श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ठाकुरु गाईऐ आतम रंगि ॥ सरणी पावन नाम धिआवन सहजि समावन संगि ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: आतम रंगि = दिली प्यार से। गाईऐ = गाना चाहिए। सहजि = आत्मिक अडोलता में। संगि = साथ।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! दिल में प्यार से परमात्मा की महिमा करनी चाहिए। उस परमात्मा की शरण में टिके रहना, उसका नाम स्मरणा - इस तरीके से आत्मिक अडोलता में टिक के उस में लीन हो जाना है।1। रहाउ।

जन के चरन वसहि मेरै हीअरै संगि पुनीता देही ॥ जन की धूरि देहु किरपा निधि नानक कै सुखु एही ॥२॥४॥३५॥

पद्अर्थ: वसहि = बस जाए। मेरै हीअरै = मेरे हृदय में। पुनीता = पवित्र। देही = शरीर। किरपा निधि = हे कृपा के खजाने! नानक कै = नानक के दिल में।2।

अर्थ: हे कृपा के खजाने प्रभु! अगर तेरे दासों के चरण मेरे हृदय में बस जाएं, तो उनकी संगति में मेरा शरीर पवित्र हो जाए। (मेहर कर, मुझे) अपने दासों की चरण-धूल बख्श, मुझ नानक के लिए (सबसे बड़ा) सुख यही है।2।4।35।

धनासरी महला ५ ॥ जतन करै मानुख डहकावै ओहु अंतरजामी जानै ॥ पाप करे करि मूकरि पावै भेख करै निरबानै ॥१॥

पद्अर्थ: जतन = प्रयत्न (बहुवचन)। डहकावै = धोखा देता है, ठगता है। अंतरजामी = सबके दिल की जानने वाला। जानै = जानता है। करि = कर के। भेख = पहिरावा। निरबानै = वासना रहित, विरक्त।1।

अर्थ: हे भाई! (लालची मनुष्य) अनेक प्रयत्न करता है, लोगों को धोखा देता है, विरक्तों वाले धार्मिक पहरावे पहने रखता है, पाप करके (फिर उन पापों से) मुकर भी जाता है, पर सबके दिल की जानने वाला वह परमात्मा (सब कुछ) जानता है।1।

जानत दूरि तुमहि प्रभ नेरि ॥ उत ताकै उत ते उत पेखै आवै लोभी फेरि ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभु! तुमहि = तुझे। उत = उधर। ताकै = देखता है। ते = से। लोभी = लालची। फेरि = (लालच के) चक्कर में। रहाउ।

अर्थ: हे प्रभु! तू (सब जीवों के) नजदीक बसता है, पर (लालची पाखण्डी मनुष्य) तुझे दूर (बसता) समझता है। लालची मनुष्य (लालच के) चक्कर में फसा रहता है, (माया की खातिर) उधर देखता है, उधर से और उधर देखता है (उसका मन टिकता नहीं)। रहाउ।

जब लगु तुटै नाही मन भरमा तब लगु मुकतु न कोई ॥ कहु नानक दइआल सुआमी संतु भगतु जनु सोई ॥२॥५॥३६॥

पद्अर्थ: जब लगु = जब तक। भरमा = भटकना। मुकतु = (लोभ से) आजाद। सोई = वही मनुष्य।2।

अर्थ: हे भाई! जब तक मनुष्य के मन की (माया वाली) भटकना दूर नहीं होती, इस (लालच के पँजे से) आजाद नहीं हो सकता। हे नानक! कह: (पहरावों से भक्त नहीं बन जाते) जिस मनुष्य पर मालिक-प्रभु खुद दयावान होता है (और, उसको नाम की दाति देता है) वही मनुष्य संत है भक्त है।2।5।36।

धनासरी महला ५ ॥ नामु गुरि दीओ है अपुनै जा कै मसतकि करमा ॥ नामु द्रिड़ावै नामु जपावै ता का जुग महि धरमा ॥१॥

पद्अर्थ: गुरि = गुरु ने। कै मसतकि = के माथे पर। करमा = किस्मत। द्रिढ़ावै = (और लोगों को) दृढ़ करवाता है। जुग महि = जगत में। धरम = फर्ज, कर्म।1।

अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य के माथे के भाग्य (जाग पड़े) उसे प्यारे गुरु ने परमात्मा का नाम दे दिया। उस मनुष्य का (फिर) सदा का काम ही जगत में ये बन जाता है कि वह और लोगों को हरि-नाम दृढ़ करवाता है जपवाता है (जपने के लिए प्रेरित करता है)।1।

जन कउ नामु वडाई सोभ ॥ नामो गति नामो पति जन की मानै जो जो होग ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: कउ = को। वडाई = बड़ाई। सोभ = शोभा। नामो = नाम ही। गति = उच्च आत्मिक अवस्था। पति = इज्जत। मानै = मानता है। होग = होगा।1। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के सेवक के लिए परमात्मा का नाम (ही) बड़ाई है नाम ही शोभा है। हरि-नाम ही उसकी ऊँची आत्मिक अवस्था है, नाम ही उसकी इज्जत है। जो कुछ परमात्मा की रजा में होता है, सेवक उसको (सिर-माथे) मानता है।1। रहाउ।

नाम धनु जिसु जन कै पालै सोई पूरा साहा ॥ नामु बिउहारा नानक आधारा नामु परापति लाहा ॥२॥६॥३७॥

पद्अर्थ: कै पालै = के पल्ले में। बिउहारा = कार्य व्यवहार। आधारा = आसरा। लाहा = लाभ, कमाई।2।

अर्थ: हे नानक! परमात्मा का नाम-धन जिस मनुष्य के पास है, वही पूरा शाहूकार है। वह मनुष्य हरि-नाम स्मरण को ही अपना असल व्यवहार समझता है, नाम का ही उसको असल आसरा रहता है, नाम की ही वह कमाई करता है।2।6।37।

धनासरी महला ५ ॥ नेत्र पुनीत भए दरस पेखे माथै परउ रवाल ॥ रसि रसि गुण गावउ ठाकुर के मोरै हिरदै बसहु गोपाल ॥१॥

पद्अर्थ: नेत्र = आँखें। पुनीत = पवित्र। पेखे = देख के। माथै = माथे पर। परउ = पड़ा रहूँ। रवाल = चरण धूल। रसि = स्वाद से। गावउ = मैं गाता हूँ। मोरै हिरदै = मेरे हृदय में।1।

अर्थ: हे सृष्टि के पालनहार! मेरे हृदय में आ बस। मैं बड़े स्वाद से तेरे गुण गाता रहूँ, मेरे माथे पर तेरी चरण-धूल टिकी रहे। तेरा दर्शन करके आँखें पवित्र हो जाती हैं (विकारों से हट जाती हैं)।1।

तुम तउ राखनहार दइआल ॥ सुंदर सुघर बेअंत पिता प्रभ होहु प्रभू किरपाल ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: राखनहार = रक्षा करने की सामर्थ्य वाला। सुघर = सुघड़, समझदार।1। रहाउ।

अर्थ: हे दया के घर प्रभु! तू तो (सब जीवों की) रक्षा करने में समर्थ है। तू सुंदर है, समझदार है, बेअंत है। हे पिता प्रभु! (मेरे पर भी) दयावान हो।1। रहाउ।

महा अनंद मंगल रूप तुमरे बचन अनूप रसाल ॥ हिरदै चरण सबदु सतिगुर को नानक बांधिओ पाल ॥२॥७॥३८॥

पद्अर्थ: अनूप = उपमा रहित, बहुत सुंदर। रसाल = रस भरे (रस+आलय)। हिरदै = हृदय में। को = का। पाल = पल्ले।2।

अर्थ: हे प्रभु! तू आनंद स्वरूप है (आनंद ही आनंद; खुशी ही खुशी तेरा वजूद है)। हे प्रभु! तेरी महिमा की वाणी सुंदर है रसीली है। हे नानक! जिस मनुष्य ने सतिगुरु की वाणी पल्ले बाँध ली उसके हृदय में परमात्मा के चरण बसे रहते हैं।2।7।38।

धनासरी महला ५ ॥ अपनी उकति खलावै भोजन अपनी उकति खेलावै ॥ सरब सूख भोग रस देवै मन ही नालि समावै ॥१॥

पद्अर्थ: उकति = युक्ति, जुगति, ढंग, तरीका, विउंत। खलावै भोजन = खाना खिलाता है। खेलावै = खेलाता है। सरब = सारे। मनही नालि = हमारे मन के साथ ही, हमारे सदा अंग संग। समावै = मौजूद रहता है।1।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपने ही ढंग से जीवों को खाने-पीने के लिए देता है, अपने ही ढंग से जीवों को खेलों में मस्त रखता है, (अपने ही ढंग से जीवों को) सारे सुख देता है, सारे स्वादिष्ट पदार्थ देता है, और, सदा सबके अंग-संग टिका रहता है।1।

हमरे पिता गोपाल दइआल ॥ जिउ राखै महतारी बारिक कउ तैसे ही प्रभ पाल ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: गोपाल = हे सृष्टि के पालनहार! महतारी = माँ। बारिक कउ = बच्चे को। पाल = पालने वाला।1। रहाउ।

अर्थ: हे दया के घर! हे सृष्टि के पालनहार! हे हमारे पिता प्रभु! जैसे माँ अपने बच्चे की पालना करती है वैसे ही तू हम जीवों की पालना करने वाला है।1। रहाउ।

मीत साजन सरब गुण नाइक सदा सलामति देवा ॥ ईत ऊत जत कत तत तुम ही मिलै नानक संत सेवा ॥२॥८॥३९॥

पद्अर्थ: सरब गुण = सारे गुणों वाला। नाइक = नेता, नायक, जीवन अगुवाई करने वाला। सलामति = जीवित। देवा = प्रकाश रूप प्रभु। ईत = इस लोक में। ऊत = परलोक में। जत कत तत = जहाँ कहाँ तहाँ, हर जगह। नानक = हे नानक!।2।

अर्थ: हे प्रकाश-रूप प्रभु! तू हमारा मित्र है, सज्जन है, सारे गुणों का मालिक है, सबकी जीवन की अगुवाई करने वाला है। सदा जीवित है, तू हर जगह इस लोक में परलोक में मौजूद है। हे नानक! (कह: हे भाई!) गुरु की शरण पड़ने से वह प्रभु मिलता है।2।8।39।

धनासरी महला ५ ॥ संत क्रिपाल दइआल दमोदर काम क्रोध बिखु जारे ॥ राजु मालु जोबनु तनु जीअरा इन ऊपरि लै बारे ॥१॥

पद्अर्थ: दमोदर = दाम+उदर, परमात्मा। बिखु = जहर। जारे = जला दिए। जीअरा = जिंद। इन ऊपरि = इन संत जनों से। बारे = वार जाना, सदके जाना।1।

अर्थ: हे भाई! (अपने मन में हृदय में परमात्मा का प्यार सदा टिठकाए रखने वाले) संत जन कृपा के श्रोत दया के श्रोत परमात्मा (के रूप हैं); वे अपने अंदर से काम-क्रोध (आदि विकारों के) जहर जला लेते हैं। ऐसे संतों से राज-माल-जवानी-शरीर-जीवात्मा, सब कुछ कुर्बान कर देनी चाहिए।1।

मनि तनि राम नाम हितकारे ॥ सूख सहज आनंद मंगल सहित भव निधि पारि उतारे ॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: मनि = मन में। तनि = तन में, हृदय में। हितकारे = प्यार। सहज = आत्मिक अडोलता। सहित = समेत। भवनिधि = संसार समुंदर। पारि उतारे = पार लंघा दिया है। रहाउ।

अर्थ: हे भाई! जिनके मन में हृदय में परमात्मा के नाम का प्यार सदा बना रहता है, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता के सुख-आनंद व खुशियां पाते हैं, (और लोगों को भी) संसार समुंदर से पार लंघा देते हैं। रहाउ।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh