श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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धनासरी महला ५ घरु ७    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

हरि एकु सिमरि एकु सिमरि एकु सिमरि पिआरे ॥ कलि कलेस लोभ मोह महा भउजलु तारे ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: पिआरे = हे प्यारे! कलि कलेस = सांसारिक झगड़े। महा = बड़े (भयानक)। भउजलु = संसार समुंदर। तारे = पार लंघा देता है। रहाउ।

अर्थ: हे प्यारे! सदा ही परमात्मा का नाम स्मरण किया कर। (ये स्मरण) इस बड़े भयानक संसार समुंदर से पार लंघा देता है जिसमें बेअंत सांसारिक झगड़े हैं। जिसमें लोभ मोह (की लहरें उठ रही) हैं। रहाउ।

सासि सासि निमख निमख दिनसु रैनि चितारे ॥ साधसंग जपि निसंग मनि निधानु धारे ॥१॥

पद्अर्थ: सासि सासि = हरेक सांस में। निमख = आँख झपकने जितना समय, निमेष। रैनि = रात। चितारे = याद रख। साध संग = साधु-संगत में। निसंग = शर्म उतार के। मनि = मन में। निधानु = खजाना। धारे = धार के, टिका ले।1।

अर्थ: हे भाई! दिन-रात छिन-छिन हरेक सांस के साथ (परमात्मा का नाम) याद करता रह। साधु-संगत में (बैठ के) बेशर्म हो के परमात्मा का नाम जपा कर। ये नाम-खजाना अपने मन में बसाए रख।1।

चरन कमल नमसकार गुन गोबिद बीचारे ॥ साध जना की रेन नानक मंगल सूख सधारे ॥२॥१॥३१॥

पद्अर्थ: बीचारे = सोच मण्डल में बसा ले। रेन = चरण धूल। मंगल = खुशी। सधारे = देती है।2।

अर्थ: हे प्यारे! परमात्मा के कोमल चरणों पर अपना सिर निवाए रख। गोविंद के गुण अपने सोच-मण्डल में बसा। हे नानक! संत जनों के चरणों की धूल (अपने माथे पर लगाया कर, ये चरण-धूल) आत्मिक खुशियां व आत्मिक आनंद देती है।2।1।31।

धनासरी महला ५ घरु ८ दुपदे    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

सिमरउ सिमरि सिमरि सुख पावउ सासि सासि समाले ॥ इह लोकि परलोकि संगि सहाई जत कत मोहि रखवाले ॥१॥

पद्अर्थ: सिमरउ = मैं स्मरण करता हूँ। सिमरि = स्मरण करके। पावउ = मैं पाता हूँ। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। समाले = संभाल के, हृदय में बसा के। लोकि = लोक में। संगि = साथ। सहाई = मददगार। जत कत = जहाँ तहाँ, हर जगह। मोहि = मेरा।1।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के नाम को मैं अपने) हरेक सांस के साथ हृदय में बसा के स्मरण करता हूँ, और, स्मरण कर-कर के आत्मिक आनंद प्राप्त करता हूँ। ये हरि नाम इस लोक में और परलोक में मेरे साथ मददगार है, हर जगह मेरा रखवाला है।1।

गुर का बचनु बसै जीअ नाले ॥ जलि नही डूबै तसकरु नही लेवै भाहि न साकै जाले ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: जीअ = (मेरी) जिंद के साथ। जलि = जल में। तसकरु = चोर। भाहि = आग। न साकै जाले = जला नहीं सकती।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! (परमात्मा की महिमा से भरपूर) गुरु का शब्द मेरी जिंद के साथ बसता है। (परमात्मा का नाम) एक ऐसा धन है जो पानी में डूबता नहीं, जिसको चोर चुरा नहीं सकता, जिसे आग नहीं जला सकती।1। रहाउ।

निरधन कउ धनु अंधुले कउ टिक मात दूधु जैसे बाले ॥ सागर महि बोहिथु पाइओ हरि नानक करी क्रिपा किरपाले ॥२॥१॥३२॥

पद्अर्थ: कउ = के लिए। टिक = टेक, सहारा। बालै = बालक के लिए। बोहिथु = जहाज।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम कंगाल के लिए धन है, अंधे के वास्ते डंगोरी (छड़ी) है, जैसे बच्चे के लिए माँ का दूध है (वैसे ही हरि-नाम मनुष्य की आत्मा के लिए भोजन है)। हे नानक! जिस मनुष्य पर कृपालु प्रभु ने कृपा की, उसको (ये नाम) मिल गया (जो) समुंदर में जहाज है।2।1।32।

धनासरी महला ५ ॥ भए क्रिपाल दइआल गोबिंदा अम्रितु रिदै सिंचाई ॥ नव निधि रिधि सिधि हरि लागि रही जन पाई ॥१॥

पद्अर्थ: दइआल = दयावान। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। रिदै = हृदय में। सिंचाई = मैं भी भर लूँ। नव निधि = (धरती के सारे ही) नौ खजाने। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। जन पाई = संत जनों के पैरों में।1।

अर्थ: हे भाई! धरती के सारे नौ खजाने, सारी ही करामाती नौ ताकतें, संत जनों के पैरों पर टिकी रहती हैं। प्रभु जी अपने सेवकों पर (सदा) कृपाल रहते हैं, दयावान रहते हैं। (अगर प्रभु की कृपा हो, तो संत जनों की शरण पड़ कर) मैं भी अपने हृदय में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल इकट्ठा कर सकूँ।1।

संतन कउ अनदु सगल ही जाई ॥ ग्रिहि बाहरि ठाकुरु भगतन का रवि रहिआ स्रब ठाई ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कउ = को। जाई = जगह। सगल जाई = सब जगहों में। ग्रिहि = घर में। रवि रहिआ = बस रहा है। स्रब = सर्व, सारी। ठाई = जगहों में।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! संतजनों को (हरि-नाम की इनायत से) सब जगह आत्मिक आनंद बना रहता है। घर में, बाहर (हर जगह) परमात्मा भक्तों का (रखवाला) है। (भक्तों को प्रभु) सब जगह बसता दिखता है।1। रहाउ।

ता कउ कोइ न पहुचनहारा जा कै अंगि गुसाई ॥ जम की त्रास मिटै जिसु सिमरत नानक नामु धिआई ॥२॥२॥३३॥

पद्अर्थ: पहुचनहारा = बराबरी कर सकने वाला। जा कै अंगि = जिसके पक्ष में। गुसाई = धरती का पति प्रभु। त्रास = डर। धिआई = ध्याऊँ।2।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के पक्ष में परमात्मा खुद होता है, उस मनुष्य की कोई और मनुष्य बराबरी नहीं कर सकता। हे नानक! (कह: हे भाई!) जिस परमात्मा का नाम स्मरण करने से मौत का सहम समाप्त हो जाता है (आत्मिक मौत नजदीक नहीं फटकती), तू भी उसका नाम स्मरण किया कर।2।2।33।

धनासरी महला ५ ॥ दरबवंतु दरबु देखि गरबै भूमवंतु अभिमानी ॥ राजा जानै सगल राजु हमरा तिउ हरि जन टेक सुआमी ॥१॥

पद्अर्थ: दरबु = द्रव्य, धन। दरबवंतु = धनवान मनुष्य, धनी। देखि = देख के। गरबै = अहंकार करता है। भूमवंतु = जमीन का मालिक। अभिमानी = अहंकारी। राजु = हकूमत। जानै = समझता है। टेक = आसरा।1।

अर्थ: (हे भाई! धनी मनुष्य को धन का आसरा होता है, पर) धनी मनुष्य धन को देख के अहंकार करने लग जाता है। (जमीन के मालिक को जमीन का सहारा होता है, पर) जमीन का मालिक (अपनी जमीन को देख के) अहंकारी हो जाता है। राजा समझता है कि सारे देश में मेरा ही राज है (राजे को राज का सहारा है, पर राज का अहंकार भी है)। इसी तरह परमात्मा के सेवक को मालिक प्रभु का आसरा है (पर उसको कोई अहंकार नहीं)।1।

जे कोऊ अपुनी ओट समारै ॥ जैसा बितु तैसा होइ वरतै अपुना बलु नही हारै ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कोऊ = कोई मनुष्य। ओट = आसरा। समारै = संभाले, हृदय में बसाए रखे। बितु = विक्त, पायां। वरतै = बरताव, जगत से कार्य व्यवहार रखता है। बलु = ताकत, हौसला।1। रहाउ।

अर्थ: अगर कोई मनुष्य असली ओट (परमात्मा) को अपने हृदय में टिकाए रखे, तो वह (अहंकार आदि के मुकाबले पर) अपना हौसला नहीं हारता, (क्योंकि) वह मनुष्य अपनी पायां के मुताबिक बरतता है (अपनी सीमा से बाहर नहीं होता, अहंकार में नहीं आता, मानवता से नहीं गिरता)।1। रहाउ।

आन तिआगि भए इक आसर सरणि सरणि करि आए ॥ संत अनुग्रह भए मन निरमल नानक हरि गुन गाए ॥२॥३॥३४॥

पद्अर्थ: आन = और सारे (आसरे)। तिआगि = छोड़ के। इक आसर = एक आसरे वाले। करि = कर के, कह के। अनुग्रह = कृपा से। गाए = गा के।2।

अर्थ: हे नानक! जो मनुष्य और सारे (धन भूमि राज आदि के) आसरे छोड़ के एक प्रभु का आसरा रखने वाले बन जाते हैं, जो ये कह के प्रभु के दर पर आ जाते हैं कि, हे प्रभु! हम तेरी शरण आए हैं, गुरु की कृपा से परमात्मा के गुण गा गा के उनके मन पवित्र हो जाते हैं।2।3।34।

धनासरी महला ५ ॥ जा कउ हरि रंगु लागो इसु जुग महि सो कहीअत है सूरा ॥ आतम जिणै सगल वसि ता कै जा का सतिगुरु पूरा ॥१॥

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (मनुष्य) को। रंगु = प्रेम। इसु जुग महि = इस जगत में। सूरा = शूरवीर। आतमु = अपने आप को, अपने मन को। जिणै = जीत लेता है। वसि = वश में। ता कै वसि = उसके वश में।1।

अर्थ: हे भाई! इस जगत में वही मनुष्य शूरवीर कहलवाता है जिसके (हृदय-घर में) प्रभु के प्रति प्यार पैदा हो जाता है। पूरा गुरु जिस मनुष्य का (मददगार बन जाता) है, वह मनुष्य अपने मन को जीत लेता है, सारी (सृष्टि) उसके वश में आ जाती है (दुनिया का कोई पदार्थ उसको मोह नहीं सकता)।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh