) है, परमात्मा की महिमा करनी ही संत का बड़प्पन (का कारण) है। परमात्मा की भक्ति संत जनों के हृदय में आनंद पैदा करती है। (भक्ति की इनायत से) संतजनों के दिल में सुख बना रहता है (उनके अंदर से) चिन्ता नाश हो जाती है।2।

जह साध संतन होवहि इकत्र ॥ तह हरि जसु गावहि नाद कवित ॥ साध सभा महि अनद बिस्राम ॥ उन संगु सो पाए जिसु मसतकि कराम ॥३॥

पद्अर्थ: जह = जहाँ। इकत्र = इकट्ठे। नाद = साज (बजा के)। कवित = कविता (पढ़ के)। बिस्राम = शांति। उन संगु = उनकी संगति। मसतकि = माथे पर। कराम = करम, बख्शिश।3।

अर्थ: हे भाई! साधु-संत जहाँ (भी) इकट्ठे होते हैं वहाँ वे साज़ बजा के वाणी पढ़ के परमात्मा की महिमा के गीत (ही) गाते हैं। हे भाई! संतों की संगति में बैठने से आत्मिक आनंद प्राप्त होता है शांति हासिल होती है। पर, उनकी संगति वही मनुष्य प्राप्त करता है जिसके माथे पर बख्शिश (का लेख लिखा हो)।3।

दुइ कर जोड़ि करी अरदासि ॥ चरन पखारि कहां गुणतास ॥ प्रभ दइआल किरपाल हजूरि ॥ नानकु जीवै संता धूरि ॥४॥२॥२३॥

पद्अर्थ: दुइ कर = दोनों हाथ (बहुवचन)। करी = करूँ। पखारि = धो के। गुणतास = गुणों का खजाना प्रभु। जीवै = आत्मिक जीवन प्राप्त करता है। धूरि = चरण धूल।4।

अर्थ: हे भाई! मैं अपने दोनों हाथ जोड़ के अरदास करता हूँ कि मैं संतजनों के चरण धो के गुणों के खजाने परमात्मा का नाम उचारता रहूँ। हे भाई! नानक उन संत जनों के चरणों की धूल से आत्मिक जीवन प्राप्त करता है जो दयालु कृपालु प्रभु की हजूरी में (सदा टिके रहते हैं)।4।2।23।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh